________________
अभिवव प्राकृत - व्याकरण
(५) कुज्झ (क्रुध् ) दोह (ह), ईस (ईर्ष्या) तथा असूअ ( असूय् ) धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थवाली धातुओं के योग में जिनके ऊपर क्रोधादि किये जाते हैं, उनको चतुर्थी विभक्ति होती है । यथा हरिणो कुज्झइ, दोहइ, ईसइ, असूअर, वा ।
( ६ ) निश्चित काल के लिए वेतन इत्यादि पर किसी को रखा जाना परिक्रयण कहलाता है, उस परिक्रयण में जो करण होता है, उसकी विकल्प से सम्प्रदान संज्ञा होता है । यथा
सयेण सस्स वा परिकीणइ - सौ रूपये के चेतन पर रखा गया ।
२४०
(७) जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य विभक्ति होती है । यथा
किया जाय, उस प्रयोजन में चतुर्थी
मुत्तिणो हरि भज-मुक्ति के लिए हरि को भजता है ।
भक्ती णाणाय कप्पर, संपज्जइ, जाअइ वा ।
( ८ ) हेमचन्द्र के मत से तादर्थ्य - उसके लिए अर्थ में षष्ठी विभक्ति विकल्प से
आती है । यथा
मुणिस्स, मुणीणं देइ - मुनीनं मुनिभ्यो वा ददाति ।
नमो नाणरस - नमो ज्ञानाय नमो गुरुरुस -नमो गुरवे । देवरस देवाय नमो |
( ९ ) हित और सुख के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । यथाबंभणस्स हिअं सुहं वा-ब्राह्मण के लिए हितकर या सुखकर ।
(१०) नमो, सुत्थि, सुहा, सुआहा, और अलं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । यथा
हरिणो नमो - हरि को नमस्कार हो ।
आणं सुत्थि - प्रजा का कल्याण हो ।
पिअराणं सुंहा - पितरों को यह समर्पित है ।
अलं मल्लो मल्लस्स - मल्ल दूसरे मल्ल के लिए पर्याप्त काफी है ।
५. अपादान कारक - जिससे किसी वस्तु का विश्लेष होता है, उसे अपादानकारक कहते हैं । अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है । या -- धावतो अस्सत्तो पडइ-दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है ।
यथा---
( १ ) दुगुञ्छ, विराम और पमाय तथा इनके समानार्थक शब्दों के साथ पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा- पावत्तो दुगुञ्छइ, विरमइ वा; धम्मत्तो पमायइ ।