________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२३६ तिणेण कज्जं भवइ ईसराणं-धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो जाता है।
को अत्थो पुत्तेण जो ण विउसो ण धम्मिओ-उस पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ है, जो न विद्वान् है और न धर्मात्मा ।
(११) आर्ष प्रयोगों में सप्तमी स्थान में तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। यथा
तेणं कालेणं, तेणं समएणं-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये—उस समय में ।
४. सम्प्रदान कारक-दानकार्य के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करता है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। अर्थात् जिस पदार्थ के लिए कोई क्रिया की जाती है, उसका बोध कराने वाली संज्ञा के रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-विप्पाय या विप्पस्स गावं देइ-विप्राय गां ददाति ।
(१) रोअ-रुच् धातु तथा रुच के समान अर्थवाली अन्य धातुओं के योग में प्रसन्न होनेवाला सम्प्रदान कहलाता है और सम्प्रदान को चतुर्थी होती है। यथा
हरिणो रोयइ भत्ती-हरी को भक्ति अच्छी लगती है।
बालकस्स मोअआ रोअन्ते-बालकाय मोदकाः रोचन्ते, बालक को लड्डु, अच्छे लगते हैं। मम तव वियारो रोयइ-मुझे तुम्हारा विचार अच्छा लगता है।
तस्स वाआ मज्भं न रोयइ-उसकी बात मुझे अच्छी नहीं लगती।
( २ ) सलाह (श्लाघ) हुण, (हृड् ), चिट्ट (स्था) और (सव) शप् धातुओं के योग में जिसको जाना जाय उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान को चतर्थी विभक्ति होती है। यथा
गोवी समरत्तो किसणाय किसणस्स वा सलाहइ, चिट्ठइ, सवइ वागोपी कामदेव के वश से श्रीकृष्ण के अर्थ अपनी श्लाघा करती है, स्थित होकर कृष्ण को अपना अभिप्राय बताती है तथा कृष्ण के लिए अपना उपालम्भ करती है।
(३ ) धर-धङ उधार लेना-कर्ज लेना धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा
भत्ताय, भत्तस्स वा धरइ मोक्खं हरी-हरि भक्त के लिए मोक्ष को धारण करते हैं।
सामो अस्सपइणो सई धरइ-श्याम ने अश्वपति से एक सौ कर्ज लिए।
(४) सिह (स्पृह) धातु के योग में जिसे चाहा जाय, वह सम्प्रदानसंज्ञक होता है और सम्प्रदान को चतुर्थी विभक्ति में रखते हैं। यथा
पुप्फाणं सिहइ-पुष्पेभ्यः स्पृहयति-फूलों की चाहना करता है।