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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (१४४ ) रेफ और हकार को द्वित्व नहीं होता है।' यथा
सुंदेरं< सौन्दर्यम्-संयुक्तादि य का लोप होने पर रेफ को द्वित्व नहीं हुआ। बम्हचेरं< ब्रह्मचर्यम्- , धीरं धैर्यम्-
, विहलो< विह्वलः-संयुक्तान्त्य व का लोप और ह को द्वित्वाभाव ।
कहावणो< कार्षापणः-संयुक्तादि रेफ का लोप, ष के स्थान पर ह और ह को द्वित्वाभाव तथा प को व।
(१४६ ) समासान्त पदों में पूर्वोक्त नियम की प्रवृत्ति विकल्प से होती है । यथा
नइ-ग्गामो, नइ-गामो< नदी-नामः-द लोप, ई स्वर शेष, संयुक्तान्त्य रेफ का लोप और विकल्प से ग को द्वित्व ।
__कुसुमप्पयरो, कुसुम-पयरोद कुसुम-प्रकर:-रेफ का लुक् होने पर प को विकल्प से द्वित्व ।
देव-त्थुई, देव-थुई ८ देव-स्तुति:-स लोप, त को विकल्प से द्वित्व, द्वितीय त के स्थान पर थ।
तेल्लोक्क, तेलोकं त्रैलोक्यम्-र लोप, ल को विकल्प से द्वित्व।
आणालक्खम्भो, आणाल-खम्भो< आलानस्तम्भः-समास होने से विकल्प से द्वित्व एवं वर्णव्यत्यय।
मलय-सिहरक्खण्ड, मलय-सिहर-खण्डं - मलयशिखरखण्डम्-समास में विकल्प से ख को द्वित्व ।
पम्मुक्कं, पमुक्कंद प्रमुक्तम्-समास होने से म को विकल्प से द्वित्व हुआ है। (१४६ ) तैलादिगण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों के निर्णयानुसार कहीं अनन्त्य और अन्त्य व्यञ्जनों को द्वित्व होता है। उदाहरण
तेल्लं - तैलम् - अन्त्य व्यन्जन ल को द्वित्व ।
१. र-होः ८।२।६३. हे । २. समासे वा ८।२।६७. हे। ३. तैलादौ ८।२।६८. हे । ४. प्राकृत प्रकाश में तैलादिगण के बदले नीडादि गण का उल्लेख मिलता है। 'नीडादिषु'
३।५२ में इस गण के शब्दों का नियमन किया है। 'कल्पलतिका' में नीडादिगण के शब्द निम्न बतलाये गये हैं
नीडव्याहृतमण्डूकस्रोतांसि प्रेमयौवने । ऋजुः स्थूलं तथा तैलं त्रैलोक्यं च गणो यथा ॥