Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [29]
इस प्रकार योगसिद्ध आचार्यश्री के आशीर्वाद, कृपादृष्टि, वासक्षेप एवं मांगलिक के प्रभाव से कइयों के जीवन का उद्धार हुआ और उन आत्माओंने आचार्यश्री की प्रेरणा से आत्मकल्याण किया।
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी अनेक प्रकार की तांत्रिक, मांत्रिक एवं अन्य चमत्कारिक विद्याओं के ज्ञाता थे। ये विद्याएँ उन्होंने यति श्री सागरचन्द्रजी से अपने यतिजीवन के अध्ययन काल में सीखी थी एवं पञ्चागी सहित जैनागमों के अध्ययन की समाप्ति पर श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजीने स्वयं के पास स्थित अपने आम्नाय की सिद्ध अलभ्य विद्याएँ आचार्यश्री की योग्यता देखकर गुरुकृपा या आशीर्वाद के रुप में प्रदान की थी। प्रसंगवश, मिथ्या अभिमान के खंडन या स्व-धर्म प्रभावना या संघरक्षा के प्रसंगो से हमें इनकी तनिक झलक मिलती हैं।
वि.सं. 1919 में एक बार मुनि रत्नविजयजी आहोर में थे तब किसी इंद्रजालिक ने इंद्रजाल से आम्रवृक्ष प्रगट किया तब लोक प्रशंसा से वह मिथ्या अभिमान करने लगा। तब गुर्वादेश से यति रत्नविजयजीने (आचार्यश्री का आचार्यत्व के पूर्व का नाम) आकाश में बहुत बडे शरीरवाला एक पुरुष प्रकट किया जिसके अनेकों हाथ थे और प्रत्येक हाथ में विभिन्न शस्त्र थे। इसे देखकर लोग भयभीत होकर भागने लगे तब आपे इसे समेट लिया और अन्य अनेक दृश्य दिखाये ।180
वि.सं. 1922 में बीकानेर (राज.) में एक दिगम्बर श्रावक को मंत्र साधना में कुछ गडबड होने पर सर्पने काय तब मुनि रत्नविजयजी ने उसे स्वस्थ कर दिया था।181
वि.सं. 1933 में जालोर (राज.) में यति तखतमल आदि स्थानकवासियों के अभ्याक्षेप पर आपने खेरादीवास में मुनिसुव्रत स्वामी भगवान् की प्रतिमाजी के मुखारविंद से स्थानकवासियों के प्रश्नों के उत्तर दिलवाये थे।182
जावरा, खाचरौद, भीनमाल आदि जगह कुछ विद्वेषी यतियों ने निन्द्य तांत्रिक प्रयोग किये, लेकिन आपके प्रभाव से किसी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ। इतना ही नहीं, शिवगंज प्रतिष्ठा में जब किसी यतिने आग का तंत्र-प्रयोग किया तब गुरुदेव ने नवकार मंत्र बोलकर उस दिशा में मात्र एक मुठ्ठी वासक्षेप उडाया जिससे अग्नि शांत हो गयी।183
उसी प्रकार वि.सं. 1953 में जावरा में व्याख्यान के सभा मंडप में किसी यति भक्त ने आग लगा दी तब जनता का आक्रोश देखकर मामला संभालते हुए गुरुदेवश्रीने किसी मुनि से पात्र में पानी मंगवाकर व्याख्यान-पाट पर बैठे-बैठे ही पात्र के पानी में दोनों हाथ मसलकर धोए। तब हाथों में काला-काला पदार्थ पानी के साथ था। हाथ शुद्ध होते ही आग बुझ गयी और आपश्रीने लब्धि के प्रकट प्रयोग करने के प्रायश्चित स्वरुप अट्ठम तप (तीन उपवास) का प्रत्याख्यान किया।184
वि.सं. 1959 में आचार्यश्री अपनी शिष्य मंडली के साथ राणकपुर की नाल पर एक नाले के पास वटवृक्ष के नीचे अवस्थान किया और सब से कहा कि कोई भी वटवृक्ष की छाया से बाहर न जाये। रात्रि में नाले में शेर पानी पीने आया तब मुनि लक्ष्मीविजयजीने शेर जैसी आवाज को, जिससे छाया से बाहर शेर सामने आकर खडा हो गया जिससे सब साधु और श्रावक घबराने लगे। तब आचार्यश्रीने त्राटक किया, जिससे शेर कुछ क्षण स्थिर बैठ गया और फिर गर्जना
करता हुआ छलांग लगाकर पर्वतों के पीछे चला गया।185
बाग (म.प्र.) में 12 जैन परिवार थे परंतु अनेकों प्रयत्न करने पर भी आर्थिक, धार्मिक या पारिवारिक किसी भी तरह से उनकी उन्नति हो नहीं रही थी तब वि.सं. 1962 में कुक्षी चातुर्मास हेतु बाग पधारें आचार्यश्री के सन्मुख वहाँ के तत्कालीन निवासियों के द्वारा इसका कारण पूछने पर आपने बताया कि, बाग के तत्कालीन जिनालय के मूलनायक श्री पार्श्वनाथजी गाँव की राशि के अनुसार संगत नहीं है एवं उनकी दृष्टि गाँव की ओर नहीं होने से नगर एवं श्री संघ की उन्नति नहीं हो रही हैं।
तब रामपुरा आये बाग श्री संघ की भावभरी विनंती को स्वीकार कर आपने प्राचीन जिनबिंब एवं जिनालय को उत्थापित कर नये सौधशिखरी जिनालय में नये मूलनायकजी की अञ्जन शलाकाप्राणप्रतिष्ठा की (वि.सं. 1962 मागशीर्ष सु.-2)। उस महोत्सव में वहाँ बाघनी नदी के किनारे श्मसान में जाकर समस्त उपद्रवकारी आसूरी तत्त्वों को तप-ध्यान एवं योगबल से अपने वश में करके बाग श्री संघ एवं बाग नगर को सर्वात्मना समृद्ध कर दिया।86
इस प्रकार आचार्यश्री अनेकों तांत्रिक-मांत्रिक विद्याओं के ज्ञाता होने के बावजूत इन्होंने कभी भी अपनी विद्याशक्ति का दुरुपयोग नहीं किया। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : अप्रतिम दार्शनिकः
प्रायः सभी भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन भी जीवन के आँगन में व्यवहृत सफल आचार दर्शन होने के नाते अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह जैनदर्शन के प्रकाण्डविद्वान् सुप्रसिद्ध आत्मान्वेषी अध्यात्मपुरुष आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज एक श्रेष्ठ दार्शनिक थे।
___ आपके द्वारा रचित दार्शनिक ज्ञान का अक्षय खजाना श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के माध्यम से कर्मवाद, नवतत्त्ववाद, नयप्रमाणवाद, अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अध्यात्म, सम्यक्त्व, रत्नत्रय, पञ्च परिवर्तन (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव), नास्तिकवाद आदि का वर्णन द्रष्टव्य
___ आप की कृति 'षड्द्रव्यविचार' में तेरह लेखों के माध्यम से आपने जैन दर्शन की नींव स्वरुप जीवास्तिकाय, अजीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल - इन षड्दव्यों का इतने संक्षिप्त शब्दों में और इतनी सरलता से जो सहजसंपूर्ण ज्ञान करवाया हैं वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। साथ ही आपके द्वारा रचित 'स्तवन चौबीसी' में जैन धर्म के वर्तमान-चौबीस तीर्थंकरों
180. राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 26 181. वही ढाल-11 182. व्याख्यान - आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वर जी म. गुरुसप्तमी
वि.सं. 2044 183. धरती के फूल पृ. 291, 292 184. धरती के फूल पृ. 294 185. वही पृ. 298 186. इस मंदिर का शताब्दी महोत्सव हमने आचार्यश्री के प्रशिष्यरत्न
वर्तमानाचार्यदेव श्री वि. जयन्तसेन सूरीश्वरजी की निश्रा में वि.सं. 2062 के बाग (म.प्र.) के चातुर्मास में बाग श्री संघ के साथ मनाया (उसमें हम भी उपस्थित थी)। आज भी बाग का प्रायः प्रत्येक जैन परिवार संघपति (संघवी) हैं एवं सारा नगर सर्वात्मना आबाद है, वह आपही की कृपा का फल है।
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