Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[226]... चतुर्थ परिच्छेद
चार प्रकार के क्रोध क्रमशः पत्थर, भूमि, बालू और धूलि की रेखा जैसा होता हैं । 34
पत्थर में पड़ी दरार के समान अनन्तानुबन्धी क्रोध किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने पर जीवन पर्यन्त बना रहता है। सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार वर्षा के योग से ही मिटती है। इसी तरह अप्रत्याख्यानी क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थायी नहीं रहता। बालू की रेखा हवा के झोंके के साथ मिट जाती है। प्रत्याख्यानी क्रोध चार मास से अधिक स्थायी नहीं रहता। पानी में खींची गई रेखा के समान संज्वलन क्रोध पन्द्रह दिन तक स्थायी रह सकता है।
चार प्रकार का अभिमान क्रमशः शैलस्तम्भ, अस्थि, काष्ठ और लता स्तम्भ जैसा बताया गया है। 35 पत्थर का स्तम्भ टूट जाता है पर झुकता नहीं । अनन्तानुबन्धी मानवाला व्यक्ति किसी परिस्थिति में समझौता नहीं करता, झुकता नहीं । प्रयत्नपूर्वक कठिनता से झुकने वाले अस्थि स्तम्भ की तरह अप्रत्याख्यानी मानवाला व्यक्ति विशेष परिस्थिति में बाह्य दबाव के कारण झुक जाता है। थोडे से प्रयत्न से झुक जानेवाले काष्ठ स्तम्भ की तरह प्रत्याख्यानी मानवाले व्यक्ति में भीतर छिपी विनम्रता परिस्थिति विशेष को निमित्त पाकर प्रकट हो जाती है। अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाले बेंत-स्तम्भ की तरह संज्वलन मानवाला व्यक्ति आत्म गौरव को रखते हुए विनम्र बना रहता है।
चार प्रकार की माया क्रमश: वांस की जड, मेढे का सींग, चलते हुए बैल की धार और छिलते हुए बांस की छाल की तरह होती हैं। 36 बांस की जड इतनी वक्र होती है कि उसका सीधा होना सम्भव ही नहीं। ऐसी माया व्यक्ति को धूर्तता के शिखर पर पहुँचा देती है। मेढे केसिंग में बांस के कुछ कम टेढापन होता है । चलते हुए बैल की मूत्र धार टेढी-मेढी होने पर भी उलझी
कषाय की अवस्था
क्रोध मान अनन्तानुबंधी शिलारेखा पर्वत
अप्रत्याख्यानीय पृथ्वीरेखा
प्रत्याख्यानीय धूलिरेखा
क्रोधादि चारों कषायो के चारों भेदों की अवस्था, दृष्टता, काल और फल निम्नानुसार है"
कषाय
शक्तियों के दृष्टांन्त
स्थिति काल
माया
संज्वलन
जलरेखा
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अस्थि
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन नहीं होती। संज्वलन माया की ऐसी ही वक्रता होती है ।
चार प्रकार का लोभ क्रमश: कृमिरेशम, कीचड, गाडी के खंजन और हल्दी के रंग के समान होता है। 37 कृमिरंग इतना पक्का होता है कि प्रयत्न करने पर भी रंग उतरता नहीं। अनन्तानुबन्ध लोभ व्यक्ति पर पूर्णतः हावी रहता है। वस्त्रों पर लगे कीचड के धब्बे सहजतः साफ नहीं होते। वैसे ही अप्रत्याख्यानी लोभ के धब्बे आत्मा को कलुषित करते रहते हैं। गाडी का खंजन वस्त्र को विद्रूप बनाता है फिर भी तेल आदि से उतर जाता है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी लोभ साधना, तपस्या आदि से काफी हल्का बन जाता है। हल्दी से रंगा वस्त्र धूप दिखाते ही साफ हो जाता है, वैसे ही संज्वलन लोभ समय और परिणाम दोनों दृष्टियों से बहुत कम प्रभावित कर पाता है।
काष्ठ
वेत्र (वेंत)
बांस
34. अ. रा. पृ. 3/395-98 3/683
35. अ. रा. पृ. 3/683; 6/239
36. अ. रा. पृ. 3/395-98
37. अ. रा.पू. 6/752
8.अ. रा. पृ. 3/395-98; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/38 39. अ.रा. पृ. 3/395-398; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/38
वेणुमूल
अनादिकाल से जुडा जीव के साथ कषाय का संबंध संसार परिभ्रमण का कारण बनता है। इसके कारण व्यावहारिक जीवन ही असफल नहीं बनता, आत्मगुणों का विनाश भी होता है। जैन तत्त्व दर्शन में कषाय से होनेवाले चार प्रकार के अभिघातों का उल्लेख मिलता है
मेषशृंग
गोमूत्र
धनुष्यादि की डोरी
1. अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व का अभिघात करता है। 2. अप्रत्याख्यानी कषाय देशव्रत (श्रावकत्व) का अभिघात करता है। 3. प्रत्याख्यानी कषाय सर्वव्रत - साधुत्व का अभिघात करता है । 4. संज्वलन कषाय वीतरागता का अभिघात करता है।
कषायों की मन्दता और तीव्रता के सन्दर्भ में गतिबन्ध की चर्चा उल्लेखनीय है। अभिधान राजेन्द्र कोशादि में अनन्तानुबन्धी कषाय का फल नरकगति, अप्रत्याख्यान कषाय का फल तिर्यञ्चगति, प्रत्याख्यान कषाय का फल मनुष्य-गति और संज्वलन कषाय का फल देवगति बतलाया है 138
लोभ
किरमजी (मजीठ) के
रंग या दाग के समान
चक्रमल के
एक वर्ष रंग या दाग के समान
कीचड के
वर्ण या दाग के समान
हल्दी के वर्ण या दाग के समान
यावज्जीव
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चार मास
15 दिन
फल
नरक गति
तिर्यंच गति
मनुष्य गति
देव गति
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