Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 376
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [327] वैयावच्च करें तो उसे अधिक निर्जरा होती हैं, उसकी अपेक्षा यदि तत्त्व की ओर आकर्षित करे वह आक्षेपणी धर्मकथा है। वह (1) आगमधर-पूर्वधर-श्रुतधर-14 पूर्वधर मुनि यदि वैयावृत्त्य करते हैं तो आचार-लोच,अस्नान आदि, (2) व्यवहार-विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित, उन्हें अधिकाधिक निर्जरा का लाभ होता है ।229 (3) प्रज्ञप्ति-जिज्ञासु को तत्त्व बोध देना, (4) दृष्टिवादिकी - श्रुत ज्ञान उसमें भी परिणाम की शुद्धिपूर्वक वैयावृत्त्य करनेवालों को की अपेक्षा से सूक्ष्म जीवादि भाव कहना । -इत्यादि रुप से चार कर्मनिर्जरारुपी लाभ एवं विनय की भी प्राप्ति होती है । 20 वैयावृत्त्य प्रकार की है-47, अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य, समिति, शिवसुख का प्रथम सोपान है। वैयावृत्त्य करने से जिनाज्ञा का पालन गुप्ति आदि का उपदेश देना आक्षेपणी धर्म कथा है ।2-48 होताहै, अनुकम्पा की प्राप्ति होती है; आहारादि के द्वारा वैयावृत्त्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार जिसमें मति आदि सम्यक करने से तीर्थंकर नाम-गोत्र का बंध होता है। भरत चक्रवर्तीने ज्ञानों का तथा सामायिकादि सम्यक्कचारित्रों का निरुपण किया जाता पूर्वभव में सुविहित साधुओं की वैयावृत्त्य के द्वारा शाता वेदनीय है वह आक्षेपणी कथा है24", अथवा जो नाना प्रकार की एकान्त कर्म का उपार्जन किया, जिसके प्रभाव से वे भरत क्षेत्र में चक्रवर्ती दृष्टियों और दूसरे समयों के निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य बनकर, आरीसा भुवन में केवलज्ञान प्राप्त कर राजर्षि बनकर आठों और नौ प्रकार के पदार्थो का प्ररुपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कर्म क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुए 232 कहते हैं।250 अथवा तीर्थंकरादि के वृत्तान्तरुप प्रथमानुयोग, लोक स्वाध्याय तप : का वर्णन रुप करणानुयोग, श्रावक/मुनिधर्म का कथन रुप चरणानुयोग, __स्वाध्याय मुख्य रुप से तीन अक्षरों से मिलकर बना है। पंचास्तिकायादिक के कथन रुप द्रव्यानुयोग, इनका कथन और परमत सु+अधि+ अय = स्वाध्याय । स्वाध्याय कीपरिभाषा देते हुए अभिधान की शंका दूर करे वह आक्षेपणी कथा हैं।251 अथवा जिसके द्वारा राजेन्द्र कोश में कहा हैं - "सष्ठ आ मर्यादया अधीयते इति अपने मत का संग्रह अर्थात् अनेकान्त सिद्धान्त का यथायोग्य समर्थन स्वाध्यायः" 20 व्याकरण की दृष्टि से इसका अर्थ होता है - सम्यक हो उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं।252 प्रकार से सच्छास्त्रों को मर्यादापूर्वक पढना स्वाध्याय है। स्वाध्याय (2) विक्षेपणी कथा253 - अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जिस की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि "अपने अन्दर की गहराई कथा में जैन मत के सिद्धान्तों का और पर मत का निरुपण है उसको में उतर कर अपने आपका अध्ययन करना ही वास्तव में स्वाध्याय विक्षेपणी कथा कहते हैं जैसे 'वस्तु सर्वथा नित्य ही है' इत्यादि हैं।''24 मूलाचार में जिनकथित बारह अङ्ग और चौदह पूर्व को । अन्य मतों के एकान्त सिद्धान्तों को पूर्व पक्ष में स्थापित कर उत्तर स्वाध्याय कहा हैं35। पक्ष में वे सिद्धान्त प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से विरुद्ध हैं, एसा स्वाध्याय के प्रकार : सिद्ध करके, वस्तु का स्वरुप कथंचित् नित्य इत्यादि रुप से जैनमत अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञान को सुरक्षित एवं स्थिर रखने के अनेकान्त को सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथा है। यह कथन की दृष्टि से स्वाध्याय के पाँच सोपान बताए गए हैं। वे पाँच सोपान 229. अ.रा.पृ. 1/23-24 है -वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा।236 230. धर्मसंग्रह-भाषांतर-भा. 1 पृ. 638 वाचना - गुरु से विधिपूर्वक सूत्रार्थ शास्त्रों का अध्ययन करना 231. अ.रा.पृ. 6/1460 वाचना है37। वाचना (पठन-पाठन) से निर्जरा होती हैं।238 232. अ.रा.पृ. 6/1459 पृच्छना - गुर्वादि से सूत्र और अर्थ की वाचना लेने के बाद उस 233. अ.रा.पृ. 7/280; स्थानांग टीका-5/3/465; सवार्थसिद्धि टीका 9/20%; चारित्रासार-44/3 पाठ का मनन करते हुए यदि कोई संदेह उत्पन्न हो जाये तो गुरु 234. अ.रा.पृ. 7/280; चारित्रासार-152/5 से विनयपूर्वक पूछकर समाधान प्राप्त करना पृच्छना हैं।239 235. मूलाचार 511 परावर्तना - पढा हुआ ज्ञान-शास्त्र विस्मृत न हो, पढे हुए कंठस्थ 236. अ.रा.पृ. 7/280-292; भगवती सूत्र-25/7; अनागार धर्मामृत-9/4 किए गए ज्ञान को स्मृति में स्थिर एवं सुरक्षित रखने के लिए बार- 237. अ.रा.पृ. 6/1088; भगवती सूत्र-25/7; मूलाचार-393; चारित्रसार 152/5 बार दुहराना - पुनरावर्तन करना परावर्तना हैं।240 238. अ.रा.पृ. 6/1088; उत्तराध्ययन-29/19 अनप्रेक्षा - तत्त्व के अर्थ व रहस्य पर गहराईपूर्वक चिन्तन मनन 239. अ.रा.पृ. 5/324, 325; 7/2803; करना अनुप्रेक्षा हैं।241 (विस्तृत विवेचन पृ. 304 पर है) 240. अ.रा.पृ. 5/627, 325; 7/280 धर्मकथा - जो कथाएँ मनुष्यों को धर्म की ओर प्रेरित करे वे 241. अ.रा.पृ. 1/399,7/280 'धर्मकथा' कहलाती हैं।242 धर्म का कथन व्याख्यान 'धर्मकथा' 242. अ.रा.पृ. 7/280 कही जाती है। अथवा चिन्तन-मनन व अनुभव से प्राप्त ज्ञान जब 243. अ.रा.पृ. 4/2711 244. अ.रा.पृ. 4/27113; लोकोपकरार्थ धर्म संबंधी कहानी-कथन के द्वारा दूसरों को समझाया 245. अ.रा.पृ. 3/402; दशवैकालिक नियुक्ति-210 जाता है तब वह धर्म-कथन धर्मकथा कहलाता है ।243 अथवा अहिंसा- 246. अ.रा.पृ. 4/2711; दशवैकालिक नियुक्ति-3/99 सत्य आदि से युक्त धर्म के स्वरुप की प्ररुपणा करना ही धर्मकथा 247. अ.रा.पृ. 1/152; दशवैकालिक नियुक्ति-3/20 हैं।244 तप-संयम से युक्त मुनि सद्भावपूर्वक समस्त जगत् के जीवों 248. अ.रा.पृ. 1/152; दशवैकालिक नियुक्ति-201 के हित के लिए जो कथन करते हैं, उसे कथा/धर्मकथा कहते हैं।245 249. भगवती आराधना, मूल गाथा 556/853 250. धवला पुस्तक 1/1, 1, 2/105/1 तथा श्लोक 75/106 धर्मकथा चार प्रकार की हैं।246 - 1. आक्षेपणी 2. विक्षेपणी 3. 251. गोमट्टसार, जीवकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका पृ. 795 संवेजनी (संवेदनी, संवेयणी) और 4. निवेदनी। 252. अनगार धर्मामृत/7/88/7/6 (1) आक्षेपणी धर्मकथा - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 253. अ.रा.पृ. 6/1132; स्थानांग 4/2;दशवैकालिक नियुक्ति-3/1/197; भगवती कहा है कि जो कथा श्रोताओं को मधर वचनों के द्वारा मोह से आराधना, 656/853 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524