Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [383] (9) विष वाणिज्य - वत्सनाग, सोमलादि विभिन्न प्रकार के कहलाता हैं।127 अनर्थदण्ड चार प्रकार के बताये गये हैं, इसलिए
विषों का व्यवसाय करना । उपलक्षण से हिंसक अस्त्र-शस्त्रों अनर्थदण्डविरमण भी चार प्रकार का हो जाता हैं। चार अनर्थदण्ड
का व्यवसाय भी शामिल हैं। (10) केश वाणिज्य - दास-दासी, भेड़-बकरी प्रभृति केशयुक्त (1) अपध्यान :प्राणियों के क्रय-विक्रय का व्यवसाय करना, चमरी गाय,
किसी की हार-जीत, हानि-लाभ, मृत्यु आदि का चिंतन लोमडी आदि पक्षियों-पशु के बालों एवं रोमयुक्त चमडे (चमडे या आर्त्त-रौद्र ध्यान 'अपध्यान' कहलाता हैं । 128
के कोट, स्वेटरादि) का व्यवसाय, केश वाणिज्य कहलाता हैं। (2) प्रमादाचरण :(11) यंत्रपीडन कर्म - ईख, तिल आदि यंत्र में पीलना तथा
बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, पानी बहाना, बिजली जलाना, यंत्र, सांचे, धावी, कोल्हू आदि का व्यवसाय । उपलक्षण पंखा चलाना, आग जलाना, वनस्पति काटना/तोडना पशु युद्ध, वैर से उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार, जिससे प्राणियों की विरोध आदि प्रमादचर्या हैं। तथा मद्य (मदिरादि), विषय, कषाय, हिंसा की संभावना हो, इसमें समिहित हैं।
निद्रा, विकथा, जुआ, अप्रतिलेखना (पडिलेहण नहीं करना), अज्ञान (12) निलांछन कर्म - बैल आदि को दाग लगाना, उनके कान- संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर/अनुद्यम, मननाक काटना, खस्सी करना निल्छन कर्म हैं।
वचन-काया का दुष्प्रणिधान भी प्रमादाचरण हैं।129 (13) दावाग्नि दापन - जंगल में आग लगना, खेतों में सूड (3) हिंसादान :जलाना इत्यादि।
अस्त्र-शस्त्रादि, तथा हिंसक उपकरणों का आदान-प्रदान तथा (14) सरोवर-द्र-तडाग शोषण - तालाब, झील, जलाशय आदि व्यापार हिंसादान हैं।139 को सुखाना।
(4) पापोपदेश :(15) असतीजन प्रेषणता पोषण - व्यभिचारवृति के लिए
हिंसा, युद्ध, चौर्य, व्यभिचार आदि तथा कुव्यापारादि के वेश्याओं आदि को नियुक्त करना एवं व्यभिचारवृति करवाकर
लिए दूसरों को प्रेरित करना, 'पापोपदेश' कहलाता है। 31 उनके द्वारा धनोपार्जन करना । चूहों को मारने के लिए बिल्ली
अनर्थदण्ड व्रत के पाँच अतिचार :अथवा कुत्ते आदि क्रूरकर्मी प्राणियों का पालन भी इसी में
यहाँ अनर्थ दण्ड के इन चार प्रकारों के साथ पाँच अतिचार सम्मिलित हैं। 124
भी वर्णित हैं, जो निम्नानुसार हैंभोगोपभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार25 :
(1) कन्दर्प - कामवासना को उत्तेजित करनेवाली चेष्टाएँ करना व्रती साधक को निम्नांकित पाँचों अतिचार दोषों का त्याग
या काम-भोग संबंधी चर्चा करना । करना चाहिए। ये निम्नानुसार हैं
(2) कौत्कुच्य - हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। (1) सचित्ताहार - सचित्त पृथ्वीकाय (नमक, मिट्टी आदि), अप्काय
(3) मौखर्य - अधिक वाचाल होना, शेखी बधारना तथा बातचीत (कच्चा पानी), वनस्पतिकाय (सचित्त सब्जी, पत्ते, फल,
में अपशब्दों का उपयोग करना आदि । अनाज, बीज आदि) का भक्षण सचित्ताहार है। जिसने सचित्ताहार
(4) संयुक्ताधिकरण - हिंसक साधनों को अनावश्यक रुप का त्याग या परिमाण किया हो, उसे यह अतिचार लगता
से संयुक्त (तैयार) करके रखना, जैसे-बंदूक में कारतूस या
बारुद भरकर रखना । इससे अनर्थ की संभावना अधिक होती (2) सचित्तपिधान - सचित्त से संबद्ध - अचित्त आहार में
है। हिंसक शस्त्रों का निर्माण, संग्रह और क्रय-विक्रय भी रहा हुआ सचित्त आहार, बीज, गुठली आदि जैसे - खजूर
दोषपूर्ण हैं। खाये और गुठली छोड दे या थोडा सचित्त और थोडा अचित्त
(5) उपभोगपरिभोगातिरेक - भोग्य सामग्री का आवश्यकता एसा आहार सचित्तपिधान कहलाता हैं।
से अधिक संचय करना ।132 (3) अपक्वाहार - मिश्र आहार, बिना पका हुआ कच्चा आहार
सामायिक व्रत :खाना।
यह गृहस्थ का प्रथम शिक्षाव्रत है। 'सामायिक' के विषय (4) दुष्पक्क (अपक्क दुष्पक) - आधा पका, आधा कच्चा या
में पूर्व में सम्यक् चारित्र के प्रकरण में विवेचन किया जा चुका अधिक पका (जला) हुआ आहार। (5) तुच्छौषधि-भक्षण - कोमल चवले की फली, मूंग की फली (कच्ची) आदि खाना।
124. अ.रा.भा. 2/931
125. अ.रा.पृ. 2/930; उपासक दशांग-1 अ. अनर्थदण्डविरमण व्रत :
126. अ.रा. 11284; सावय पण्णत्ति-289, 290; योगशास्त्र 3/96 बिना किसी प्रयोजन के जिस पाप-कार्यों से आत्मा दंडित
127. अ.रा. 1/284, 285; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा-393 होती है, जिससे स्व या पर की हानि के अलावा कोई लाभ नहीं 128. अ.रा. 1284; का.अ. 367; रत्नकरंडक श्रा. 78 होता - एसे निष्प्रयोजन पाप कार्यों को करना 'अनर्थदण्ड हैं। द्रव्य
129. अ.रा. 5/479, 480 एवं 1/284; र.क.श्रा. 80
130. अ.रा. 1/284; का.अ.-367 से बिना किसी कारण के राजदण्डादि तथा भाव से ज्ञानादि की
131. अ.रा. 5/877-879, 1/284; का अनु.-346 हानि 'अनर्थदण्ड' हैं ।126 इनका त्याग करना 'अनर्थदंड विरमण व्रत'
132. अ.रा. 1/285; तत्त्वार्थ सूत्र-7/17
है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org