Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 453
________________ [402]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार भारतवर्ष में आरम्भ से ही दो परम्पराएँ विद्यमान रही हैं श्रमणपरम्परा और ब्राह्मण परम्परा जैसा कि "येषां च विरोधः शाश्वतिकः" -इस पाणिनि अष्टाध्यायी में प्राप्त सूत्र की व्याख्या में शाश्वत विरोध के उदाहरण में 'श्रमणब्राह्मणम्' उदाहरण से स्पष्ट है। फिर भी, ये दोनों परम्पराएँ एक दूसरे की पोषक और एकदूसरे पर प्रभावी रहीं हैं और आज भी हैं । एकदूसरे के सिद्धान्तों की स्वस्थ आलोचनाओं के कारण एकदूसरे में प्राप्त विसंगतियों का परिमार्जन होता रहा और स्वीकृत सिद्धान्तों की नयी किन्तु तर्कसंगत व्याख्याएँ भी प्रकाश में आई। जैनधर्म की तरह वैदिक धर्म में अहिंसा के साथ-साथ सत्य महाव्रत", अचौर्य महाव्रत, ब्रहमचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत की स्वीकारोक्ति भी है। पंच यम और पंचमहाव्रत : जैन परम्परा के पाँच महाव्रतों के समान ही वैदिक परम्परा में पंच यम स्वीकार किये गये हैं। पांतजल योगसूत्र में निम्न पाँच यम माने गये हैं - 1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह । इन्हें महाव्रत भी कहा गया है। पांतजल योगसूत्र के अनुसार जो जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित है तथा सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य है, वे महाव्रत हैं। 1. महाभारतः अनुशासन पर्व - अ. 119, श्लोक 38 2. महाभारतः अनुशासन पर्व 3. वही अहिंसा : एक सार्वभौम सिद्धान्त : उपरोक्त क्रम में वैदिक धर्म में भी उत्तरोत्तर काल में जैन एवं बौद्ध परम्पराओं के प्रभाव से अहिंसा को प्रधानता मिलती गई। महाभारत में अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम संयम, परम मित्र, तथा परम सुख कहा है। अनुशासन पर्व में कहा है - इस विश्व में अपने प्राणों से प्यारी अन्य कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार मनुष्य अपने ऊपर दया करता है, उसी प्रकारसे दूसरों पर भी रखनी चाहिए । अहिंसा ही एकमात्र धर्म है, अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि इससे सभी प्राणियों की रक्षा होती है। महाभारत में और भी कहा है कि "एक जीव के प्राण बचाना सुवर्ण के मेरुपर्वत या सारी पृथ्वी का दान देने से भी बढ़कर है। सभी वेद, सभी यज्ञ और सभी तीर्थाभिषेक से भी जीवदया का फल अधिक है। वेदविचारकों का कथन है - हिंसा से जिसका मन दुःखी होता है उसे हिन्द कहा जाता है। मनुस्मृति में भी सब जीवों पर दया करने का प्रतिपादन किया गया है। गीता में भी कहा है - सभी जीवों के हितेच्छ किसी भी जीव की हिंसा न करें। ईश्वर गीता में कहा है - मन से, वाणी से या शरीर से कभी भी किसी भी जीव को क्लेश उत्पन्न नहीं करवाना - उसे महर्षियों ने अहिंसा कहा है। बुद्धदेव ने कहा है - सभी जीव दण्ड से त्रास पाते हैं और मृत्यु से भयभीत होते हैं अतः सभी जीवों को आत्मवत् मानकर किसी भी जीव की हिंसा न करें, घात भी न करें।' भागवत में पाँच व्रतों में और सांख्यों के दश धर्मों में अहिंसा को ही प्रथम व्रत और धर्म कहा है। महाभारत में भी यज्ञ में होते पशुवध का स्पष्ट निषेध किया है।" शब्दकल्पद्रुम में भी यज्ञ में होनेवाली पशुहिंसा की निन्दा की गयी है। छान्दोग्य उपनिषद में भी कहा है - स्थावर या चर, किसी भी जीव की हिंसा न करें। जो सभी जीवों को आत्मवत् देखता है, वही मनुष्य धार्मिक है। शुद्धि-शौच का चतुर्थ कर्म जीवदया है। योग-भाष्यकार व्यास ने कहा है - तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामानभिद्रोहः । अर्थात् सब तरह से सर्वकाल में सभी जीवों के साथ अद्रोहपूर्वक व्यवहार करना अहिंसा है।। पतंजलि के योगसूत्र में भी कहा गया है - "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । अर्थात् अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर उसके निकट सब प्राणी अपना स्वभाविक वैरभाव त्याग देते हैं। आयुर्वेद में चरक संहिता में भी सर्व जीवों के प्रति दया का वर्णन है।17 यास्कनिरुक्त में भी हिंसा कर्म का प्रतिषेध किया है।18 4. वही 5. अहिंसा ओर मार्गदर्शन पृ. 10 6. सर्वभूतानुकम्पकः ।-मनुस्मृति 6/8 7. मा हिंस्यात् सर्वभूतानि, सर्वभूतहिते रतः । - श्रीमद् भगवद्भीता । 8. वही, पृ. 20 9. ब्राह्मण धार्मिक सूत्र, बुद्धदेव - उद्धत 'अहिंसा और मार्गदर्शन, पृ. अंतिम से दूसरा 10. दरेक धर्मनी दष्टिए अहिंसा नो विचार, पृ.22 11. अहिंसा सकलो धर्मः हिंसाऽधर्मस्तथाविधः । सत्यं तेऽहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम् ।। -महाभारत - शांति पर्व-मोक्षधर्माधिकार-अध्याय 99/20 12. शब्दकल्पद्रुम - पद्मोत्तर खण्ड 13. न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः॥ - अ.रा.भा. 1 पृ. 878; छान्दोग्य उपनिषद्-अध्ययन 8 अ.रा.पृ. 1/873; एवं पृ. 7/1004, 1165; चाणक्य राजनीतिशास्त्र - 3/ 42; स्कन्दपुराण, काशीखंड-6 15. योगसूत्र 2/35 16. योगसूत्र-पतंजलि, 2/35 17. चरक संहिता 1/30 18. यास्क निरुक्त 1/8 19. शतपथ ब्राह्मण 2/1/4/10; नारायणोपिनिषद्-10/62-63 सूक्ति त्रिवेणी पृ. 180 से उद्धृत; वाल्मीकीय रामायण, अयोध्याकाण्ड-1/4/71, 109/ 13 20. भागवत 7/14/8 21. मनुस्मृति 6/41/49; गौतमसूत्र 3/11 22. बृहदाराण्यकोपनिषद् 2/4/1; मनुस्मृति 6/38; भागवत - 7/14/8 23. पातञ्जल योगसूत्र, साधनपाद, सूत्र 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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