Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 508
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [5] 4. चैत्यवंदन के बाद शकस्तवादि प्रणिधान पाठ औरस्तुतित्रय कही जायँ अर्थात् चैत्यवंदन कहने के बाद शक्रस्तवादि प्रसिद्ध पाँच दण्डक, तीन स्तुतियाँ और प्रणिधान पाठ कहे जायँ तब तक जिनालयों में ठहरना चाहिए। किसी कार्य विशेष के लिए अधिक ठहरना पडे तो अनुचित नहीं है। 4. (क)तिण्णि वा कड्ढइ जाव, थुईओ तिसिलोगिया। ताव तत्थ अणुन्नायं, कारणेण परेण वि । श्रुतस्तवनन्तरंतिस्त्रः स्तुतिस्त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाण । यावत् कुर्वते, तावते, ताक्तत्र चैत्यायतने स्थान-मनुज्ञातम् । कारणवशात् परेणाप्युपस्थानमनुज्ञातम् । - व्यवहार भाष्य पर श्री मलयगिरिकृत टीका में 'पणिहाण मुत्तसुत्तिए' वचन की टीका-सत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी पृ. 8 से उद्धृत (ख)निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वेहिं थुई तिन्नि । वेलं च चेइयाणिय, नाउं एक्किक्किया वा वि ॥1804 ॥ -बृहत्कल्पभाष्य टीका-श्री क्षेमकीर्तिसूरि-स्वोपज्ञ श्राद्धविधि प्रकरण टीका-श्री रत्नशेखर सूरि । (ग) "चैत्यवंदनान्ते शक्रस्तवाद्यनन्तरं तिस्त्रः स्तुतयःश्लोकत्रय-प्रमाणा: प्रणिधानार्थं यावत्कथ्यन्ते प्रतिक्रमणान्तरमंगलार्थ स्तुतित्रय पाठवत् तावच्चैत्यगृहे स्थानं साधूनामनुज्ञातं निष्कारणम् न परत ।" - चैत्यवंदन भाष्य - टीका - श्री धर्मघोषसूरि से उद्धत सत्य समर्थक प्रश्नोत्तरी पृ.9 () આગમમાં સાધુને ત્રણ થઈ વડે જે ચૈત્યવંદન કરવું કહેલ છે. કારણ કે વ્યવહાર ભાષ્યમાં કહ્યું છે કે સાધુ મલમલિન અને અસ્નાત હોવાથી ત્રણ શ્લોકવાળી ત્રણ થઈ કહ્યા ઉપરાંત વિના કારણે વધુ વખત ચેત્યમાં રહે નહિં. -अंचलगच्छीय आचार्य श्री महेन्द्रसूरि (वि.सं. 1294) रचित 'बृहत्सत्पदी' ग्रंथ से उद्यूत आ. श्री मेरुतुंगसूरिकृत लघु सत्पदी (वि.सं. 1450) (इन दोनों का पं. खजी देवराज (कच्छ-कोडायवाला) कृत गुजराती भाषांतर पृ. 14 विचार क्रमांक-15) (ड) कथारत्नकोष प्रथमभाग - पृ. 288 -श्रीदेवभद्राचार्य (वि.सं. 1158) द्वारा रचित (च) न च देवगृहेऽपि स्तुतित्रयकर्षणात्परतोऽवस्थानमनुज्ञातं साधूनामिति । विधिवन्दनाद्यर्थमवस्थाने नोक्तदोषः । - प्रतिमाशतक काव्य -26 पर न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी कृतवृत्ति पृ. 171 (छ) दुझिगंधवरिस्सावी तणुरप्येस एहाणया दुवाहाउ वहो चेव, तो चिटुंति न चेइए । ति भीवाकड्डए जाव छुतीतो तिसलोगइया ताव तच्छ अणुयायं कारणं भिपरेणावि ॥ ___ - व्यवहार भाष्य मूल-उद्धृत चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 1999 (ज) एषा तनुः नापितापि दुरभिगंधप्रस्वेद परिश्राविणी तथा द्विविधो वायुर्यथोधिो वायुवहो निर्गम उच्छवासनिश्वासनिर्गमश्व तेन कारणेन चैत्ये चैत्यायतने साधवो न तिष्ठन्ति अथवा श्रुतस्तवानंतरं तिस्रः स्तुतयः त्रिश्लोकिकाः श्लोकत्रयप्रमाणा यावत्कर्षते तावत्तत्र चैत्यायतने स्थानमनुज्ञातं कारणेन कारणवशात्परेणाप्यवस्थानमनुज्ञातमिति ॥ -व्यवहार भाष्य टीका - उद्धृत चतुर्थस्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 200 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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