Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 506
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिशिष्ट... [3] 3. जैनागम पंचागी के अनुसार तीन स्तुति प्राचीन है, और प्राचीन काल में शुद्धाचरण से तीन स्तुति प्रचलित थी, इसलिए तीन स्तुति करना उचित है। 3. (क)नौ अंग सूत्रों के टीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिने पंचाशक की टीका में लिखा है-"सम्पूर्णा - परिपूर्णा सा च प्रसिद्धदण्डकैः पंचभिः स्तुतित्रयेण प्रणिधानपाठेन च भवति, चतुर्थ स्तुतिः किलार्वाचीनेति ।" - यह लिखकर चौथी स्तुति को नवीन घोषित किया है । (ये आचार्य वि.सं. 1135 या 1139 में स्वर्गगत् हुए है। - पट्टावली समुच्चय पृ. 54 धरती के फूल पृ. 167) - तृतीय पञ्चाशक की टीका पृ. 53 (ख) व्यवहार भाष्ये स्तुतित्रयस्य कथनात् चतुर्थस्तुतिः अर्वाचीना इति गूढामभिसन्धि ?किंच नायं गूढाभि-सन्धिः किन्तु स्तुतित्रयमेव प्राचीनं प्रकटमेव भाष्ये प्रतीयते । कथमिति ? चेत् द्वितीय भेद व्याख्यानावसरे "निस्सकडं" इति भाष्य गाथायां 'चेइये सव्वेहिं थुइ तिण्णी"इति स्तुतित्रयस्यैव ग्रहणात् । एवं भाष्यद्वय-पर्यालोचनया स्तुतित्रयस्यैव प्राचीनत्वम् । तुरीयस्तुतेराचीनत्वमिति । - शुद्ध देव-गुरु-धर्मनी सेवा उपासना विधि पृ. 33 - पंचाशक टीका के टिप्पणीकार द्वारा लिखित एवं सत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी पृ. 12, 13 से उद्वरित (ग) तिण्णि वा कड्ढइ जाव थुइओ तिसिलेगिया । ताव तत्थ अणुण्णायं, कारणेण परेण वि ॥ चैत्यवंदन महाभाष्य गा. 23 -श्री संघदास गणि क्षमाक्षमण रचित श्री व्यवहार सूत्र भाष्य पर विक्रम की 13 वीं शती के पूर्वार्धमें आ.मलयगिरिजीकृत टीका में "पणिहाणं मुत्तसुत्तिए" - वचन की टीका। (घ) निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वेहि थुई तिन्नि । वेलं च चेइयाणि य, नाउं एक्किक्किया वा वि 1808॥ - तपागच्छीय आचार्य श्री क्षेमकीर्तिसूरि (विक्रम की 18वीं शती) विरचित बृहत्कल्पभाष्य टीका - द्वि.वि.पृ. 531 (૩)વિદ્યાધર ગચ્છનાં શ્રી હરિભદ્રસૂરિ થયાં. તે જાતે બ્રાહ્મણ હતાં. તેમણે જૈન દીક્ષા ગ્રહણ કરી. યાકિની-સાધ્વીનાં ધર્મપુત્ર કહેવાતાં Sti. महा 1444 ग्रन्थो जनाव्या. श्री वीर नि पछी 1055 वर्षे स्वर्ग गयi. त्या२५छी यतुःस्तुतिमत याल्यो - १७मत भने संघ प्रगति पृ. 169-. श्री भुद्धिसागरसूरि (च) त्रिस्तुतीक सूत्र साक्षी गर्भित श्री शांतिजिन लावणी शातिनाथर्नु स्मरण करीने, कहुं पंचागी विस्तारी । सूत्र नियुक्ति भाष्यने चूर्णी, टीका जाणो हद भारी, पंचागी जो नही माने, ते मिथ्यात्वी निरधारी । तीन थुईना सूत्र बताउँ, जगमां वरते जयकारी ॥शांति ॥1 महानिशीथ में चारो सूत्र कहा है निहारी । आवश्यक की सर्वपंचागी, ओछे लेना संभारी व्यवहारभाष्य चर्णीने टीका, लघ ची लो सखकारी । बहत्कल्पनो भाष्य अगियारमो, विशेष ची टीकाकारी॥शांति ॥2 आवश्यक अवचूरी पंदरे, सोलमी दीपिका साधारी । उत्तराध्ययननी बे लघुवृत्ति, पाई अवचूरी लो धारी ग्रंथ वीस पंचागी केरा, प्रकरण दाखं हितकारी । अंगचूलिया वंदण पयन्ना, वर्धमान स्तुति देखारी ॥शांति ॥3 पूजा चैत्यवंदन पंचाशक, दोनों वृत्ति सहकारी । श्राद्धविधि टीकाने भाषा, सार्धशतक मूल भाषारी । प्रतिमाशतक वृद्ध आवश्यक, श्राद्धदिनकृत्य गाथारी । संदेहदोहावली हेतु आवश्यक, श्राद्धदिनकृत्य गाथारी ॥शांति ॥4 चौंतीश अधिका ग्रंथ सखाई, पोथी देखो पुरारी। जैन तत्त्वादशैं देखो, चारसे सत्तरे पृष्ठांरी। चैत्यवंदन ओ चैत्य होवे, पंचांगी छे उपकारी । आवश्यक विधि छत्तीसो ग्रंथे, भाखे जिनजी जयकारी ॥शांति ।। 5 श्रुतदेवी जिनवाणी वरते, करता वंदन गणधारी । भगवई निशीथसूत्रमा देखो,शंका करवा दो टारी । आवश्यकी दीपिका वरजे, देवी थुई छे शंकारी । 'सूरि राजेन्द्र' आप निरंजन, अन्य देव है अवतारी ॥शांति ॥6 (छ) अवस्सं काऊणं जिणोवइद्वं गुस्वएसेणं तिण्णि थुइ पडिलेहा कालस्स । इमा विहि तत्थ । - आवश्यक बृहद् वृत्ति, सिद्धांत प्रकाश पृ. 46 थी उद्धृत (ज) थयथुइमंगलेणं नाणदंसणगचरित्तबोहिलाभंजणइ,नाणदंसणचरित्तबोहिला भसंपण्णेणणंजीवे अंतकिरियंकप्पविमाणोववत्तिअं, वा आराहणं आराहेइ (उत्तरा-अ.29 ) इति वचनेनैव सिद्धा, अत्र स्तवः -स्तवनं, स्तुतिः-स्तुतित्रयं प्रसिद्धम्, ___-प्रतिमाशतक-काव्य-2 पर श्री यशोविजयजीकृत वृत्ति-पृ. 20 (झ) महानिशीथ सूत्र और श्री मार्नदेवसूरि रचित उपधान प्रकरण में तीन थुई के सूत्र कहे है, चतुर्थ स्तुति के नहीं । - चतुर्थस्तुति निर्णय शंकोद्धार - पृ. 158, 159, 160 (ञ) उत्कृष्टचैत्यवंदनविधावुत्तरोत्तरं स्तुतयः प्रायो वर्णोवृद्धा एव विधेया इति परंपरा वर्ततेऽनेन ढिः सत्यैवावसीयते परम्परामूलं तु नमोऽस्तु वद्धमानायेतस्याधिकारे "ताउअ थुइउ एगसिलोगादि वड्डन्ति आउ पयवरवरादिहि वा सरेण वा वड्ढतेण तिन्नि भाणिऊणामि"- त्याद्यावश्यकचूर्ण्यक्षर-दर्शनमिति संभाव्यत इति ॥2॥ -सेन प्रश्न -उद्धृत चतुर्थस्तुति निर्णय शंकोद्धार - पृ. 196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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