Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 458
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दूर करनेवाले शम-दमादि साधनों का अनुष्ठान करें। 116 यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है । बुढापे ने इसे चारों ओर से घेर रखा है और ये दिन-रात प्राणियों की आयु का अपहरण करके व्यतीत हो रहा है, इस बात को आप समझते क्यों नहीं है?" 117 7. धर्म भावना :- महाभारत का वचन है कि धर्म से ही ऋषियों ने संसार समुद्र को पार किया है। धर्म पर ही संपूर्ण लोक हुआ है। धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है। 18 अतः मन को वश में करके धर्म को अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिए और संपूर्ण प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए, जैसा हम अपने लिए चाहते हैं (119 मैत्र्यादि चार भावनाएँ : पातांजल योग सूत्र में जैनों की तरह ही मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ इन चार भावनाओं का उल्लेख है । 120 ब्राह्मण परम्परा और परिषह : ब्राह्मण परम्परा में भी मुनि के लिए कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है। वैदिक परम्परा तो यहाँ तक विधान करती है कि मुनि satara -बूझकर अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने चाहिए। उसे कठिन तपस्या करनी चाहिए और अपने शरीर को भलीभाँति के कष्ट देकर सब कुछ सह सकने का अभ्यासी बने रहना चाहिए। मनु का कहना है कि वानप्रस्थी को पंचाग्नि के बीच खडे होकर, वर्षा में बाहर खडे होकर, जाडे में भीगे वस्त्र धारण कर कष्ट सहन करना चाहिए | 121 इसी प्रकार उसे खुली भूमि पर सोना चाहिए और रोग हो जाये तो चिंता नहीं करनी चाहिए। 122 परिषहजय के संबंध में भी जैन तथा वैदिक परम्पराएँ समान दृष्टिकोण रखती हैं। ब्राह्मण परम्परा में पूजा विधान : जैन परम्परा की तरह इष्ट देवता की पूजा ब्राह्मण-भक्ति मार्गीय परम्परा का भी आवश्यक अङ्ग है। इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रुप प्रचलित रहे हैं - 1 पञ्चोपचार पूजा 2 दशोपचार पूजा और 3. षोडशोपचार पूजा । पञ्चम परिच्छेद... [407] पञ्चोपचार पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य - ये पाँच वस्तुएँ देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा में पाद प्रक्षालन, अर्ध्यसमर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य समर्पण - इन दश प्रक्रियाओं द्वारा पूजा-विधि संपन्न की जाती है। इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में 1. आह्वान, 2. आसनप्रदान 3. स्वागत 4. पाद- प्रक्षालन 5. आचमन 6. अर्ध्या 7. मधुपर्क 8. जल 9. स्नान 10. वस्त्र 11. आभूषण 12. गंध 13. पुष्प 14. धूप 15. दीप और 16. नैवेद्य से पूजा की जाती है। इसी प्रकार जैन परम्परा तथा ब्राह्मण परम्परा में देवताओं के आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रुप से की जाती है। इसमें देवता के नाम को छोडकर शेष संपूर्ण मंत्र भी प्राय: समान है। 123 इस प्रकार श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों में ही ग्रार्हस्थ धर्म और मुनिधर्म का विधान समान रुप से प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, अपितु पञ्चमहाव्रत आदि प्रमुख सिद्धान्त और द्रव्योत्सर्जन पूर्वक पूजाविधि आदि व्यावहारिक धर्म भी समान रूप से विहित हैं। दोनों परम्पराओं में प्रयुक्त शब्दावली में समानता और विधियों में समानता से यह स्पष्ट होता है कि ये दोनों ही धाराएँ एक-दूसरे की विरोधी होने पर भी एक दूसरे की पूरक और पोषक रही हैं और आज भी हैं । 116. वही, 174/7 117. वही, 175/9 118. महाभारत, शांतिपर्व 167/7 119. वही 167/9 120. पातंजल योगसूत्र- 1 / 33 Jain Education International 121. मनुस्मृति 6 / 23, 24 122. वही, 6/43,46 123. डो. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ, जैन धर्म में पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान, पृ. 49 गृहस्थ धर्म સાકર ભલે મોંઘી અને સ્વાદિષ્ટ હોય પણ લૂણ (મીઠું, નમક)નું કામ કરી શકે નહિં, દૂધ દહીં કે ઘી વગેરે ગમે તેટલા શ્રેષ્ઠ કે પૌષ્ટિક હોય પણ તે પાણીનું કામ કરી શકે નહીં અને પાઘડી ગમે તેટલી કિંમતી હોય પણ તે લજ્જા ઢાંકવાનું કાર્ય કરી શકે નહિં. આમ, લૂણ, પાણી કે અધોવસ્ત્રાદિનું મૂલ્ય ઓછું હોય છતાં આવશ્યકતાની અપેક્ષાએ તેનું મહત્ત્વ જરાય ઓછું નચી. બલ્કિ સાધુધર્મની યોગ્યતાની તાલીમ ગૃહસ્થ જીવનમાં અપાય છે, તે અપેક્ષાએ સાધુ ધર્મની યોગ્યતા પ્રગટાવવા અને ઘણા જીવોના જીવનના સાધનભૂત હોવાથી ગૃહસ્વધર્મ પણ આવશ્યક છે. ગૃહસ્થ ધર્મના પ્રત્યેક અનુષ્ઠાનો ધર્મરાગને પ્રગટાવનારાં છે જેચી વૈરાગ્ય પરિપકવ થાય છે. વૈરાગ્યના બળે વીતરાગભાવની સિદ્ધિ કરી શકાય છે. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524