Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
षष्ठ परिच्छेद... [435] चतुर्थ भाग :
जयणा से तं जत्ता। विवेकयुक्त प्रवृत्ति (जयणा) ही वास्तविक यात्रा है। अर्थात् साधु के लिए संयमयात्रा ही तीर्थयात्रा है।
- अ.रा.पृ. 4/1390; भगवती सूत्र-18/10/18 सार्वभौमा महाव्रतम्। महाव्रत सार्वभौम (जाति-देश-काल-समय की सीमा से रहित) होते हैं।
- अ.रा.पृ. 4/1391; योगदर्शन2/31 नवि मुंडिएण समणो। सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता।
- अरा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/31 न तं तायन्ति दुस्सीलं। दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता।
- अ.रा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/30 कम्माणि बलवन्ति हि निश्चय ही कर्म बलवान है।
कुसचीरेण न तावसो। वल्कल वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता।
- अ.रा.पृ. 4/1421; उत्तराध्ययन-25/31 न ओंकारेण बंभणो। ॐकार का जाप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता।
- वही न मुणी रणवासेणं। केवल जंगल में रहने से ही कोई मुनि नहीं हो जाता।
- वही अयं निजः परो वेत्ति, गणा लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ हल्के चित्तवाले लोगों की - 'यह अपना है, यह पराया है' ऐसी बुद्धि होती है। उदार चित्तवाले तो समग्र पृथ्वी के लोगों को ही अपना कुटुम्बीजन मानते हैं।
- अ.रा.पृ. 4/1617; हितोपदेश - मित्रलाभ 71 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं।
- अ.रा.पृ. 4/1817; उत्तराध्ययन-9/48 जहाकडं कम्मे तहा सि भारे। जैसा कर्म किया है वैसा ही उसका भार समझो। __ - अ.रा.पृ. 4/1921; सूत्रकृतांग -1/5/1/26 विणएण लहइ नाणं, नाणेण विजाणइ विणयं । विनय से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से विनय जाना जाता है।
- अ.रा.पृ. 4/1980; दसपयन्ना चन्द्रवेध्यकप्रकीर्णक -62 अतिपरिचयावदवज्ञा ।। अति परिचय करने से अनादर होता है।
- अ.रा.पृ. 4/2070; धर्मबिन्दु -1/48 तात्त्विकस्य समं पात्रं न भूतो न भविष्यति । तत्त्वविद् के समान पात्र न तो अतीत में हुआ और न होगा।
- अ.रा.पृ. 4/2183; धर्मसंग्रह -2, पृ.205 महाव्रतिसहस्रेषु वरमेको तात्त्विकः । हजारों महाव्रतियों में एक तात्त्विक श्रेष्ठ है।
- वही
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