Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 498
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सप्तम परिच्छेद... [443] 34. अभिधान राजेन्द्र कोश की मूल विषयवस्तु 9232 पृष्ठों में मुद्रित है। इसके प्रस्तावना आदि की विषयवस्तु 241 पृष्ठों में है। इस प्रकार मुद्रित पृष्ठों की संख्या 9473 है। 35. इस कोश का प्रचलित नाम 'अभिधान राजेन्द्र कोश', संक्षिप्त नाम अभिधान राजेन्द्र/राजेन्द्र कोश, और पूरा नाम 'श्री अभिधान राजेन्द्र प्राकृत महाकोश' है। अभिधान राजेन्द्र कोश के पुष्पिका वचन संशोधकद्वय द्वारा लिखे गये हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश प्रथम भाग के परिशिष्ट क्र. 1, 2 एवं 3 प्राकृतव्याकरण सम्बन्धी सिद्धान्त एवं रुपावली दी गयी है। अभिधान राजेन्द्र कोश का प्रथम मुद्रण वि.सं. 1981 के चैत्र कृष्ण सप्तमी को हुआ। और द्वितीय मुद्रण का लोकार्पण श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरि की निश्रा में वि.सं. 2044 अषाढ सुदि द्वितीया, रविवार को हुआ। अभिधान राजेन्द्र में साहित्य, व्याकरण, संस्कृति,, राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित शब्दों पर निबन्धात्मक सामग्री उपलब्ध है। 40. अभिधान राजेन्द्र में 'जैन आचार' को 'लोकोत्तर धर्म' नाम से अभिहित करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के समुदित स्वरुप को धर्म के रुप में प्रतिपादित किया गया है। 41. जैन धर्म का लक्ष्य 'मोक्ष' (दुःखो से आत्यन्तिक निवृत्ति) है। इसमें जीव का पूर्ण स्वरुप प्रगट होता है, संसार का उच्छेद होता है और कर्मों के आवरण से मुक्ति होती है। जैनधर्म मे यथाख्यात चारित्र सर्वोपरि माना गया है। जैनधर्म का 'सम्यक्चारित्र' अविनाशिता का सिद्धांत, नश्वरता का सिद्धान्त, स्वतत्रंता का सिद्धान्त बन्ध का सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, जीव का उपयोग स्वभाव, मोक्ष की सादि अनन्तता, अहिंसा, वीतरागता (राग-द्वेष का अभाव) आदि अनेक अधिकरण सिद्धान्तों को जन्म देता है। 44. सम्यक् चारित्र से जीव का विकास होता है जो 14 गुण स्थानों में पूर्ण हो जाता है। इन गुणस्थानक नामक विकास की अवस्थाओं में कषायों की क्रमशः हानि होकर जीव नि:कषायत्व को प्राप्त होता है। 45. योगवासिष्ठ में भी गुणस्थानकों के समान 'बीजजागृत' आदि 14 विकास भूमियों को स्वीकार किया गया है। 46. चारित्र साधकों के प्रथम वर्ग 'श्रमण' और 'साधु' नाम से जाना जाता है। ये साधु तीन प्रकार के होते हैं - आचार्य, उपाध्याय और साधु । 47. निर्ग्रन्थ श्रमण अष्टादश आचार स्थाननों के अनुसार आचरण करता है। 48. निर्ग्रन्थ श्रमण 16 उद्गम दोषों, 16 उत्पादना दोषो एवं 10 दायक दोषों से रहित आहार ग्रहण करता है। 49. आहार विधि में आहारोपयोग (अभ्यवहरण) के समय भी श्रमण को ग्रासैषणा के दोषों का परिहार करना आवश्यक है। श्रमण को अपने जीवन में छह आवश्यक कर्म अनिवार्यतः करणीय होते हैं। इन्हें षडावश्यक नाम से जाना जाता है। चातुर्मास (वर्षाकाल) के अतिरिक्त समय में श्रमण को निरन्तर विहार करते रहने का विधान है; निर्ग्रन्थ श्रमण मठ आदि बनाकर नहीं रह सकता। निषेधात्मक आचार में निर्ग्रन्थ को पाँच पापों से सर्वथा विरत रहने के लिए पाँच महाव्रतों का पालन आवश्यक है। इनकी पुष्टि में रात्रिभोजनत्याग नामक व्रत को भी उपचार से षष्ठ महाव्रत कहा गया है। संयम की रक्षा के निमित्त ओधोपधि संज्ञक 14 उपकरण और औपग्रहिक उपधि संज्ञक 25 उपकरण रखने का विधान श्रमण के लिए मान्य किया गया है। श्रमण के लिए पञ्चाचार का पालन आवश्यक है। यह चारित्र का विधिपरक स्वरुप है। चारित्र की रक्षा के लिए अष्ट प्रवचनमाताओं का उपदेश किया गया है; पाँच समितियाँ एवं तीन गुप्तियाँ मिलाकर आठ प्रवचनमाताएँ हैं। क्षमा आदि दस यतिधर्म मनोभावनाओं पर संयम करने के लिए एवं आत्मस्वरुप में स्थिरता के लिए बताये गये हैं। स्वभावबल प्रवृत क्षुधा आदि, प्रकृतिकृत शीत-उष्ण आदि, लोककृत स्त्री, चर्या, आदि से होनेवाली व्यथा से श्रमण को अविचलित रहने के लिए 22 परिषहों पर विजय पाने का उपदेश किया गया है। श्रमण जीवन में 'कल्प' संज्ञक दश आचारों का विधिपरक पालन करना आवश्यक है। 58. विशेष साधना काल में श्रमण को द्वादश भिक्षु प्रतिमाओं के आचरण का उपदेश किया गया है। 59. वैराग्य भावना को निरन्तर वर्धनशील रखने के लिए द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने का विधान किया गया है। शुभ भावनाओं के विपरीत 26 अशुभ भावनाएँ होती हैं जिनका स्वरुप जानकर उनसे दूर रहने का उपदेश किया गया है। 61. श्रमणजीवन तपस्या प्रधान है। प्रत्येक श्रमण को शक्ति के अनुसार अनशन आदि छह बाह्यतपों का एवं प्रायश्चित आदि छह आभ्यन्तर तपों का आचरण निरन्तर करते रहना चाहिए। अन्त:करणोन्मुखं वृत्ति के साथ धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अवस्थित रहने का अभ्यास करना श्रमण जीवन की सार्थकता है। वर्तमान में संहनन के अभाव में शुक्लध्यान नहीं होता। जैनाचार का आंशिक पालन करनेवाले जीव को श्रावक वर्ग में रखा गया है। श्रावक गृहस्थ होता हुआ भी धर्म के पालन का निरन्तर अभ्यास करता है। श्रमण और श्रावक के आचार में पर्याप्त अन्तर एवं स्थूलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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