Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
षष्ठ परिच्छेद... [433]
णोविय पूयण पत्थए सिया। अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के प्रार्थी मत बनो। __ - अ.रा.पृ. 2/1053; सूत्रकृतांग-1/2/2/16 खाणी अणत्थाण उ काम-भोगा। काम-भोग अनर्थों की खान है।
- अ.रा.पृ. 21187; उत्तराध्ययन-14/13 जुन्नो व हंसो पडिसोयगामी। वृद्ध हंस प्रतिस्रोत (सन्मुख-प्रवाह) में तैरने से डूब जाता है। (अर्थात् असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता)।
- अ.रा.पृ. 21191; उत्तराध्ययन-14/33 जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु । जन्मधारी की मृत्यु अवश्यंभावी है।
- अ.रा.पृ. 2/1192; भगवद्गीता-2/27 काम भोगे य दुच्चए। काम भोग कठिनाई से त्यागे जाते हैं।
- अ.रा.पृ. 2/1193; उत्तराध्ययन-14/49 अतिरेगं अहिगरणम्। आवश्यकता से अधिक उपकरण अधिकरण (दोष रुप) है।
- अ.रा.पृ. 2/1209; ओधनियुक्ति-741 तृतीय भाग :
जे एगं णाणे से बहुं णामे। जो स्वयं को झुकाता है (जीत लेता है), वह बहुतों को झुकाता है। ___ - अ.स.भाग 3 पृ. 13; सूत्रकृतांग-1/10/12 तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहि, पवेइयं । वही सत्य और निःशंक है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररुपित है।
- अ.रा.पृ. 3/167; 6/746, 7/273-502; आचारांग-1/5/5/162 अंधो कहिं कत्थ य देसियव्वं? कहाँ अंधा और कहाँ पथप्रदर्शक ? ___- अ.रा.पृ. 3/222; बृहत्कल्प भाष्य 3253 वसुंधरेयं जह वीर भोज्जा। यह वसुन्धरा वीरभोग्या है।
- अ.रा.पृ. 3/222; बृहदावश्यक भाष्य-3254 श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । महापुरुषों को भी शुभकार्य में अनेक बाधाएँ आती हैं।
- अ.रा.पृ. 3/338; विशेषावश्यक भाष्य बृहद्वृत्ति पृ.17 न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । साधुजन किसी के किए हुए उपकार को कभी भूलते नहीं है।
- अ.रा.पृ. 3/554; धर्मसंग्रह सटीक, प्रथम अधिकार जहा लाभो तहा लोभो। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है।
- अ.रा.पृ. 3/387; उत्तराध्ययन-8/17 विणयमूलो धम्मोत्ति। विनय धर्म का मूल है।
- अ.रा.पृ. 3/418; अंगचूलिका-अध्ययन-5
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