Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 490
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन षष्ठ परिच्छेद... [437] सव्वे कामा दुहावहा। सभी कामभोग अन्ततः दुःखावह ही होते हैं। - अ.रा.पृ. 5/51277; उत्तराध्ययन -13/16 अलं बालस्स संगणं। अपरिपक्व बालजीव (अज्ञानी) की संगति से दूर रहो। - अ.रा.पृ. 5/1316, भाग 6 पृ. 735; आचारांग 1/2/5/94 यः क्रियावान् स पण्डितः। जो (ज्ञान के अनुसार)) क्रिया (आचरण) करता है वही पण्डित है। - अ.रा.पृ. 5/1329; स्थानांग सूत्र सटीक -4/4 संसारमूलबीयं मिच्छत्तं। संसार का मूलबीज मिथ्यात्व है। - अ.रा.पृ. 5/1362; भक्तिपरिज्ञा प्रकीर्णक -59 धम्ममहिंसा समं नत्थि। अहिंसा के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। - अ.रा.पृ. 5/1362; भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक -91 सम्मदिट्ठी सया अमूढे। सम्यग्दृष्टि सदा विचक्षण (अविचलित बुद्धिवाला) होता है। - अ.रा.पृ. 5/1566; दशवैकालिक -10/7 षष्ठ भाग : अदु इंखिणिया उपाविया । निंदा (पापो की) जननी है। __ - अ.रा.पृ. 6/107; सूत्रकृतांग -1/2/2/2 नाणेण विणा करणं, न होइ नाणंपि करणहीणं तु । ज्ञान रहित क्रिया और क्रिया रहित ज्ञान भी नहीं होता। - अ.रा.पृ. 6/137; मरणसमाधि -137 खणमवि मा काहिसि पमायं । क्षणभर का भी प्रमाद मत कर। - अ.रा.पृ. 6/139; मरणसमाधि प्रकीर्णक-205 अत्थोमूलं अणत्थाणं। अर्थ अनर्थो का मूल है। - अ.रा.पृ. 6/149; मरणसमाधि प्रकीर्णक-703 सज्ज्ञानं परमं मित्रम्, अज्ञानं परमो रिपुः। संतोषः परमं सौख्यम्, आकाङ्क्षा दुःखमुत्तमम् ॥ सद्ज्ञान श्रेष्ठ मित्र है, अज्ञान महाशत्रु है, संतोष श्रेष्ठ सुख है, और आकांक्षा महादुःख है। - अ.रा.पृ. 6/191; हरिभद्रीय टीका-26 ममत्तबंध च महब्भयावहा । ममत्व का बंधन अत्यन्त भयावह है। - अ.रा.पृ. 6/301; उत्तराध्ययन -19/99 सच्चं लोगम्मि सारभूयं । सत्य ही लोक में सारभूत तत्व है। - अ.रा.पृ. 6/327; प्रश्नव्याकरण- 2/7/24 सच्चं च हियं च मियं च गाहणं । ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित-मित और ग्राह्य हो । - अ.रा.पृ. 6/330; प्रश्न व्याकरण -2/7/25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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