Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 456
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [405] क्षमा का विस्तृत वर्णन करते हुए कहा है - क्षमा द्वेष को और चेतना के तनाव को समाप्त करता है ।85 गीता में श्रीकृष्ण दूर करती है, इसलिए वह एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण है।57 ने भी कहा है- 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है' 186 2. मार्दव :- वैदिक परम्परा में भी अहंकार को पतन का 10. ब्रह्मचर्य :- ब्राह्मण परम्परा में मन, वचन और कर्म के कारण माना गया है। गीता में आधिपत्य, ऐश्वर्य, बल, धन, द्वारा सभी अवस्थाओं में सर्वत्र और सभी प्रकार के मैथुन कुल आदि के अहंकारी को अज्ञान से विमोहित कहा है। का त्याग करना - ब्रह्मचर्य कहलाता है।87 आगे कहा है - जो धन और सम्मान के मद से युक्त है ब्रह्मचर्य :वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है। महाभारत में रुप, वैदिक परम्परा के अनुसार संन्यासी को ब्रह्मचर्य महाव्रत धन और कुल-इन तीनों मदों को प्रमाद का और आसक्ति का पालन करना चाहिए। वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठों अंगो का सेवन उसके लिए वर्जित माना गया है । 8 महर्षि वेदव्यास तथा धनहानि और पतन का कारण माना गया है।60 का कथन है कि निष्कामयोगी ब्रह्मचर्य का पालन करें।89 शांकर 3. आर्जव :- महाभारत के अनुसार सरलता एक आवश्यक भाष्य में मिथ्याविषयों में आसक्ति करने का निषेध किया है। गुण है। गीता में आर्जव को दैवी सम्पदा, तप, और गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा है। गीता के अनुसार ब्रह्मचारी ज्ञान कहा गया है। शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है। चरकसंहिता में 'उपस्थादि शौच:- गीता में शौच की गणना दैवी सम्पदा, ब्राह्मणकर्म इन्द्रियो के निग्रह' को ब्रह्मचर्य कहा गया है। वहीं ब्रह्मचर्य को एवं तप में की गयी है।65 गीता भाष्य में शौच का अर्थ 57. महाभारत, उद्योगपर्व 33/58 'प्रतिपक्षी भावना के द्वारा अन्त:करण के रागादि मलों को 58. गीता 16/14-15 दूर करना' किया गया है।66 59. वही, 16/17 5. सत्य :- वैदिक परंपरा में भी संन्यासी के लिए असत्य 60. महाभारत, शांतिपर्व 176/17-18 61. महाभारत, शांतिपर्व 175/37 भाषण और कटु भाषण वर्जित है।67 62. गीता 16/1 संयम :- वैदिक परम्परा भी आलीनगुप्ति होकर संयम 63. वही, 17/14 साधना पर जोर देती है। वहाँ इन्द्रियविजेता को स्थितप्रज्ञ 64. वही, 13/7-11 65. गीता 16/3, 17/14, 18/42 कहा गया है।69 गीता में कहा है कि श्रद्धावान्, तत्पर 66. गीता, शांकरभाष्य 13/7 और संयतेन्द्रिय ही ज्ञान प्राप्त करता है। जो संयमी है 67. मनुस्मृति 6/47-48 उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है। योगीजन संयमरुप अग्नि में 68. गीता 2/56, 58; मनुस्मृति 2/215 69. अथर्ववेद 4/31/3; यजुर्वेद 34/6; गीता 6/34,35,14; श्वेताश्वतरोपनिषद् इन्द्रियों का हवन करते हैं। 2 2/9 7. तप :- वैदिक ऋषि तप की महत्ता का प्रतिपादन करते 70. गीता 2/61 कहते हैं - 'तपस्या से ही ऋतऔर सत्य उत्पन्न हुए, तपस्या 71. वही, 4/26 से ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ब्रह्म खोजा जाता 72. वही, 4/29 73. ऋग्वेद 10/190/1 है।5, तपस्या से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाती है और 74. मनुस्मृति 11/243 ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है। तपस्वी तपस्या के द्वारा 75. मुण्डकोपनिषद् 1/1/8 ही लोककल्याण का विचार करते हैं। और तपस्या से ही 76. अथर्ववेद 11/3/5/19 77. वही, 19/5/41 लोक में विजय प्राप्ति होती है। तप ही ब्रह्म है। तप 78. शतपथ ब्राह्मण 3/4/4/27 से ही ऋषिगण त्रैलोक्य के चराचर प्राणियों को देखते हैं। 19. तैत्तिरीय उपनिषद् 13/2/3/4 तपस्या से दुर्लभ और दुस्तर कार्य या पदार्थ भी साध्य है। 80. मनुस्मृति 11/237 81. वही 11/238 तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है। महापातकी और हीनाचारी 82. वही 11/239 भी तपस्या से किल्विषी योनि से मुक्त हो जाता है।82 स्वर्ग 83. महाभारत, आदिपर्व 90/22 के सात द्वारों में तप प्रथम द्वार है।83 84. गीता 18/4, 7/9 8. त्याग :- गीता में तामस (नियत) कर्मो का मोह से, राजस 85. महाभारत, शांतिपर्व 176/78 86. गीता 12/14, 19 कर्मों को दुःखरुप मानकर शारीरिक क्लेश के भय से एवं 87. याज्ञवल्क्य संहिता, 'शाश्वत धर्म' ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ. 73 से उद्धृत सात्विक कर्मो में आसक्ति और फल के त्याग का वर्णन है।84 88. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 413, दक्षस्मृति अकिञ्चनता :- 'अकिञ्चनता' धर्म (गुण) का वर्णन करते 89. महाभारत, शांतिपर्व-9 हुए महाभारत में कहा है - यदि तुम सब कुछ त्यागकर 90. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य । किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुखी 91. गीता 17/14 रहोगे क्योंकि जो अकिंचन होता है, वह सुखपूर्वक सोता है। 92. वही, 6/14 'निर्लोभ' आत्मा को कर्म-आवरण से हल्का बनाता है। मन 93. चरक संहिता, दीर्धञ्जीवितीयाध्याय 1/6 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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