Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 454
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [403] महाव्रतों का पालन सभी के द्वारा निरपेक्ष रुप से किया जाना चाहिये। चातुर्मास में विशेष कर रात्रिभोजन का त्याग करता है उसके इस वेद व्यास का कथन है कि निष्कामयोगी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, भव में और पर भव में समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। चातुर्मास ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करें। वैदिक परम्परा के अनुसार में जो रात्रि भोजन करता है उसके पाप की शुद्धि सैंकडों चान्द्रायण संन्यासी को पूर्णरुप से अहिंसा महाव्रत का पालन करना चाहिये, तपों से भी नहीं होती। स्कन्दपुराण में कहा है कि जो मनुष्य उसे चर और स्थावर, दोनों प्रकार की हिंसा निषिद्ध है।24 इसी प्रकार सदा एक बार भोजन करता है वह अग्निहोत्र का फल पाता है, संन्यासी के लिए असत्य भाषण और कट् भाषण भी वर्जित है ।25 और जो मनुष्य सदा सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन करता है उसे तीर्थयात्रा वैदिक परम्परा में संन्यासी के आचार का जो विधान है उसमें अहिंसा, का फल घर बैठे मिलते है। जो पुण्यात्मा रात्रि में समस्त आहारसत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की दृष्टि से कोई मौलिक मतभेद पानी का त्याग करते हैं, उन्हें महीने में पन्द्रह उपवास का लाभ नहीं है। वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को ब्रह्मचर्य महाव्रत मिलता है। का पूर्णरुप से पालन करने का विधान प्रतिपादित किया गया है। ब्राह्मणपरम्परा और पाँच समितियाँ :वैदिक परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठों अंगों का सेवन उसके वैदिक परम्परा में भी संन्यासी को गमनागमन की क्रिया लिए वर्जित माना गया है। परिग्रह की दृष्टि से वैदिक परम्परा भी पर्याप्त सावधानीपूर्वक करने का विधान है। मनु का कथन है कि भिक्षु के लिए जलपात्र, पवित्रा (जल छानने का वस्त्र) पादुका, आसन संन्यासी को जीवों को कष्ट पहुँचाए बिना चलना चाहिए। महाभारत एवं कन्था आदि सीमित वस्तुएँ रखने की ही अनुमति देती है।26 के शान्ति पर्व में मुनि को त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से वायुपुराण में उन सब वस्तुओं के नामों का उल्लेख है जिन्हें संन्यासी 24. महाभारत, शांतिपर्व - 9/19 अपने पास रख सकता हैं।27 साथ ही जैनपरम्परा के समान ही वैदिक 25. मनुस्मृति 6/47-48 परम्परा में भी संन्यासी के लिए धातु का पात्र निषिद्ध है। मनुस्मृति 26. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 413 के अनुसार संन्यासी का भिक्षापात्र तथा जलपात्र मिट्टी, लकडी, तुम्बी 27. वही पृ. 493 या छिद्ररहित बाँस का होना चाहिए।28 इस प्रकार वैदिक परम्परा 28. मनुस्मृति 6/53-54 में भी पाँचों महाव्रतों के पालन का वर्णन प्राप्त होता है। 29. त्वया सर्वमिदं व्याप्तं, ध्येयोऽसि जगता खेः ! ब्राह्मण परम्परा में रात्रिभोजन त्याग : त्वयि चास्तमित देव ! आपो रुधिरमुच्यते ॥ - स्कन्दपुराण, कपोलस्तोत्र, ब्राह्मण परम्परा में रात्रिभोजन-त्याग का प्रतिपादन भी उसी श्लोक 25 प्रकार से किया गया है जिस प्रकार से जैनपरम्परा में किया गया अस्तं गते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते । है, यद्यपि उतनी दृढता दिखायी नहीं देती । रात्रि में भुक्त अन्न अन्नं मांससमं प्रोक्तं, मार्कण्डेन महर्षिणा ||1|| - मार्कण्डेय पुराण 30. न नक्तं चैवमश्नीयाद्, रात्रौ ध्यानपरो भवेत् । कूर्मपुराण - अध्याय 27 जल को मांस और रुधिर के समान बताया गया है । स्पष्ट है कि 31. नोदकमपिपातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठिर ! । रात्रिभोजन में भी हिंसा होने से ही वर्जन किया गया है। इसीलिए तपस्विनां विशेषेण, गृहिणां च विवेकिनाम् ।। 30/22 - मार्कण्डेय पुराण ब्राह्मणपरम्परा में भी रात्रिभोजन-निषेध उचित भी है, क्योंकि वहाँ 32. देवैस्तु भुक्तं पूर्वाह्ने, मध्याह्ने, ऋषिभिस्तथा । भी अहिंसा को ही परम धर्म माना गया है। अपराह्ने च पितृभिः सायाह्ने दैत्यदानवाः ||४|| जैन परम्परा की तरह ब्राह्मण परम्परा में भी रात्रिभोजनत्याग सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः, सदा भुक्तं कुलोद्वहैः ! के विषय में अनेक जगह चर्चा की गई है। वहाँ रात्रिभोजन से होने सर्ववेलामतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ ॥ - यजुर्वेद आह्निक श्लोक वाली हानि का लौकिक, धार्मिक माध्यम से वर्णन कर ऋषियों ने 24-19 लोगों को रात्रिभोजन त्याग हेतु प्रेरित किया है। स्कन्दपुराण और मार्कण्डेय 33. चत्वारो नरकद्वारः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । पुराण में महर्षि मार्कण्ड ने सूर्यास्त होने पर (के बाद) जल को रक्त परस्त्रीगमनं चैव, सन्धानान्तकायिके ।। - पद्मपुराण - प्रभास खण्ड और अन्न को मांस के समान कहा है। कूर्मपुराण में रात्रि में भोजन ___34. मद्यमांसाशनं रात्रौ-भोजनं कन्दभक्षणम् । का त्याग कर ध्यान करने की प्रेरणा दी गई है। तपस्वी, गृहस्थी ये कुर्वन्ति वृथास्तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तापः ।। - महाभारत (ऋषीश्वर भारत) 35. मद्यमांसाशनं रात्रौ-भोजनं कन्दभक्षणम्। एवं विवेकी जनों को रात्रि को पानी भी नहीं पीना चाहिए। पूर्वाह्न भक्षणात् नरकं याति, वर्जनात् स्वर्गमाप्नुयात् ।। में देवता, मध्याह्न में ऋषि, अपराह्न में पितर तथा संध्या में यक्ष राक्षस 36. नक्तं न भोजयेद्यस्तु, चातुर्मास्ये विशेषतः । भोजन करते हैं। सर्व समय को छोडकर रात्रि को खाना भोजन नहीं सर्वकामानवाप्नोति, इहलोके परं च ।। - योगवाशिष्ठ, पूर्वार्ध-108 कहलाता। पद्मपुराण में रात्रि भोजन को नरक का प्रथमद्वार कहा 37. चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते, रात्रिभोज्यं करोति यः । तस्य शुद्धिर्न विद्येत, चान्द्रायणशतैरपि ।। - ऋषीश्वर भारत - वैदिक दर्शन है। महाभारत में कहा है कि जो मद्य, मांस, रात्रिभोजन और 38. एकभक्ताशनान्नित्यमग्निहोत्रफलं लभेत् । कंदमूल का भक्षण करते हैं, उनके तीर्थयात्रा, जप-तपादि अनुष्ठान अनस्तभोजनो नित्यं, तीर्थयात्राफलं भवेत् ।। - स्कन्द पुराण - 7/17/235 ____39. ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं, वर्जयन्ति सुमेधसः । नष्ट हो जाते हैं। योगवाशिष्ठ के अनुसार मद्य, मांस, रात्रिभोजन तेषा पक्षोपवासस्य, फलं मासेन जायते ॥ और जमीकंद भक्षण करने से (जीव) नरक में जाता है और उनके - रात्रिभोजन महापाप, पृ. 16, 17, 18 त्याग से स्वर्ग में जाता है। जो जीव रात्रिभोजन नहीं करता और 40. मनुस्मृति 6/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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