Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 452
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [401] दिगम्बर परम्परा में पाक्षिक श्रावक की समस्त क्रिया करने इसमें अष्टद्रव्य अर्पण पूर्वक शुभमनोभावों से पूज्यों की पूजा की वाले श्रावक को दार्शनिक श्रावक कहा है। साथ ही दार्शनिक श्रावक जाती है, जबकि भाव पूजा में द्रव्य के अर्पण का भावमात्र रहता को मद्यादि के व्यापार का त्याग, मांसाहारी आदि के संग का त्याग, है। चूँको मुनि अकिञ्चन होते हैं अत: मुनि भावपूजा करते हैं, जबकि उनके घर के खान-पान-बर्तन का त्याग, आचार-मुरब्बा, दो दिन श्रावक द्रव्यार्जन के लिए कृषि आदि आरम्भ करते हैं और धनके बासी दही, द्विदल(विदल)*, वासी कांजी का त्याग, चमडे से धान्य आदि परिग्रह रखते हैं, अतः श्रावक उनकी शक्ति के अनुसार बंधी हींग का त्याग, अनन्तकाय-भक्षण का त्याग, पुष्प भक्षण-त्याग, अष्टद्रव्य उत्सर्जन पूर्वक पूजा करते हैं, इसमें भी भावों की मुख्यता अज्ञात फल, बैंगन, कचरी, बेर, अंदर से बिना देखी उडद, सेम तो रहती ही है। आदि की फलियाँ, रात्रिभोजन - इनका त्याग करना चाहिए। साथ दिगम्बर परम्परा में भी उल्लेख प्राप्त हैं कि देव गण दिव्य ही जुआ, मांसभक्षण, मद्यपान, वेश्यासेवन, चोरी, शिकार और परस्त्रीगमन गन्ध, दिव्य वस्त्र आदि से जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं। परन्तु - इन सात व्यसनों का भी त्याग करना बताया गया है।29 कालक्रम से अनेक सम्प्रदाय हो जाने से पूजन में समर्पित किये इसी प्रकार व्रतप्रतिमा में पूर्वोक्त मूलगुणों के साथ श्रावक जाने वाले द्रव्यों में न्यूनाधिकता दिखायी देती है। दिगम्बर परम्परा के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इस प्रकार 12 में अष्ट द्रव्य से पूजा उसी प्रकार से स्वीकृत है जैसे कि श्वेताम्बर व्रतों का नःशल्य होकर पालन करने का विधान है। इसी को सागर परम्परा में अष्टोपचारी पूजा। धर्मामृत में श्रावक के उत्तरगुण" कहा गया है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा और जैनाचार :में इन्हें श्रावक के 12 व्रत नाम से कहा गया है।32 पाँचो अणुव्रतों सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाये तो दिगम्बर और श्वेताम्बर का क्रम तो दोनों परम्पराओं मे समान हैं। और शेष व्रतों में श्वेताम्बर परम्परा के आचार विधान में कोई भेद नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि परम्परा में 1. दिग्वत 2. भोगोपभोगविरमण और 3. अनर्थदण्डविरमण से भेद वहाँ पाया जाता है जहाँ से दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व भेद व्रत - इन तीन गुणव्रतों को सम्मिलित किया गया है, जबकि उत्पन्न हुआ है। उदाहरण के लिए दिगम्बर सम्प्रदाय में 'निर्ग्रन्थ' दिगम्बर परम्परा में 1. दिग्व्रत 2. देशव्रत और 3. अनर्थदण्ड व्रत का अर्थ 'अचेलकत्व' किये जाने से मुनियों में अचेलकत्व का विधान - ये तीन गुणव्रत हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में 1. सामायिक किया गया है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में निर्ग्रन्थ का अर्थ ग्रन्थिरहित 2. देशावकाशिक 3. पौषधोपवास और 4. अतिथि संविभाग - इन किये जाने से और वस्त्रादि चौदह उपकरणों को परिग्रह से बाहर माने चार व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है जबकि दिगम्बर परम्परा में जाने से श्वेतवस्र धारण करने का विधान है। किन्तु फिर भी, दोनों 1. सामायिक 2. पौषधोपवास 3. भोगोपभोगपरिमाण और 4. सम्प्रदायों में वीतरागता और उसकी प्राप्ति हेतु अहिंसा का सिद्धान्त अतिथिसंविभाग व्रत - इन चार व्रतों को शिक्षाव्रत माना गया है।37 समान रुप से स्वीकृत है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में 'अतिथिसंविभाग' की जगह 'वैयावृत्त्य'38 को चतुर्थ शिक्षाव्रत माना गया है, जबकि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों * जिसके बराबर दो भाग होते हैं, एसे दाल बेसन आदि को कच्चे दूध, परम्पराओं में इसे आभ्यन्तर तप का एक प्रकार माना गया है। दिगम्बर दही, छाश के साथ खाना द्विदल (विदल) कहलाता है। परम्परा में पहली से छठी प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य, सातवीं - रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 149 से नोवीं तक मध्यम, और दसवीं और ग्यारवी प्रतिमाधारी श्रावक 28. सागारधर्मामृत - 3/9-15; रत्नकरंडक श्रावकाचार 53; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, गाथा 328 उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है।40 29. सागारधर्मामृत - 3/17, वसुनन्दी श्रावकाचार - 59; रत्नकरंडक श्रावकाचार, साधक श्रावक: पृ. 135 से 142 दिगम्बर परम्परा में जीवन के अन्त में मरणकाल सम्मुख 30. रत्नकरंडक श्रावकाचार - 53 उपस्थित होने पर भोजन-पानादि का त्याग कर विशेष प्रकार की 31. सागारधर्मामृत - 4/4 साधनाओं द्वारा सल्लेखनापूर्वक देहत्याग करने वाले श्रावक को "साधक 32. उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन-11 33. रत्नकरंडक श्रावकाचार - 53; उपासकदशांग सूत्र - अध्ययन-1 श्रावक" कहा गया है। इसका विस्तृत वर्णन हम पूर्व में कर 34. उपासकदशांग सूत्र - अध्ययन । चुके हैं। 35. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 367-68; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गा. 137, 139, 141 इसके साथ ही रत्नकरंडक श्रावकाचार में दर्शनविशुद्धि आदि 36. उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन । 16 कारण भावनाओं का वर्णन करते हुए श्रावक को उसका चिंतन 37. जिनागमसार पृ. 952; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 148, 151, 161, 167; करने योग्य हैं - एसा कहा है, लेकिन वस्ततः ये 16 भावनाएँ भगवती आराधना 2082-2083; रत्नकरंडक श्रावकाचार,-97, 106, 83, तीर्थंकर नामरकर्म के बन्ध में कारणभूत गुण हैं जो विधि-निषेधात्मक तत्त्वार्थसूत्र 7/21 पर सर्वार्थसिद्धि टीका, पृ. 280 38. रत्नकरंडक श्रावकाचार 91 आचरणपरक है। इनका वर्णन शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में। 39. नवतत्त्व प्रकरण-35; तत्त्वार्थसूत्र - 9/29; रत्नकरंडक श्रावकाचार - पृ. यथास्थान किया गया है। इसी प्रकार आत्मा के स्वभाव स्वरुप उत्तम 333, 337 क्षमादि दशलक्षण धर्म का भी वर्णन किया है जो कि शोध प्रबन्ध 40. सागारधर्मामृत - 3/2-3; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 45 के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान वर्णित है। 41. महापुराण - 149; सागारधर्मामृत 8/1, 12; रनकरंडक श्रावकाचार, पृ. 432 दिगम्बर परम्परा में पूजा-विधि : 42. रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 227-228 दिगम्बर परम्परा में भी श्वेताम्बर परम्परा के समान ही द्रव्यपूजा 43. दृष्टव्य - तत्त्वार्थ सूत्र, अद्याय 7/23 और भावपूजा भेद किये गये हैं। द्रव्यपूजा की विशेषता यह है कि 44. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पूर्वपीठिका 45. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पूर्वपीठिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524