Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 447
________________ [396]... पञ्चम परिच्छेद (2) केशलुञ्चन करना । (3) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना । (4) सकल श्री संघ से आपस में खमतखामणां (क्षमापना करना । (5) अट्ठम (तीन उपवास) तप करना तथा पाँच दिन तक कल्पसूत्र पढना । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ब्रह्मचर्य (12) दिशाओं में गमनागमन (13) स्नान (14) भोजन - जल की मर्यादा करना तथा असि (शस्त्र, यंत्र, छुरी, कैची आदि साधन), मसि (लेखन संबंधी) एवं कृषि के उपकरणों को उपयोग करने की यथायोग्य संख्या, वजन य नाप में मर्यादा करना । बारह व्रत'" (सम्यक्त्वपूर्वक) : : श्वेताम्बर परम्परा में श्रावक के 12 व्रत एवं ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ निम्नानुसार हैं। 1 से 5. मुनि के उपकरण : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'उवहि' (उपधि) शब्द के अन्तर्गत दो प्रकार के उपकरणों का वर्णन किया गया है। श्वेताम्बर परम्परा में स्थविरकल्पी मुनि के 14 उपकरणोंका आगमों में वर्णन किया गया है जो पूर्व के परिच्छेद में वर्णित हैं। वहीं पर साध्वियों के लिए 25 उपकरणों का उल्लेख भी किया गया है। श्रावकाचार का पालन करने की योग्यता प्राप्त करने हेतु पहले मार्गानुसारी बनना आवश्यक है अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने भव्य मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर श्रावक जीवन की योग्यता प्राप्त करने के लिए मार्गानुसारी जीवन का वर्णन करते हुए मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों का वर्णन निम्नानुसार किया है - मार्गानुसारी श्रावक के गुण : (1) न्यायपूर्वक धनार्जन (2) समान कुलशीलवालों में दाम्पत्य (3) उचित घर का निर्माण (4) माता-पिता की भक्ति (5) आय - व्यय सन्तुलन (6) उचित वेश-भूषा (7) अजीर्ण में लंघन (8) नियमित भोजन ( 9 ) आतिथ्य ( 10 ) व्रतधारी की पूजा ( 11 ) पालक - सेवा दोष त्याग : (12) प्रसिद्ध देशाचार का अनादर (13) अवर्णवाद (14) सोपद्रव स्थल में निवास (15) निन्दनीय प्रवृत्ति (16) अभिनिवेश ( 17 ) अदेशकालज्ञता (18) कषाय (19) विषयासक्ति । गुणग्रहण : (20) पापभीरुता (21) गुणज्ञता (22) स्व-पर बल का ज्ञान (23) दूरदर्शिता (24) विशेषज्ञता (25) लोकप्रियता (26) मर्यादा-प्रेम (27) शान्ति । साधनाएँ (28) शिष्टाचार (29) सदाचारियों से मित्रता (30) धर्म - कथा श्रवण में रुचि (31) बुद्धिमत्ता (32) त्रिवर्ग-सिद्धि (33) कृतज्ञता (34) दयालुता (35) परोपकार श्रावक के गुण 4 : (1) धर्मयुक्त (2) अक्षुद्र (3) सौम्य प्रकृति (4) लोकप्रिय (5) अक्रूर (6) पापभीरु (7) अशठ (8) दक्ष (9) लज्जालु (10) दयालु (11) मध्यस्थ (12) सौम्यदृष्टि- गुणानुरागी (13) सत्कथक (14) सुपक्षयुक्त (सत्संगी) (15) सुदीर्घदृष्टय (16) विशेषज्ञ (17) वृद्धानुग (18) विनीत (19) कृतज्ञ (20) परोपकारी (21) लब्धलक्ष्य । श्रावक के 14 नियम 5: (1) सचित पदार्थ (2) भक्ष्य (आहार में) द्रव्य (3) विगई (4) उपानह की संख्या (5) तंबोल (मुखवासादि) (6) वस्त्र (7) पुष्पादि, इत्रादि, सुगंधीद्रव्य (8) वाहन (9) शयन (10) विलेपन द्रव्य (11) Jain Education International 6 से 8. 9 से 12. स्थूल प्राणातिपात मृषावाद अदत्तादान मैथुन परिग्रह विरमणव्रत दिक्परिमाण व्रत, भोगोपभोग विरमण व्रत, अनर्थदण्ड विरमण व्रत सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग व्रत । : : : ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ" : (1) दर्शन (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) प्रतिमा (6) ब्रह्मचर्य (7) सचित्तत्याग (8) आरंभवर्जन (9) प्रेष्यवर्जन (10) उद्दिष्टवर्जन ( 11 ) श्रमणभूत । श्रावक के कर्तव्य - सूक्तमुक्तावली में आचार्य सोमप्रभसूरिने मनुष्य जन्म के साफल्य हेतु जैनों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है (1) जिनपूजा (2) गुरु भक्ति (वैयावृत्त्य) (3) जीवदया (4) सुपात्रदान (5) गुणानुराग और (6) जिनवाणी (आगम शास्त्रों का) श्रवण - ये छः कर्तव्य मनुष्य जन्मरुपी वृक्ष के फल है 18 । श्वेताम्बर परम्परा में श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र में 'मण्ह जिणाणं' स्वाध्याय में श्रावकों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए महर्षिने कहा हैं- श्रावकों को सुगुरूपदेश से निम्नाङ्कित 36 कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। " - (1) जिनाज्ञापालन (2) मिथ्यात्व का त्याग ( 3 ) सम्यक्त्व का धारण (4 से 9) सामायिक, चतुर्विशंतिवंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छः आवश्यकों (प्रतिक्रमण) में उद्यम (10) पर्वतिथियों को पौषध व्रत (11) दान (12) शील (13) तप (14) भाव (15) स्वाध्याय (16) नवकार जाप (17) परोपकार (18) जयणा (19) जिनपूजा (20) जिनस्तव (भक्ति) (21) गुरुभक्ति (वैयावृत्त्य) (22) साधर्मी वात्सल्य (23) व्यवहार शुद्धि (24) रथयात्रा ( 25 ) तीर्थयात्रा (26) उपशम (27) विवेक (28) संवर ( 29 ) भाषासमिति का पालन (30) जीवदया (31) सत्संग (32) इन्द्रियदमन (33) चारित्र के परिणाम (दीक्षा की भावना) (34) श्रीसंघ के प्रति बहुमान (25) ग्रंथलेखन For Private & Personal Use Only (36) शासन प्रभावना । आचार्य श्रीमद्विजय रत्नशेखरसूरिने श्राद्धविधि प्रकरण में श्रावकों के दैनिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक आदि कर्तव्यों का निम्नानुसार वर्णन किया है जिसका अभिधानराजेन्द्र कोश एवं इस शोध प्रबन्ध 13. अ. रा. पृ. 2/6, योगशास्त्र 1/47 से 56 14. अ. रा.पृ. 7/792, संबोध सत्तरी प्रकरण 31, 32, 33; धर्मरत्न प्रकरण 5,6,7 15. श्राद्धविधिप्रकरण पृ. 37; उपासकदशांग सूत्र, प्रथम अध्ययन श्रावक प्रतिक्रमण, वंदितु सूत्र, गाथा-8 16. 17. संबोधसत्तरी प्रकरण - 79 18. सूक्तमुक्तावली - 93 19. श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र, मण्ह जिणाणं सज्झाय www.jainelibrary.org

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