Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 446
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (1) प्रात: सूर्योदय से पहले छह घडी (2 घण्टा 24 मिनट) रात्रि शेष रहने पर निद्रा का त्याग (2) लघु प्रतिक्रमण (इरियावहियं.), स्वाध्याय- ध्यान (3) राइ (रात्रिक) प्रतिक्रमण (रात्रिसम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त हेतु) (4) पडिलेहण (वस्त्रादि का प्रतिलेखन) (5) जिनदर्शन, चैत्यवंदन/देववंदन, गुरुवंदन, स्वाध्याय ( 6 ) सूत्र सम्बन्धी अध्ययन (7) दिन के प्रथम प्रहर के बीतने पर मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन ( उघाडा पोरिसी की मुहपत्ति प्रतिलेखना) अर्थ संबंधी अध्ययन / स्वाध्याय ( 8 ) (9) गोचरी (आहार) चर्या (10) चतुर्थप्रहर के प्रारम्भ में प्रतिलेखन (11) चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय (12) चतुर्थ प्रहर के अंत में गुरुवंदन, स्थंडिल शुद्धि (मांडला) एवं तत्पश्चात् रात्रि के प्रथम प्रहर में देवसिय प्रतिक्रमण का प्रारंभ (13) वैयावृत्त्य, स्वाध्याय (14) रात्रि के प्रथम प्रहर के अन्त में संस्तरण विधि (संथारा पोरिसीरात्रिविश्राम के पूर्व की विधि) (15) रात्रि के द्वितीय एवं तृतीय प्रहर में विश्राम (16) दिन भर में सात बार चैत्यवंदन, चार बार स्वाध्याय एवं कम से कम 500 गाथा (श्लोक) का स्वाध्याय, दशविध चक्रवाल समाचारी (इसका वर्णन चतुर्थ परिच्छेद (क) (5) में किया गया है) का पालना । साधु के पाक्षिक कर्तव्यों में चौदस के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण एवं यथाशक्ति तप आराधना दैनिक कर्तव्यों से विशेष है । साधु के चातुर्मासिक कर्तव्य" : (1) अषाढ सुदि चतुर्दशी से ( चौमासे के) 50 वें दिन (भाद्रपद सुदि चतुर्थी को) पर्युषण (संवत्सरी महापर्व ) करना । (2) वर्षाकाल में चारों ओर पाँच-पाँच कोश (लगभग 15 किलोमीटर) की मर्यादारखना । (3) गहरे जलवाली नदी नहीं उतरना (4) ग्लान (रोगी) साधु की आहारादि से गुर्वाज्ञापूर्वक भक्ति करना । (5) बलवान् और रोगरहित स्वस्थ साधु को दूध, दहीं, घी, तेल और गुड - ये पाँच विकृतियाँ बिना कारण नित्य नहीं लेना । ( 6 ) ग्लान हेतु लाये हुए आहारादि गृहस्थ की अनुमतिपूर्वक ही उपयोग में लेना । (7) गृहस्थ के घर अनदेखी चीज नहीं मांगना । (8) नित्याहारी साधु को बिनाकारण स्वयं के लिए गोचरी हेतु गृहस्थ के घर एक बार से ज्यादा नहीं जाना (उपवासादि के पारणा या रोगादि कारण से जा सकते हैं) । (9) यथायोग्य उष्णादि (21 प्रकारके) प्रासुक जल (आहार करने वालों को भी और उपवासादि करनेवालों को भी) मर्यादापूर्वक ग्रहण कर उपयोग में लेना । Jain Education International पञ्चम परिच्छेद... [395] (10) भोजन पाँच दत्ती (दत्ति - सं.) और पानी पाँच दत्ती से ज्यादा नहीं लेना। प्राचीन मान्यतानुसार एक साथ एक बार में जितना आ जाये उसे दत्ती कहते हैं । किन्तु वर्तमान में साधु जिस गाँव में जाये और विभिन्न घरों से एक बार में जितना आहार लेकर आवे उसे एक दत्ती कहना अपेक्षाकृत होगा । (11) उपाश्रय से सात घर तक गोचरी नहीं जाना । (12) चातुर्मास में फुहार मात्र पानी बरसात हो तो भी जिनकल्पी (पाणिपात्रधारी) मुनि को गोचरी नहीं जाना । (13) चातुर्मास में स्थित स्थविरकल्पी साधु को विशेष कारण से वृद्ध या बाल साधु-साध्वी हेतु फुहार में गोचरी जाना कल्पता है परंतु गोचरी गये स्थविरकल्पी साधु को पानी बरसता हो तो भी दिन में ही वापिस उपाश्रय में आ जाना चाहिए, रात्रि में उपाश्रय से बाहर नहीं रहना । (14) साधु या साध्वी को बिना पूछे उनके लिए आहार नहीं लाना । (15) वर्षा से भीगे हुए शरीर से आहार ग्रहण नहीं करना । (16) प्राण आदि आठों सूक्ष्म को जानकर उनकी बार-बार प्रतिलेखन करना । (17) गुर्वाज्ञा पूर्वक ही गोचरी, जिनदर्शन, स्थंडिल भूमिगमन, धर्मोपदेश, तप, अनशन, स्वाध्याय- ध्यान, धर्मजागरण, कायोत्सर्ग प्रमुख करना और औषधि प्रमुख करवाना । (18) उपधि (पात्र, उपकरण, पुस्तक) आदि धूप में रखने पर किसी को सुपुर्द किये बिना कहीं भी नहीं जाना। (19) एक हाथ ऊँचे पाट पर शयन करना, उसका बार-बार प्रतिलेखन करना । (20) स्थंडिल - मात्रा परठने हेतु तीन-तीन स्थान रखना और उसे बार-बार प्रतिलेखित करना (निरीक्षण करना) । ( 21 ) तीन मात्रक (पात्र) रखना (22) केशलुञ्चन करना (23) संवत्सरी के पूर्व आपस में एवं श्री संघ में खमतखामणां (क्षमापना करना) । (24) गुरु-शिष्य में परस्पर क्षमापना करना । (25) तीन उपाश्रय रखना (कभी परिस्थितिवश आवश्यकता पड़े तो) (26) गुर्वाज्ञापूर्वक ही उपाश्रय से बाहर जाना । (27) रोगादि के कारण चिकित्सा हेतु वैद्यादि के पास जाना पडे तो चार-पाँच योजन जा सकते हैं लेकिन चिकित्सा हेतु जिस गाँव में जाना हो उसी गाँव में रात नहीं रहना । (28) संवत्सरी के स्थविरकल्प (साधु योग्य आचार नियम) की आराधना करना । श्री पर्युषण पर्व के साधुओं में धर्मकार्य 2 :(1) चैत्य परिपाटी करना (जिनदर्शन, वंदन, भक्ति करना) । 11. अ. रा. पृ. 5/238 से 249, कल्पसूत्र (मूल) समाचारी व्याख्या 12. अ.रा. पृ. 5/238 कल्पसूत्र बालावबोध, पृ.29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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