Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
पञ्चम परिच्छेद... [397] में यथास्थान विस्तार किया गया है ।
(4) ज्ञानपंचमी के दिन ज्ञानपूजा पढाना, ज्ञान की आराधना करना । श्रावक के दैनिक कर्तव्य :
(5) जिनालय-उपाश्रय की शुद्धि, साज-सज्जा, गहुँली आदि करना। (1) चार घडी रात शेष रहे तब उठना (2) महामंत्र का स्मरण (6) जिनपूजा-दर्शन-वंदन। (3) सामायिक, प्रतिक्रमण (4) देवदर्शन, वासक्षेपपूजादि (5) गुरुवंदन (7) जिनबिंब की शुद्धि करना। (6) गृहव्यवस्था विधि (7) व्याख्यान श्रवण (8) विधिपूर्वक स्थान
(8) त्रस जीवों की रक्षा का प्रयत्न करना। (9) विधिपूर्वक स्वद्रव्य से जिनपूजा (10) विधिपूर्वक भोजन (11)
(9) अभ्याख्यान, आक्रोश, कटुवचन, देवगुरुनिंदा, पैशुन्य, विधिपूर्वक सुपात्रदान (12) व्यापार शुद्धि (13) शाम को आरती और
परपरिवाद, दृष्टिवंचन (कपट) का त्याग । मंगल दीपक (14) दैवसिक (संध्या) प्रतिक्रमण (15) गुरुसेवा (16) (10) जयणापूर्वक गृहकार्यादि करना । स्वाध्याय (17) धर्मचर्चा (मित्र-परिवार आदि के साथ) (18) माता
(11) दिन में ब्रह्मचर्य पालन, रात्रि में पर स्त्री/पर पुरुष का त्याग पिता-पति आदि की सेवा (19) दीक्षा हेतु मनोरथ सेवन ।
करना। तत्पश्चात् रात्रि का प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर श्री नवकार मंत्री (12) धन-धान्यादि नव प्रकार के परिग्रह का संक्षेप (कम) करना। का स्मरण करतेहुए श्रावक विश्राम करें।
(13) गमनागमन का वर्षाऋतु में यथाशक्य त्याग। जैनों के संध्या कर्तव्य :
(14) स्नान-अंगराग (शरीर शोभा) आदि की मात्रा (परिमाण) का (1) श्रावक प्रायः एकासन व्रत करे; यदि हो सके रात्रि भोजन
नियम। त्याग करें; यथाशक्ति चोविहार (रात्रि में चतुर्विधाहार का त्याग)
(15) तुच्छफल, सचित्तफल, बहुबीज, अनन्तकायभक्षण का त्याग। तिविहार (त्रिविधाहार का त्याग - अर्थात् केवल जल ग्रहण
(16) विकृतियों (दूध, दही, घी, तेल, गुड/शक्कर और कडाविगई) की छूट) दुविहार (विशिष्ट कारण होने पर द्विविधाहार का
के उपयोग की मात्रा का नियमन करना। त्याग; जल, दूध एवं औषधि लेनी की छूट) का प्रत्याख्यान
(17) प्रतिदिन खाद्य द्रव्यों का नियमन (संक्षेप) करना। करें।
(18) गृहकार्य, क्षेत्रकार्यादि आरम्भादि के कार्यों का संक्षेप करना। (2) धूप, आरती, मंगल दीपक पूर्वक जिनपूजा करें। भावपूजा
(19) दिशावकाशिक व्रत धारण करना। में देववंदन-चैत्यवंदनानि करें।
(20) भाषा समिति, वचन गुप्ति का पालन करना अर्थात् असंबद्ध (3) देवसिअ (दैवसिक) प्रतिक्रमण करना
या अतिशय और कर्कश वचन का त्याग। (4) गुरु भगवंतोंकी वैयावृत्त्य करना।
(21) पुरुष/स्त्री के द्वारा उपभुक्त आसन एवं शय्या का त्याग । (5) स्वाध्याय करना
(22) भोगोपभोग की वस्तुओं का नियम करना (संक्षेप करना)। (6) घर जाकर पुत्र-पौत्रादि परिवारजनों को धर्मकथा कहना ।
(23) अनर्थदंड का त्याग करना। जैनों के रात्रिकालीन कर्तव्य :
(24) सामायिक, पौषध, अतिथिसंविभाग आदि व्रतों का पालन
करना। (1) प्रायः मैथुन का त्याग करना (यथाशक्य अल्प मैथुन)
(25) प्रतिदिन 14 नियमों के अंतर्गत सर्वद्रव्यों एवं कार्यों का (2) देव-गुरु स्मरण/स्मृति (याद करना) । (3) चैत्यवंदन, देवगुरु नमस्कार,
संक्षेप करना। चारों आहार का त्याग करके देशावगासिक व्रत ग्रहण करना। (4)
(26) यथाशक्ति आरंभ-समारंभ के समस्त कार्यों का संक्षेप कर अरिहंतादि चारों शरण अंगीकार करना । (5) सर्व जीवों से क्षमायाचना
उन नियमोंको प्रतिदिन पढना। करना । (6) प्राणातिपातादि अठारह पाप स्थानों का त्याग करना । (7)
(27) जिनदर्शन करना। दुष्कृत गर्दा (निंदा), सुकृत-अनुमोदना करना । (8) आहार-शरीर-उपधि
(28) यथाशक्ति आरंभ-समारंभ के समस्त कार्यों का संक्षेप कर के त्यागपूर्वक सागारी अनशन स्वीकार करना । (9) पाँच नवकार गिनना।
उन नियमों को प्रतिदिन पढना। (10) स्वयं की शय्या में अकेला निद्रा (विश्राम) करें। (11) जागृत होने पर स्त्री शरीर की अशुचिता का चिन्तन करें और उत्तम भावना
(29) अष्टमी, चतुर्दशी एवं जिनेश्वर भगवान् के कल्याणक की भावें।
तिथियों में उपवासादि विशेष तप करना।
(30) धर्मकार्यो में उद्यम करना। जैनों के पर्व (त्यौहार) के कर्तव्य:
(31) धर्मपालन हेतु जयणापूर्वक बोलना, जल छानकर उपयोग (1) पौषध व्रत करना या दोनों समय प्रतिक्रमण और
करना। अधिकाधिक सामायिक करना । (2) ब्रह्मचर्य पालन करना । (3) आरंभ
(32) औषधादि का दान देना। का त्याग करना। (4) यथाशक्ति विशेष तप करना । (5) स्नात्र पूजा,
(33) साधर्मी वात्सल्य करना, स्वामिवात्सल्य करना। चैत्य परिपाटी (जिन दर्शन, गुरु वंदन, सुपात्र दान, देवगुरुपूजा, दानादि
(34) गुरु का यथाशक्ति विनयादि करना। कार्य करना । (6) सचित्ताहार का त्याग करना । (7) यथाशक्ति आरम्भ
(35) प्रासुक जल उपयोग करना। समारम्भ-महारम्भ का त्याग करना।
(36) यथाशक्ति अतिथिसंविभाग व्रत करना। जैनो के चातुर्मासिक कार्य24 :
20. अ.रा.पृ. 7/781, 784, 785; श्राद्धविधि प्रकरण, प्रथम प्रकाश; (1) ज्ञानाचारादि पंचाचार का पालन करना।
21. अ.रा.प. 7785, श्राद्धविधि प्रकरण, प्रथम प्रकाश; गाथा 9, पृ. 103 (2) चैत्य परिपाटी करना।
22. अ. रा. पृ. 7/525; श्राद्धविधि प्रकरण, द्वितीय प्रकाश; पृ. 107, 108; (3) देशना (जिनवाणी) श्रवण, चिंतन ।
23. श्राद्धविधि प्रकरण, तृतीय प्रकाश, अ.रा.पृ. 7/725 24. अ.रा.पृ 3/1169: 5/799, श्राद्धविधि प्रकरण, चतुर्थ प्रकाश; पृ. 114;
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