Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
(2) शरीर सत्कार - पौषध:
यह पौषध सर्वाङ्गीण रुप से लिया जाता हैं। पौषध में या पौषध लेने के लिए किसी भी प्रकार का शारीरिक सत्कार, स्नान श्रृंगार आदि नहीं किया जा सकता। पौषध के लिए परमात्मा की द्रव्य पूजा अनिवार्य नहीं हैं।
(3) अव्यापार- पौषध:
पौषध में संसार संबंधी समस्त प्रकार की सभी प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता हैं।
(4) ब्रह्मचर्य पौषध :
पौषध में अब्रह्मचर्य (मैथुन) का सर्वथा त्याग किया जाता है अर्थात् पौषध में संपूर्ण ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य हैं। पौषध में स्त्री, तिर्यंचादि का संघट्ट न हो, इस हेतु भी पूर्ण सावधानी रखनी होती है। स्त्रीकथा आदि विकथाओं का भी संपूर्ण त्याग होता है, ब्रह्मचर्य की नव वाडों का पूर्णतया पालन किया जाता है अन्यथा पौषध व्रत का भङ्ग होता हैं ।
जो श्रावक पौषध करता है, उसे नियमपूर्वक सामायिक करनी चाहिए और सामायिक में पुस्तक पठन-पाठन या धर्मध्यान ध्याते हुए एसी भावना से मन को भावित करना चाहिए कि, इस प्रकार के ( तप त्यागादि) साधुगुण उत्तम है, पर मैं मंदभागी इसे हंमेशा धारण करने में असमर्थ हूँ। 146
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि श्रावक को प्रत्येक मास की दो अष्टमी दो चतुर्दशी इन चारों ही पर्वों में अपनी शक्ति न छिपाकर सावधानीपूर्वक पौषधोपवास / पौषध करना चाहिए 1147
पौषध का फल :
पौषध व्रत का फल प्रतिपादित करते अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, कोई यदि मणि-स्वर्ण के 1000 खम्भोंवाला, मणि- कांचन के सोपान और स्वर्ण के फर्शवाला जिनमंदिर बनवाये तो भी तप - संयम / पौषध व्रत इससे भी अधिक फलदायी हैं।
आठ प्रहर के एक पौषध में भी अङ्क से भी 27,77,77,77,777,77 और 7/9 पल्योपम वर्ष का देवलोक का आयुष्य बँधता है। 148
शुभभावपूर्वक अप्रमत्त रहकर पौषध करनेवाले श्रावक के अशुभ कर्म, दुःखादि नष्ट हो जाते है, और नरक-तिर्यंचगति का नाश हो जाता है अर्थात् उसकी सद्गति होती हैं। 149
यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, श्रावक जब तक सामायिक या पौषध में रहता है तब तक वह श्रावक होते हुए श्रमण तुल्य हैं। 150
भी
पौषध करने से लाभ :
(1) विषयासक्ति मोहदशा के कारण जीवनभर साधु नहीं बन सकनेवालों को पर्वतिथि के पौषध जितना साधु जीवन का स्वाद मिलता है।
(2) जीव पाप से हल्का होता हैं।
(3) पौषध में धर्ममय जीवन यापन करने से मानव भव सार्थक होता है। धर्म की कमाई होती हैं।
(4) स्वादिष्ट भोजन रुप आहार, शरीर राग के कारण होनेवाला शरीर-सत्कार, पाँचों इन्द्रियों के विषयभोगरुप अब्रह्म और
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चतुथ परिच्छेद... [385]
व्यापार-व्यवहाररूप जगत व्यवहार- पौषध में जाने से रुक जाती हैं।
(5) गुरुनिश्रा में पौषध करने से वैराग्य की ओर आकर्षण होता हैं।
(6) साधुओं की निर्मल- निश्चित-निर्भय-निष्पाप-निर्भ्रान्त अनेक प्रकार की साधनाएँ देखने से साधु होने का भाव जागृत होता है।
विषय कषाय मंद-मंदतर होते हैं।
परिवार - रिश्तेदार आदि से मोह - ममत्त्व - आसक्ति कम होती है।
(9) जीव की भौतिक साधनों के प्रति परवशता - पराधीनता दूर होती हैं, साधनों के अभाव में भी स्वस्थता बनी रहती हैं। (10) संसार के पापस्थान और राग-द्वेष के सामने धर्म भावना बनी
रहती है और राग-द्वेष की तीव्रता कम होती हैं।
(7)
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(11) दुन्वयी चिंता, टेन्शन, डिप्रेशन, हाई बी.पी आदि से प्रायः मुक्ति मिलती हैं।
(12) गुरु भगवंतो से धर्मतत्त्व का एवं हितकारी सिद्धांतो का ज्ञान प्राप्त होता हैं।
(13) सज्जन धार्मिक लोगों के साथ परिचय - मित्रता होती हैं। (14) उत्तम धार्मिक व्यक्ति के रुप में प्रसिद्धि होने से जीव पाप कार्य से बचता है और धर्मकार्य में जुड़ता हैं।
(15) जिनाज्ञा का पालन होता हैं।
पौषध के अठारह दोष 152 :
पौषध में निम्नोक्त कार्यों में से किसी भी प्रकार का कार्य करने से दोष लगता है
(1)
बिना पौषध के विरतिरहित श्रावक के द्वारा लाया हुआ आहार उपयोग में लेना ।
146.
147.
148.
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सरस आहार लेना ।
पारणा में रसग्राही सामग्री खाना ।
पौषध हेतु शरीर - श्रृङ्गार करना ।
वस्त्रादि धुलवाना ।
आभूषण बनवाना या पहनना । वस्त्र रंगाना ।
शरीर पर से मैल उतारना
शयन करना (दिन में) ।
स्त्री कथा करना ।
अपहार (चौर) कथा करना ।
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(10)
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(12) राज कथा करना ।
अ. रा. 5/1133; पञ्चास्तिकाय- 1/30; आवश्यक बृहद्धवृत्ति 6/11 अ. रा. 5/1136-39; समणसुत्तं पृ. 270; रत्नकरंडक श्रावकाचार; पञ्चाशक विवरण- 10/6
अ. रा. 5/1136; धर्मसंग्रह 2/39; विपाकसूत्र सुबाहकुमार अधिकार पुरुषार्थ सिद्धयुपाय- 157
सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवई जम्हा । एएणं कारणेणं, बहुसो सामाइय कज्जा ||2||
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- श्रावक प्रतिक्रमण 'सामाइय वयजुत्तो' सूत्रगाथा - 2
151. मुनिपति चरित्र से उद्धरित (ले. अजित शेखरसूरि ) श्रावक कर्तव्य भाग-1 पृ. 109, 110
152.
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