Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 415
________________ [366]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (2) (1) पिण्डस्थ अवस्था - 'पिण्ड' अर्थात् तीर्थंकर के जन्म से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति एवं समवशरण की स्थापना के पहले तक का छद्मस्थ देह अर्थात्, द्रव्यतीर्थकररुप में रहने वाली अवस्था पिण्डस्थ अवस्था कहलाती है। वह पिण्डस्थ अवस्था तीन प्रकार की हैं(1) जन्मावस्था - तीर्थंकर जन्म के समय जन्माभिषेक महोत्सव का दृश्य, छप्पन दिक्कुमारिका महोत्सव, आदि को स्मृति में लाना और चोसठ इन्द्रों द्वारा अभिषेक किये जाने पर भी तीर्थंकर के निराभिमान रहने आदि का चिन्तन करना चाहिए। राज्यावस्था - पुष्पादि से तीर्थंकर प्रतिमा की अंगरचना देखकर चिन्तन करना चाहिए कि सर्व प्रकार की अनुकूलता, श्रेष्ठ वैभवपूर्ण संसार एवं राजकीय सुख को आपने तृणावत् त्याग कर कर्मक्षय एवं आत्मकल्याण के लिए साधुजीवन का अंगीकार किया। हम भी कब हमारी आत्मा का कल्याण कर सकेंगे? -ऐसी भावना से मन को भावित करना। (3) श्रमणावस्था - आभूषण एवं अंगरचना (आंगी) रहित जिनप्रतिमा के दर्शन से दीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञानाप्ति एवं समवसरण की स्थापना के पहले तक की श्रमण (मुनि) अवस्था का चिन्तन करना कि परमात्माने समस्त वैभव त्याग कर घोर परिषहों और उपसर्गो को समतापूर्वक सहन किया; साथ ही अनुपम त्याग और घोर तप किया, अहर्निश आत्मध्यान में रहकर घातीकों का क्षय किया। धन्य साधना ! धन्य पराक्रम! धन्य सहिष्णुता - इस प्रकार की अवस्था का ध्यान करना। पदस्थ अवस्था - पदस्थ अवस्था अर्थात् तीर्थंकर अवस्था। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद समवसरण की रचना; चौंतीस अतिशय, षड्दव्य-नवतत्त्वयुक्त पैंतीस वाणी-गुणों से अलंकृत धर्मदेशना; चतुर्विध सघ की स्थापना आदि परमात्मा के अरिहन्त स्वरुप का चिन्तन करना एवं हम भव्य जीवों पर परमात्माकृत उपकारों का चिन्तन करना। रुपातीत अवस्था - रुपातीत अवस्था अर्थात् सिद्धावस्था । पर्यकासन या जिन/कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थापित जिन प्रतिमा को देखकर प्रभु की निर्वाण (मोक्ष/सिद्ध) अवस्था का चिन्तन करना । अर्थात् सिद्ध परमात्मा के अनन्तचतुष्टय आदि आठ गुणों का चिन्तन करना। 6. दिशा-त्यागत्रिक : जिनपूजा के समय चित्त में प्रारंभ हुए उत्तम परिणाम दूसरे विचार या दूसरी प्रवृत्ति से लेशमात्र भी खंडित न हो इसलिए पूजा, चैत्यवंदन करते समय (1) अपनी दोनों ओर और पीछे अथवा (2) उपर, नीचे और आसपास - यों तीनों दिशा में देखने का त्यागकर प्रभु के सामने ही देखना - त्रिदिशि निरक्षण वर्जन (त्याग) त्रिक हैं। 7. प्रमार्जनात्रिक : चैत्यवंदनादि हेतु भूमि पर बैठने से पूर्व तीन बार दुपट्टे के छोर से (या बहनों के लिए साडी के पल्ले से) जगह का जीवरक्षार्थ तीन बार प्रमार्जन करना, प्रमार्जनात्रिक है। इसका आशय जीवहिंसा से बचाव और जीवनरक्षा करना है।25 8. वर्णादित्रिक : वर्णादित्रिक को चैत्यवंदन भाष्य में आलम्बन त्रिक कहा है (1) शब्दालंबन - बोले जानेवाले सूत्र के शब्दों की शुद्धता, पदविन्यास, ह्रस्व, दीर्घ, अनुस्वार आदि का ध्यान रखते हुए उच्चारण करना 'शब्दालंबन' हैं। (2) अर्थालंबन - उनके अर्थ को ग्रहण करना । (3) पुष्टालंबन - परमात्मा की प्रतिमा का आलंबन लेकर परमात्मभाव की ओर ध्यान देना। इससे धर्म क्रिया में चित्त की एकाग्रता बढ़ती है और परम आनंद प्राप्त होता हैं।26 9. मुदात्रिक : _ 'मुद्रा' अर्थात् अङ्गोपाङ्गों का विन्यास करना । योग के यमनियमादि आठ अङ्गों में तीसरा अंग 'आसन' हैं । चैत्यवंदन का महान योग सिद्ध करने के लिए योगाङ्ग की भी आवश्यकता है। उसकी सिद्धि शरीर की विशिष्ट मुद्रा से होती है। ये मुद्राएँ तीन प्रकार की हैं(1) योग मुद्रा - इरियावहियं, चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति, नमुत्थुणं, सूत्र आदि बोलते समय दोनों हाथों की हथेलियों को कुछ पोली जोडकर (बंद कमल सा आकार बनाने पर) अंगुलियों के अग्रभागों को एक-दूसरे के बाद क्रमशः रखना दोनों हाथों को कुहनी तक जोडकर कुहनी पेट पर लगाकर रखना - 'योगमुद्रा' हैं। मुक्ताशुक्ति मुद्रा - जावंति, जावंत और जयवीयराय सूत्र बोलते समय दोनों हाथों को उनकी अंगुलियों के अग्रभागों को परस्पर सामने आएँ तथा हथेली बीच में मोती की सीप की तरह ज्यादा पोली रहे - इस प्रकार जोडने से मुक्ताशुक्ति मुद्रा बनती हैं। जिन मुद्रा - कायोत्सर्ग के समय दो पैरों के बीच में आगे चार अंगुल और पीछे इससे कम जगह रहे, हाथ सीधे लटकते रहें, और दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर रहे, इस प्रकार खडे रहना 'जिनमुद्रा' हैं। इसे कायोत्सर्ग मुद्रा (खड्गासन) भी कहते हैं। 10. प्रणिधानत्रिक : प्रणिधान अर्थात् धर्मानुष्ठान में मन, वचन, काया को एकाग्र (स्थिर) लगाये रखना, प्रणिधान-त्रिक कहलाती हैं। प्रणिधान समस्त आराधनाओं का मूलाचार है। प्रणिधान के बिना कोई भी आराधना सफल नहीं हो सकती।28 जिनपूजा में सप्तशुद्धि :1. मनः शुद्धि: जिन पूजा करते समय मन को मलिन करनेवाले दुर्विचारों 24. अ.रा.पृ. 3/1304 25. अ.रा.पृ. 3/1308 26. अ.रा.पृ. 3/1308 अ.रा.पृ. 3/1308 28. अ.रा.पृ. 3/1310 29. अ.रा.पृ. 3/1281 (2) (3) (3) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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