Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[378]... चतुर्थ परिच्छेद
(2) मांस :
जलचर - स्थलचर- खेचर या चर्म (चमडी), रुधिर (खून) और माँस के भेद से माँस तीन प्रकार का हैं। इसका भक्षण महापाप का मूल होने से वर्जित है क्योंकि माँस हिंसा के बिना प्राप्त हो ही नहीं सकता। शास्त्रों में इसके विषय में कहा गया है कि, "माँस पञ्चेन्द्रियवध से उत्पन्न होने के कारण दुर्गंधयुक्त, अशुचियुक्त, बीभत्स, अभक्ष्य, और कुगति (नरक गति) का मूल है। कच्चे, पक्के या पकते हुए माँस में निगोद के जीव सतत उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। जीव का वध होते ही उसमें उत्पन्न निगोद के अनंत संमूच्छिम जीवयुक्त माँस जीव हिंसा का कारण होने से नरक के पाथेय माँस को कौन विद्वान् खायेगा ? अर्थात् कोई नहीं। माँस में निगोद के और संमूच्छिम जीवों की सतत जन्म-मरण परम्परा चालू रहने के कारण उससे दूषित माँस, प्राणी माँस के भक्षक और घातक दोनों के लिए नाशक हैं। मनु स्मृति में मनुने भी कहा है - "माँस (के लिए हिंसा के) कर्ता, विक्रेता, संस्कर्ता (मांसाहारी आहार बनाने वाले) और भक्षक तथा क्रेता (खरीददार) के अनुमोदक, दाता सभी घातक ही हैं। जो अपने शरीर की पुष्टि के लिए माँस भक्षण करते है, वे घातक (हिंसक ) हैं क्योंकि भक्षक के बिना घातक नहीं होता अर्थात् यदि कोई माँसाहारी न हो तो घातक (कसाई आदि) किसके लिए प्राणियों का घात करेंगे ? भक्षक के बिना घातक, विक्रेता, क्रेता, अनुमोदक, संस्कर्ता आदि किसी की संभावना नहीं हो सकती ।
प्राणी का मांस इतना आसानी से प्राप्त नहीं होता । काटते वक्त प्राणी चिल्लाता है, तडपता है, कांपता है, उसकी आँखो से आँसू बहते हैं। सूअर जैसे प्राणी जो आसानी से कट नहीं सकते उन्हें उनके पैर बाँधकर जिन्दा जला दिया जाता हैं। इस तरह निर्दयता की चरम सीमा के कारण ही मांसाहारी प्राणी दुर्गति-नरक गति को प्राप्त करता है । अण्डा मुर्गी का गर्भ है जो मुर्गी के गर्भ में वीर्य और रक्त से बढ़ता है अतः अंडे का सेवन भी मांसाहार ही हैं। मांसाहार स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। यह अनेक प्रकार की बीमारियों का मुख्य कारण हैं। इससे अकाल मृत्यु भी हो जाती है। आधुनिक विज्ञान मांसाहार से उत्पन्न भयंकर परिणामों की ओर सारे संसार का ध्यान खींच रहा है। विज्ञान ने अंडे, मछली, माँस में कोलेस्टरोल, यूरिक एसिड, यूरिया, मर्करी D.D.T., P.C.B., D.E.S., M.G.A. आदि अनेक हानिकारक विषैले तत्वों को खोज निकाला है तथा इनसे उत्पन्न होनेवाले हृदयरोग, टी.बी., कैंसर, श्वास रोग, हाई ब्लडप्रेशर, आमवात आदि अनेक बीमारियों की खोज की हैं।
इंग्लैंड के डो. विलियम हमरी अपने Right Food ग्रंथ में लिखते हैं- मांस तेजाबयुक्त भोजन हैं। जानवर को जब काय जाता हैं, तब मौत की अत्यन्त वेदना और डर से उसका मांस अधिक तेजाबवाला (विषैला) बन जाता है। एसा मांसाहार तो सिर्फ नीच, असभ्य अथवा मूर्खो का ही भोजन हो सकता हैं। मांस खाना तो अपने पेट को कब्रस्तान बनाना हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हड्डियों में से क्षार - कण खून में मिल जाते है, इससे हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं। इसके विपरीत शाकाहारियों की पेशाब क्षारयुक्त होती है, इसलिए उनकी हड्डियाँ मजबूत बनी रहती हैं। अतः हड्डियों की मजबूती के लिए आरोग्य की दृष्टि से भी मांसाहार त्याज्य हैं। जार्ज बर्नाड शो कहते हैं- मांसाहारी लोग हत्या किये गये और काटे गये प्राणियों के मृत शरीर के जीवित कब्रस्तान हैं।
जॉफी एल. 'सोल्यूशन ऑफ इण्डियाज फूड प्रोब्लम' में लिखते हैं- एक टन मांस प्राप्ति के लिए जितना समय चाहिए उतने में 10 (दस) से 100 (सौ) गुना तक शाकाहारी खाद्य पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं। साथ ही कोड-लीवर ओयल आदि मछली से और जिलेटीन भी अंडे, चमडे आदि से बनने के कारण जिलेटीनयुक्त केक, चाकलेट, आइस्क्रीम आदि पदार्थ भी अभक्ष्य ही है, अतः त्याज्य हैं। 99
मांसाहार करने से हड्डियाँ भी कमजोर हो जाती हैं। हार्वड मेडिकल स्कूल (अमेरिका) के डॉ. ए. वोचमन और डॉ. डी. एस. बर्नस्टन Lancent 1968 Volume -1 में लिखते हैं- मांसाहारी लोगों की पेशाब प्रायः तेजाब युक्त होती हैं। इसके कारण शरीर के रक्त स्थित तेजाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए
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इस तरह मांसाहार जीव हिंसा का कारण, अशुभ कर्मबंधक और आरोग्य की दृष्टि से भी अत्यन्त हानिकारक होने से अवश्यमेव त्याग करने योग्य हैं।
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(3) मधु (शहद) :
शहत मक्खियों, भौंरों आदि की लार एवं वमन से तैयार होता हैं। मधुमक्खी फूलों से रस चूसकर उसका छत्ते में वमन करती हैं। छत्त के नीचे धुआँ करके मक्खियों को उड़ाया जाता है। पश्चात् उस छत्ते को निचोड़कर शहद निकाला जाता है; इसमें कई अशक्त (उडने में असमर्थ ) मधुमक्खियाँ और उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं और वे तथा सभी तरह की अशुचि शहद में मिल जाती हैं तथा उसमें अनेक प्रकार के रसज जीवों की भी उत्पत्ति होती है। इस तरह शहद अनेक जीवों की हिंसा का कारण होने से अभक्ष्य हैं। 100
आयुर्वेदिक दवाई के प्रयोग में शहद के बजाय घी, शक्कर, चासणी या मुरब्बा से काम चल सकता है। अतः दवाई लेने में भी शहद का त्याग करने योग्य हैं।
(4) मक्खन ( नवनीत) 101 :
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प्राप्ति के आधार पर मक्खन चार प्रकार का होता हैं (1) गाय (2) भैंस 93) बकरी और (4) भेड इन चारों से प्राप्त दूध से बना हुआ। मक्खन को छाछ में से बाहर निकालने के बाद तुरन्त ही उसमें उसी रङ्ग के अनंतानंत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। वासी मक्खन या मलाई में तो हर समय सूक्ष्म रसज जीवों की उत्पत्ति होती रहती हैं। यदि घी भी बनाना हो तो भी मक्खन को छाछ से निकालकर सीधे गर्म बर्तन में रखकर तुरन्त तपाना चाहिए। दो-चार दिन के मक्खन में तो अतिशय जीवोत्पत्ति होती हैं।
मक्खन खाने से जीव विकार वासना से उत्तेजित होता है, चारित्र की हानि होती है और अनेक बीमारियाँ भी होती हैं । अतः मक्खन खाने का त्याग करना चाहिए। (59) उदुम्बर- गूलर आदि फल 102 :
(1) वट वृक्ष (2) पीपल (3) पाकर (प्लक्ष) (4) उदुम्बर
98. 99.
100. 101.
102.
अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र-3/18 से 33
श्रीमद् जयंतसेन सूरि अभिनंदन ग्रंथ विविधा पृ. 20, 21
अ. रा.पू. 2/928; योगशास्त्र- 3/36 से 41 अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र- 3/34, 35 अ. रा. पृ. 2/928, 929
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