Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 424
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (5) तत्प्रतिरूपक व्यवहार वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर बुरी वस्तु देना । स्थूल मैथुनविरमण व्रत : दिव्य और औदारिक काम भोगों का कृत-कारितपूर्वक मनवचन काया से सर्वथा त्याग ब्रह्मचर्य कहलाता हैं 155 गृहस्थ स्वयं के अनियन्त्रण के कारण पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता अतः कामसेवन की मर्यादापूर्वक स्वस्त्री में ही संतोष करना तथा परस्त्री का त्याग करना 'स्थूल मैथुन विरमण व्रत' हैं 156 इसे ही ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदार संतोषव्रत कहते हैं 157 इस व्रत के धारक पुरुष अपनी पत्नी के अलावा शेष सभी स्त्रियों को माता, बहन या पुत्री की तरह समझता है तथा पत्नी अपने पति के अलावा अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई या पुत्र की तरह समझती हुई दोनों एक-दूसरें के साथ ही संतुष्ट रहते हैं । 58 इतना ही नहीं, अकाल (मैथुन के अयोग्य काल) में स्वस्त्री का भी त्याग करता हैं, क्योंकि ऋतुकाल को छोडकर जो अकाल में स्वस्त्री का भी सेवन करता है, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है और दिनप्रतिदिन सूतक लगता हैं। 59 लाभ : इस व्रत का पालन महाफलदायी हैं। इस व्रत को धारण करने से व्रती साधक को पापकर्मों का बंध नहीं होता । देव-देवेन्द्र इनके चरणों में नमस्कार करते हैं। परलोक में उच्च देवगति, पंचविध भोग सामग्री और प्रियसंयोगादि सुख प्राप्त होते हैं तथा परंपरा से मोक्ष प्राप्त होता हैं। 60 इतना ही नहीं इस व्रत के धारक की भक्ति से चारों विद्याओं की भक्ति का फल प्राप्त होता हैं । 1 हानि : स्वदारा संतोष व्रत का पालन नहीं करने पर परस्त्री विधवावेश्या - कुमारिका का सेवन, पशुमैथुन, हस्त मैथुन, समलिङ्गि मैथुन आदि का त्याग नहीं करने से अत्यन्त हानि होती हैं; गाढ कर्मो का बंधन होता है; कुल का नाश होता हैं; 2 पृथ्वीकायादि षट्कायिक जीवों की हिंसा होती हैं, नरक गति प्राप्त होती हैं; परलोक में नपुंसकत्व, विरुपत्व, प्रियवियोगादि दोष प्राप्त होते हैं। 64 परस्त्रीगमन और अमर्यादित कामसेवन यावज्जीव दुष्ट विनाशकारी फलदायक हैं, अंत में दुर्गतिदायक हैंण्ड, अधर्म का मूल हैं और संसारवृद्धि का कारण हैं, अतः सज्जनों के लिए विषाक्त अन्नवत् त्याज्य हैं।“ परस्त्रीगमन के कारण ही महाबली रावण भी अपने कुल का विनाश कर नरक में गया। 67 जिस प्रकार से परस्त्रीगमन त्याज्य हैं वैसे ही पर-पुरुष सेवन भी त्याज्य हैं। ऐश्वर्य से कुबेर समान और रुप से कामदेव समान सुन्दर होने पर भी स्त्री को परपुरुष का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिये जैसे सीताने रावण का त्याग किया था। 68 स्थूल मैथुन विरमण व्रत के पाँच अतिचार : (1) इत्वरपरिगृहीतागमन - अल्प समय के लिए पत्नी के रुप में रखी गई रखैल, वाग्दत्ता या अल्पवयस्का पत्नी के साथ समागम करना, इत्वपरिगृहीतागमन कहलाता है 170 (2) अपरिगृहीतागमन अपरिगृहीता अर्थात् वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है एसी वेश्या, विधवा, कुमारिका Jain Education International चतुर्थ परिच्छेद... [375] या पर-स्त्री (स्वयं के द्वारा परिगृहीत नहीं होने से अपरिगृहीत) से काम-संबंध रखना 'अपरिगृहीतागमन' कहलाता हैं। 71 (3) अनंगक्रीडा मैथुन के स्वाभाविक अङ्गों को छोड़कर हस्त, मुख, गुदादि, चर्म आदि से तथा बाह्य उपकरणों से वासना की पूर्ति करना या समलिङ्गी से या पशुओं से मैथुन सेवन करना - 'अनंगक्रीडा' हैं। 72 (4) परविवाहकरण - गृहस्थ का स्वसंतान और परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह संबंध करवाना 'परविवाहकरण' कहलाता हैं। 73 - (5) कामभोग तीव्राभिलाषा- कामवासना के सेवन की तीव्र इच्छा रखना या तद्हेतु कामवर्धक औषधियाँ या मादक पदार्थो का सेवन करना । 74 रत्नकरंडक श्रावकाचार में इन अतिचारों का क्रम भिन्न बताया हैं और अपरिगृहीतागमन के स्थान पर 'विट्त्व काम संबंधी कुचेष्टा' नामक अतिचार बताया हैं। 75 ये अतिचार तज्जनित मानसिक आकुलता के कारण विवेक भ्रष्ट कर साधना पथ से पतित करते हैं; अतः व्रती साधक के लिए इन पाँचों अतिचार स्थानों का निषेध किया गया हैं। साधक को इन पाँचों अतिचार स्थानों का अच्छी तरह समझकर इन से हमेशा बचकर रहना चाहिए । स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत : जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में भी श्रावकों के स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत को 'इच्छापरिमाण व्रत' कहा गया हैं। 76 दो प्रकार से सचित्त (द्विपद- चतुष्पदादि), अचित्त (रत्न, कुप्यादि); अथवा छः प्रकार से धान्य, रत्न, स्थावर, द्विपद, चतुष्पद और • कुप्य; अथवा नव प्रकार धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, रुप्य, सुवर्ण, द्विपद, चतुष्पद कुप्य के असीम संग्रह को स्वयं के जीवन-व्यवहार और 55. अ.रा. पृ. 5/1259 56. 57. 58. रक. श्री. 59 59. 60. 61. 62. 63. अ. रा. पृ. 5/526; 6/1259, 7/337; रत्नकरंडक श्रावकाचार 59 अ. रा. पृ. 7/337 अ.रा. पृ. 6/427 अ. रा. पृ. 5/527 अ.रा. पृ. 5/526 अ.रा. पृ. 6/427 अ. रा. पृ. 6/429 अ. रा. पृ. 5/526 64. 65. 66. 67. 68. वही- 2/102 69. अ.रा. पृ. 5/527; सावय धम्ममपण्णति- 273; तत्त्वार्थ सूत्र - 7/24 70. अ. रा. पृ. 2/584 71. अ.रा. पृ. 1/600 72. अ.रा. पृ. 1/259 73. अ.रा. पृ. 5/548 74. अ.रा. पृ. 3/443 75. रत्नकरण्डक श्रावकाचार 60 76. अ. रा. पृ. 2/557; पञ्चाशक वस्तु 4 द्वार; उपासक दशांग अध्ययन | अ.रा. पृ. 5/528 अ. रा. पृ. 6/428, हारिभद्रीय अष्टक -20/8 योगशास्त्र -2/99 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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