Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[328]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन की अपेक्षा से चार प्रकार से हैं - क. स्वसमय - परसमय, ख. श्रवणकर्ता के द्वारा भी श्रवण समय में आरंभ से विरत होकर परसम-स्वसमय, ग. स्याद्वाद-मिथ्यावाद, घ. मिथ्यावाद-स्याद्वाद । षड्जीवनिकाय के जीवों को अभयदान दिया जाता है और देशना (3) संवेगिनी कथा254 - जिस कथा से जीव को संसार संवेग (वैराग्य) को ग्रहण करके जीव परमार्थ को प्राप्त करता है ।267 प्राप्त होता है, उसे संवेगिनी कथा कहते हैं अथवा जिस कथा द्वारा
स्वाध्याय से अज्ञान का नाश, कर्मनिर्जरा, अभ्युदय, सुख, इस लोक व परलोक संबंधी दुःखों का या कर्म विपाक का श्रवण पूजा, रत्नत्रयी की विशुद्धि, उत्तरोत्तर गुण श्रेणी की प्राप्ति, शुद्ध संयम, होने से श्रोता भोग सुखों से, शरीर से, देवालोकादि के सुख वैभव और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।268 से विरक्त होता है उसे संवेगिनी कथा कहते हैं ।255
अन्तरंग तपों में ध्यान और व्युत्सर्ग- ये दो अतिमहत्त्वपूर्ण ज्ञान, चारित्र तप व वीर्य - इनका अभ्यास करने से आत्मा तप हैं। ध्यान ही वह तप है जिससे चार घातिकर्मों का नाश होने में कैसी-कैसी अलौकिक शक्तियाँ प्रगट होती हैं इनका विस्तृत वर्णन से जीव की साधना का चरम लक्ष्य प्राप्त होता हैं। जहाँ जैनागमों करनेवाली कथा संवेगिनी कथाहै ।256 संवेगिनी कथा इसलोक, परलोक, में ध्यान तप का विवरण दिया हुआ होता हैं वहाँ ध्यान के चार स्वशरीर, परशरीर के भेद से चार प्रकार की हैं।257
भेदों का उल्लेख भी किया जाता हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । (4) निवेदनी कथा - जिस कथा के द्वारा संसार से उद्विग्नता और किन्तु यह विषय की पूर्णता की दृष्टि से ही अपेक्षित होता है। कहने विरक्ति उत्पन्न होकर जीव में मोक्ष की अभिलाषा प्रकट हो वह का अभिप्राय यह है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान किसी भी प्रकार निर्वेदनी कथा है ।258 अथवा चोरी, आदि पाप कर्मो के फल रुप से तप नहीं हैं; तप में तो केवल धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही आते अशुभ विपाक अर्थात् दुःखदायी दारुण परिणामों के वर्णन के द्वारा हैं। तप की विशेषता भी यही है कि तप सायास और अभ्यास पाप कर्मो से मुक्त होने के लिए संसार से निर्वेद उत्पन्न करानेवाली से होते है जबकि आर्तध्यान और रौद्रध्यान तो अनादि मिथ्यादृष्टि कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।259
और सादि मिथ्यादृष्टि के अनादि से ही अनायास विद्यमान रहते हैं। स्वाध्याय का फल :
वस्तुतः तो सारी महिमा ध्यान की ही हैं; यदि शुक्लध्यान प्रकट अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि जो पाँचो प्रकार हो गया तो समझो मोक्ष मिल ही गया हैं। किन्तु शुक्ल ध्यान प्रकट का स्वाध्याय करता है, वह वैराग्य प्राप्त करता हैं ।260 स्वाध्याय के होना इतना सरल नहीं है, इसलिए महाव्रतादि के सोपानों से होता समान कोई तप नहीं है।261 स्वाध्याय का फल निरुपित करते हुए हुआ भिक्षुप्रतिमाओं के माध्यम से ध्यान का अभ्यास करने से शुक्लध्यान अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - सज्झाएण नाणावरणिज्जं होना सम्भव हो पाता हैं। ध्यान का प्रकरण अति महत्त्वपूर्ण है। कम्म खवेइ ।62 स्वाध्याय करने से ज्ञानवरणीय कर्मो का क्षय हो आगे के शीर्षक में जैनसिद्धान्त में प्रतिपादित ध्यान का स्वरुप विवेचित जाता हैं। इस सन्दर्भ में अभिधान राजेन्द्र कोश में एक महत्त्वपूर्ण किया जा रहा है। बात कही गई हैंअपुव्वणाण गहणे सुयभती पवयणे पहावणया।
254. अ.रा.पृ. 7/242; स्थानांग 4/2
255. अ.रा.पृ. 7/244; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-9/13 एएहिं करणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो 63
256. भगवती आराधना, मूल गाथा /657/857 नए-नए ज्ञान का अभ्यास करने से आत्मा बीसवें पद तीर्थंकर
257. अ.रा.पृ. 7/243, 244; स्थानांग 4/2; द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका-9/13 गोत्र का उपार्जन करती हैं। इसलिए ज्ञानोपासना में कभी प्रमाद नहीं 258. अ.रा.पृ. 4/2134; स्थानांग 4/2 करना चाहिए।
259. अ.रा.पृ. 4/2135; दशवैकालिक नियुक्ति-3/2073; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश श्री वीतरागदेव के द्वारा कथित बारह प्रकार के तप में ऐसा
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260. अ.रा.पृ. 7/292; धर्मरत्र प्रकरण-44 कोई तप नहिं है, जो स्वाध्याय तप की बराबरी कर शके । स्वाध्याय
261. अ.रा.पृ. 7/292; मूलाचार-409 अत्युपकारक तप है।264 उपदेशमाला में कहा है - "स्वाध्याय से
262. अ.रा.पृ. 7/292; उत्तराध्ययन 29/20 शुभ ध्यान प्रकट होता है, सत्य परमार्थ तत्त्वों का ज्ञान होता है, 263. अ.रा.पृ. 4/2295%; ज्ञाता धर्मकथा-8 इतना ही नहीं अपितु स्वाध्याय में रहे हुए जीव का वैराग्य प्रतिक्षण
264. दशवैकालिक नियुक्ति-118 बढता जाता है।"265
265. उपदेशमाला-338 गौतम पृच्छा में भी कहा है कि, "पठन-पाठन, चिन्तन- 266. गौतमपृच्छा-30 मनन, धर्मोपदेशरुप स्वाध्याय एवं गुरु वैयावच्च तथा श्रुतभक्ति से 267. यतिदिनचर्या-गाथा-57 पृ. 34 जीव मेघावी होता है। "266 यतिदिनचर्या में भी कहा है कि, "वाचना
268. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-523, 524
। शेषैः किम् ? नानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वतां, येषां यान्ति दिनानि पण्डितजनव्यायामखिन्नात्मनाम् । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तैरेव भूर्भूषिता, शैषेः किं पशुवद्विवेकरहितैर्भूभारभूतैनरैः ॥
-अ.रा.पृ. 1/488
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