Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [347] तो द्रव्य वृद्धि होगी ही, इसलिए उसे दान का विधान है जिससे यथासम्भव पालन करे। इस कथन में समस्त यतिधर्म का विधान स्वामित्व भाव समाप्त हो सके। इसी को लक्ष्य में रखकर आचार्य समाहित हो जाता हैं। उमास्वातिने दान को परिभाषित किया हैं
परिषह जय :अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् ।
क्षुधा, तृषा आदि बाईस परिषहों में से श्रमण तो सभी अर्थात् आचार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि परकल्याण परिषहों को सभी अवस्थाओं में जीतता ही है। किन्तु श्रावक को के निमित्त से ही अतिसर्ग होना चाहिए; अकल्याण के लिए नहीं । सापेक्ष विधान ही है। जैसे - किसी श्रावक को अकारण कारागार यह दान दैनिक जीवन में चार कारणों के आधार पर चार प्रकार में डाल दिया जाये और उसे रात्रि में ही भोजन दिया जाये तब का बताया गया है जैसा कि दान शब्द (पृष्ठ 357-58) के अन्तर्गत वह अपने विवेकानुसार क्षुधा परिषह को सहन करे। इसी प्रकार सभी स्पष्ट किया गया हैं।
परिषहों में श्रावक के सापेक्ष स्थूलता समझनी चाहिए। यति धर्म :
इस प्रकार श्रावकों के आचरण में जो स्थूलता देखी जाती यतिधर्म केवल यति के लिए हैं या श्रावक के लिए भी?
है वह शास्त्र सम्मत होने के साथ - साथ अपरिहार्य भी है क्योंकि - यह प्रश्न प्रथमतः उपस्थित होता है। वस्तुतः यह प्रायोवाद है।
अनादि काल से संसार में भ्रमण करनेवाला जीव सहसा मुनिवद् क्षमा आदि का पूर्णत: पालन यतियों में ही प्रगट हो पाता है इसलिए ।
नहीं हो सकता इसीलिए देशविरति और सर्वविरति भेद से दो प्रकार इनका नाम यतिधर्म है न कि श्रावकों के लिए इनका निषेध है।
का धर्म बताया गया हैं। सर्वविरति के धारक श्रमण के आचरण जैन सिद्धांत में स्पष्टता यह प्रतिपादित है कि यद्यपि श्रावक का
के विषय में पूर्व के शीर्षकों द्वारा प्रकाश डाला जा चुका हैं। आगे आचरण मुनियों से भिन्न है फिर भी उसका कर्तव्य है कि लिंग
के शीर्षक द्वारा श्रावक धर्म विषयक शब्दावली के अनुशीलन के धारण (श्रमण वेश धारण) के अतिरिक्त वह श्रमण की चर्या का
माध्यम से किञ्चित विवरण प्रस्तुत किया जा रहा हैं।
| जागरिया
जागरइ णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्डए वुद्धी। जो सुअइ ण सो धणो, जो जग्गइ सो सया धणो ॥1॥ सुअइ सुअंतस्स सुअं, संकिटाखलियं भवे पमत्तस्स ।
जागरमाणस्स सुअं,थिरपरिचियमप्पमत्तस्स ॥2॥ बालस्सेणं समं सोक्खं, ण विज्जा सह निद्दया ।
ण वेरग्गं पमादेण, णारंभेण दयालुआ ॥3॥ जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं तु सुत्तिया सेया। णच्छाहिव भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥4॥ सुवइ य अयगरभूओ, सुयंपि से णस्सती अमयभूयं । . होही गोणतभूओ, णट्ठम्मि सुए अमयभूए ॥5॥
- अ.रा.पृ. 4/1447
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