Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[346]... चतुर्थ परिच्छेद
मुनि जीवन एवं गृहस्थ श्रावक के जीवन पर दृष्टिपात करते ही जब हम दोनों के व्रत, नियम, आचार, आवश्यक, जीवन-व्यवहारशैली आदि का निरीक्षण करते तब हमें तत्काल ज्ञात होता है कि मुनिधर्म सूक्ष्म है, जैनधर्म का आचरण विज्ञान बहुत ही सूक्ष्म और वैज्ञानिक है । अतः मुनिजीवन की सभी क्रियाएँ वैज्ञानिक रहस्ययुक्त, सूक्ष्म यतनायुक्त है । मुनिजीवन ही वास्तविक जैनधर्म, जैनाचार, अहिंसापालन है, क्योंकि 'सर्वभूतेषु दया' मुनिजीवन में ही संभव हैं; गृहस्थ जीवन में व्रतधारी श्रावक का जीवन भी मुनिव्रतपालन का अभ्यासमात्र है, श्रावकों के द्वारा किया जानेवाला उपधान तप भी मुनिजीवन का अल्पकालिक प्रयोग है। आगे कुछ बिन्दुओं के माध्यम से श्रावकों के आचार में सापेक्ष स्थूलता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया जा रहा हैं 1
गम्य धर्म :
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रमण का तो पूर्ण त्यागरुप आचरण झलकता है जबकि श्रावक में केवल संकल्पी हिंसा का ही त्याग हो पाता है।
इसी प्रकार से सभी दैनिक कृत्यों के विषय में समझा जा सकता हैं। आहारचर्या :
पशुओं में प्रवृत्ति की अपेक्षा से असत्य भाषण की प्रवृत्ति नहीं होती और (क्षुद्र जन्तुओं को छोडकर) परिग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं होती। पशुओं की पशुता का तात्पर्य केवल गम्यागम्य विवेक का अभाव हैं - अर्थात् पशुओं में मैथुन विषयक विशेष नियमों का पालन नहीं किया जाता। इसलिए मनुष्य जाति के लिए ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ धर्म बताया गया है। ब्रह्मचर्य में भी मुनियों के तो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य आवश्यक है किन्तु श्रावकों को अवस्थानुसार पाक्षिक ब्रह्मचर्य एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य दोनों का विधान हैं। मैथुन सेवन में भी लौकिक आचार का पालन तो अनिवार्य ही हैं। लोकोत्तर धर्म :
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का सम्मिलित स्वरुप रत्नत्रय लोकोत्तर धर्म कहा गया । भिन्न-भिन्न आचार्योंने सम्यग्दर्शन को भिन्न-भिन्न प्रकार से निरुपित किया है। आचार्य समन्त भद्रने श्रावकचारा में सुदेव सुशास्त्र और सुगुरु में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, बताया हैं तो आचार्य उमास्वातिने तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन निरुपित किया है। वस्तुतः श्रावक सुदेवादि के श्रद्धान के मार्ग से यथावस्थित तत्त्व यथावत् को जानकर श्रद्धा करता है। इसलिए दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, केवल मुनिधर्म की अपेक्षा स्थूलता है । अथवा सुदेवादि का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्दर्शन है तो तत्त्वार्थ श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन ।
सम्यग्दर्शनपूर्वक ज्ञान को सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र को सम्यक् चारित्र नाम दिया जाता है। यद्यपि तीनों के आचरण में अनेक सोपान हैं।
दैनिकचर्या और धर्म :
श्रावक की दैनिक चर्या अनेक विध आरम्भ से युक्त होती है इसलिए जो अष्टादश आचार स्थान श्रमण के लिए उपदिष्ट हैं उनमें से अनेक अंशों का पालन श्रावकों में हो हीं नहीं पाता, अहिंसा के माध्यम से इसे समझा जा सकता है। अहिंसा स्वाभाविक रुप सेतो सबमें विद्यमान रहती है लेकिन जैसे ही जीव आरम्भयुक्त होता है हिंसा भी प्रारंभ हो जाती है। दन्तधावन से लेकर पूरी दिनचर्या में अनेक स्थावर जीवों का घात श्रावक के हाथ से होता रहता है, और उद्योग (कृषि, पशुपालन आदि पारम्परिक और आधुनिक भी) में अनेक सूक्ष्म - बादर त्रस जीवों का घात होता रहता है। सारांशतः आरम्भी, संकल्पी, उद्योगी और विरोधी इन चार हिंसाभेदों में से
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मुनियों की आहार चर्या अत्यन्त कठोर है जैसा कि पूर्व के परिच्छेद में यथास्थान वर्णित किया गया है। जबकि श्रावकों को मात्र अभक्ष्य वर्जन आदि का विधान है। एक विशेष तथ्य जो कि बोधगम्य है वह यह है कि जहाँ साधु को नियमतः भिक्षावृत्ति से ही भोजन ग्रहण करने का अभिप्राय है वहीं पर श्रावक को भिक्षावृत्ति न करने का अभिप्राय हैं। 'भिक्षुक/भिक्षु' शब्द मात्र इसीलिए श्रमण के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं कि वह भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करे । दूसरे यह भी प्रतीत होता है कि श्रमण- श्रमणी दोनों को ही यही विधान अनेक विधि - निषेधों के साथ तो है ही साथ ही साथ यह भी कि भिक्षावृत्ति आहार प्राप्ति के लिए ही होनी चाहिए एवं संयमोपकरण प्राप्ति के लिए भी। यह तो श्रावक का कर्तव्य है कि वह संयमोपकरणों
देखते हुए आग्रहपूर्वक पूछते हुए उनके बदले नये उपकरण (रजोहरण, वस्त्र, शास्त्र आदि) श्रमण श्रमणी को दान करें। षड् आवश्यक :
श्रावकाचार के अनुसार श्रावकों के निम्नांकित छह दैनिक सम्पादनीय आवश्यक कार्य है - देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान । यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो क्रियापरक आचार में देवपूजा सबसे प्रिय आचरण हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार की नित्य नैमित्तिक देवपूजाएँ श्रावकों द्वारा आयोजित की जाती हैं। श्रमण यदि वहाँ उपस्थित हो तो सहभागी होता है। गुरूपासना दूसरे क्रम पर हैं। श्रावक जब गुरु के सम्पर्क में आये या भ्रमण करते हुए गुरू (आचार्य, उपाध्याय, साधु) जब श्रावक के सम्पर्क में आये तभी सक्रिय गुरूपासना हो जाती है। स्वाध्याय दुःसाध्य सा प्रतीत होता है, कारण प्रथम तो शब्दार्थ का बोध नहीं होता, दूसरे चित्तवृत्ति का निरोध नहीं हो पाता, एकाग्रता नहीं आ पाती इसीलिए स्वाध्याय को आवश्यकों में गिना गया है जिससे श्रावक निरन्तर तत्त्वज्ञान में प्रयत्नशील रहें।
संयम और तपों के आचरण में श्रावक यथाक्रम से आगे बढ़ पाता है। शिक्षाव्रतों के माध्यम से और गुणव्रतों के माध्यम से श्रावक को निरन्तर इनका अभ्यास कराया जाता हैं। इसी प्रकार दान को भी आवश्यक नित्य कार्य प्रतिपादित किया गया हैं।
दान और त्याग में विशेषता है। श्रमण तो प्रव्रज्या के समय ही अकिञ्चन होकर अपरिग्रही हो जाता है; उसके पास भाव त्यागधर्म ( कषाय आदि के त्याग की निरन्तर भावना) के अतिरिक्त द्रव्य त्याग हेतु शेष बचा ही नहीं होता इसलिए श्रमण भाव त्यागधर्म का निरन्तर आचरण करते हैं। दूसरी ओर श्रावक (मनुष्य जाति का ) सांसारिक स्वभाव के अनुरुप परिग्रही होता है। प्रत्येक जीव तीनों लोकों का स्वामी होना चाहता है और यथासम्भव परिग्रह करता भी हैं। जबकि मुक्ति का मार्ग अपरिग्रह (परिग्रह से मुक्ति) से ही आरम्भ होता है इसलिए उपदेश किया गया है कि पहले तो श्रावक अपने परिग्रह का प्रमाण निर्धारित करे कि वह इतने द्रव्य परिग्रह से अधिक संचित नहीं करेगा। जबकि वह आजीविकोपार्जन में सतत लगा रहता है।
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