Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 401
________________ 9. [352]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देकर तथा जुआ, शिकार आदि अनर्थकारी कार्यों में आनंद मनाना तथा उदारचित्त होने से स्वपर-उपकार में समर्थ होता है, अवसर प्राप्त हर्ष कहलाता है। किसी की उन्नति देखकर कुढ़ना, उससे डाह करना होने पर शासन प्रभावना करने पर सभी को आनंद प्रदान करता हैं। मत्सर है। ये छहों हानिकारक होने से इनका त्याग करना चाहिए ।39 साथ ही तप, अभिग्रहादि में अग्लान अर्थात् अदीनवृत्ति से रहता 35. इन्द्रिय-समूह को वश में करने में तत्पर : है जिससे धर्म की सम्यगाराधना होती है अतः श्रावक 'अक्षुद्र' होना सद्गृहस्थ को अपने इन्द्रिय-समूह को यथोचित मात्रा में चाहिए। वश में करने का अभ्यास करना चाहिए। जो इन्द्रियों की स्वच्छंदता 2. रुव (स्पवान्) :का त्याग करता है, वही व्यक्ति महासंपति को प्राप्त करता हैं।40 श्रावक स्पष्ट पञ्चेन्द्रिययुक्त, संपूर्ण अङ्गोपाङ्गयुक्त, कान; मुख; श्रावक के 21 गुण" : बधिरादि दोष रहित, प्रशस्त आकारवान, सामर्थ्ययुक्त शरीरवान, तपः 1. अक्षुद्र - गंभीरता युक्त । संयमादि अनुष्ठान योग्य सुन्दर संहनन युक्त, उत्तमकुलोत्पन्न, सुगुण 2. रुपवान् - संपूर्ण अङ्गोपाङ्गयुक्त और मनोहर आकारवान् युक्त होना चाहिए। 3. प्रकृति सौम्य - विश्वसनीय रुपयुक्त, पाप व्यापार से रहित उपरोक्त प्रकार से रुपवान श्रावक के द्वारा सुंदर धर्माराधना सुखयुक्त करने पर धर्म की प्रभावना होती है, जिससे तीर्थ/शासन की उन्नति लोकप्रिय - लोकविरुद्ध कार्य का त्याग करनेवाला होती हैं। 5. अक्रूर - क्लिष्ट अध्यवसाय रहित प्रायः कदाचित् शेष सद्गुण होने पर कुरुपता भी धर्म की भीरु - पाप से डरनेवाला प्रशंसा करवाती है, तथापि 'आकृतिः गुणान् कथयति' इस नियम अशठ - सदनुष्ठाननिष्ठ सुकृतलीन के अनुसार कुरुप श्रावक 'मध्यम' माने जाते हैं। दाक्षिण्ययुक्त (सदाक्षिण्य) - स्वकार्य का त्याग करके भी 3. पगइसोम्म - प्रकृति सौम्य :परोपकार रसिक, सत्कार्य हेतु अन्य के द्वारा प्रार्थना करने श्रावक प्रकृति सौम्य अर्थात् स्वभाविक रूप से आनंदकारी पर प्रार्थना भङ्ग नहीं करनेवाला विश्वसनीय आकृतिवान, हिंसा-चोरी आदि पाप कर्मो से और पाप लज्जालु - लज्जावान् - अकृत्य की बात से शर्मिंदा होने व्यापार से रहित, सुखपूर्वक सेवन योग्य अर्थात् क्लेशरहित और उपशम/ के स्वभाववाला प्रशम कारक होना चाहिए। 10. दयालु (दयावान्) - जीवदया पालक 4. लोगप्पिअ - लोकप्रिय :11. मध्यस्थ - राग-द्वेष रहित बुद्धिवाला, समदर्शी __ श्रावक सदाचरण, निंदा, जुआ, चोरी, आदि लोक विरुद्ध 12. सौम्य दृष्टि - दर्शन मात्र से जीवों में प्रीति उत्पादक का त्याग, दान, विनय (उचित आदर-सत्कार), शील (सदाचार) से 13. गुणरागी - गुणानुरागी, गुणपक्षपाती परिपूर्ण होने से लोकप्रिय होता है। कहा भी है - इससे लोकविरोध 14. सत्कथक - सद्वाणीकथक नष्ट होता है। दान से यश प्राप्त होता है, वैर नष्ट होता है, अन्य सुपक्षयुक्त - सदाचारी परिवारयुक्त लोग भी भाई जैसा व्यवहार करते हैं। विनयपूर्वक मधुर वचन से 15. सुदीर्धदर्शी - परिणाम के पर्यालोचन (दीर्धविचार) पूर्वक कार्य व्यक्ति संसार में लोकप्रियत्व प्राप्त करता है। सुशील कीर्ति, यश, करनेवाला सर्वजनवल्लभता और परलोक में सद्गति को प्राप्त करता है ।45 16. विशेषज्ञ - विवेकी श्रावक के लोकप्रिय होने से अन्य लोग धर्म के प्रति बहुमान 17. वृद्धानुग - ज्ञानी, वयोवृद्ध और अनुभवियों का अनुकरण और आंतरिक प्रीति धारण करते है जो सम्यग्दर्शन/बोधिजीव का कारण करनेवाला है। और शुद्ध धर्म प्रान्ते मोक्षफलरुप सिद्धि प्राप्त करवाता हैं। 18. विनीत - गुरुजनों का गौरव (बहुमान) करनेवाला 5. अकूर/अक्कूर (अक्रूर) :19. कृतज्ञ - दूसरों के द्वारा स्वयं के प्रति किये गए अत्यल्प श्रावक 'अक्रूर' यानी प्रसन्न चित्तवाला होता है अर्थात् क्लिष्ट उपकार को भी नहीं भूलनेवाला अध्यवसाय, रौद्र (भयजनक) आकार, ईर्ष्या, परदोषदर्शक या 20. परहितकारी - स्वभाव से ही परोपकारी परछिद्रान्वेषण, लंपटता आदि दोषों से रहित होता है। क्योंकि इन 21. लब्धलक्ष्य - वन्दनादि धर्मकार्य अनुष्ठान की शिक्षायुक्त दोषों के होने पर धर्म की आराधना सम्यग् रुप से नहीं हो सकती। (पूर्वभवाभ्यस्त) करना। 'अक्रूर' होने पर ही श्रावक सम्यकाराधक हो पाता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र 39. अ.रा.पृ. 1/761 सूरीश्वरजीने श्रावक के गुणों का वर्णन निम्नासुर किया हैं - 40. अ.रा.पृ. 7/1458-59,4/2424 1. अक्खु द्द (अक्षुद्र) : 41. अ.रा.पृ. 4/2727-28; प्रवचन सारोद्धार-269 द्वार; धर्मरत्नप्रकरण-370 372 श्रावक क्षुद्रता अर्थात् तुच्छता, क्रूरता, दरिद्रतादि से रहित 42. अ.रा.पृ. 1/150 अर्थात् गंभीर, निपुणबुद्धि, अक्रूर और उदारचित्त होना चाहिए। गंभीर 43. अ.रा.पृ. 6/575 श्रावक ही धर्म को प्राप्त/ग्रहण कर सकता हैं। निपुण-सूक्ष्म बुद्धिमान् 44. अ.रा.पृ. 5/71; धर्मसंग्रह 1/10; धर्मरत्न प्रकरण 1/3; प्रवचन सारोद्धारहोने से उसे समझ सकता है, अक्रूर होने से वैर-विरोध से दूर रहता 239 द्वार 45. अ.रा.पृ. 6/722; धर्मरत्न 1/1-4 है जिससे श्रावक के कारण लोग धर्मद्वेष या धर्म की निंदा न करे। ___46. अ.रा.पृ. 1/129; धर्मसंग्रह-12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524