Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [363]] सूक्त मुक्तावली में भी कहा है कि, "गुणो का सागर जो 36. तीर्थ/जैन संघ में प्रभावना :संघ संसार के प्रति उदासीन होकर मुक्ति के लिये लालायित है,
जिससे तिरा/पार उतरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते हैं। वह चार जिसे तीर्थ कहते है, जो अप्रतिम पावन है, जिसे तीर्थंकर भी नमस्कार प्रकार का हैंकरतेहै, जिससे सज्जनों का शुभ/मंगल होता है, जो सद्गुणों का (1) नाम तीर्थ - जीवाजीव विषयक भेद रुप या तीर्थ के नाम । आकर है, जिसकी सेवा से लक्ष्मी-कीर्ति-प्रीति-सुमति एवं परंपरा (2) स्थापना तीर्थ - साकार-अनाकार भेद से जिस पदार्थ में से मुक्ति की भी प्राप्ति होती है, जिसकी भक्ति का मुख्य फल अहंदादि या जिस स्थान पर तीर्थ की स्थापना की गई हो। पदवी एवं देवेन्द्र-चक्रवर्ती आदि प्रासंगिक फल माने जाते है वैसे (3) द्रव्य तीर्थ - नदी-समुद्रादि में उतरने का निश्चित स्थान जैसे श्री संघ की कल्याणकामी पुरुष सेवा करते हैं।164
मागध, वरदाम आदि या घाट, ओवारा आदि। 35. पुस्तक/जिनागम लेखन करवाना :
(4) भाव तीर्थ - प्रवचन या साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप जिनागमों से ही हेय-उपादेय, हान-उपादानरुप सकल
चतुर्विध श्री संघ भावतीर्थ है जो सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र योगमार्गोपयोगी व्यवहार एवं अतीन्द्रिय फलविषयक अनुष्ठानों के विषय के द्वारा भव-समुद्र से पार (मोक्ष) पहुँचाते हैं ।172 में ज्ञान होता हैं ।165 अतीन्द्रिय अर्थो की सिद्धि में शास्त्र (आगम)
यद्यपि जिन प्रवचन/शासन शाश्वत होने से, तीर्थंकर भाषित ही प्रमाण माने जाते हैं।166 आगम से परलोकादि का एवं परस्वरुप होने से, देव दानवों के द्वारा सेवित होने से स्वयं दीप्तिमान है तथापि का ज्ञान होताहैं।167 भव्यात्माओं को समाधि में प्रतिकूलता होने पर भावतीर्थ अर्थात् साध्वादि रुप चतुर्विध संघ में श्रावक स्वयं के सम्यग्दर्शन विचिकित्सा में मार्गदशन करता हैं । 168 आगम की आराधना के द्वारा की विशुद्धि के लिए धर्म कथा, प्रतिवादी विर्जय, दुष्कर तपश्चर्या, ही श्रुत चारित्र रुप धर्म होता हैं।169 जिनागम ही कुशास्त्र जनित गुरु प्रवेशोत्सव, संघ का बहुमान-सत्कार आदि प्रभावना (सिक्के, मोदक, संस्कार रुपी विष को दूर करने में मन्त्र, धर्माधर्म कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, फल, मिश्री या अन्य उचित देयवस्तु वितरित करना), स्वामि-वात्सल्य पेयापेय, गम्यागम्य, सारासारादि के विवेचन में अंधकार में दीपक, (संघ भोजन), आदि जिस गुण में स्वयं की अधिकता हो उससे समुद्र (भव समुद्र) में द्वीप, रेगिस्तान में कल्पतरु की तरह दुर्लभ जिन शासन या तीर्थ (संघ) की उन्नति और उद्भावना (प्रख्याति) हैं। 'जिन' का स्वरुप भी आगम प्रमाण से ही निश्चित किया जाता के कार्य करें - और सर्वशक्तिपूर्वक जिनशासन की निंदा या मलिनता हैं ।170 जिनागमों को बहुमान करने से देवगुरुधर्मादि का भी बहुमान के कार्य को प्रतीकार सहित सर्वथा रोकना 'तीर्थ प्रभावना' कहलाती किया माना जाता है। केवलज्ञानी के द्वारा भी जिनागम प्रमाण माने हैं।173 यह मोक्ष का बीज और सम्यक्त्व का अङ्ग होने से अवश्य जाते हैं अत: जिनवचन का बहुमान करनेवाले श्रावकों के द्वारा न्यायाजित करने योग्य हैं ।174 धन से, विशिष्ट पत्रों पर सुंदर, शुद्ध अक्षर विन्यास पूर्वक जिनवचन को लिखवाना चाहिए। जिनागमों को पढनेवालों का वस्त्र-भोजन
164. सूक्त मुक्तावली-21, 22. 23. 24
165. अ.रा.पृ. 2/87; योगबिन्दु-239 पुस्तक आदि वस्तुओं से भक्तिपूर्वक सम्मान करना चाहिए। तथा
166. अ.रा.पृ. 2/88; द्वात्रिशद् द्वात्रिशिका 23/13 लिखित पुस्तकों को संविज्ञ-गीतार्थो को बहुमानपूर्वक व्याख्यान हेतु 167. अ.रा.पृ. 2/88; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका 16/25-26; नंदीसूत्र, गाथा 3 की प्रदान करना चाहिए और प्रतिदिन पूजा (द्रव्य, धन के द्वारा ज्ञान
168. अ.रा.पृ. 2/883; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका 14/30 पूजा) पूर्वक श्रवण करना चाहिए।
169. अ.रा.पृ. 2/89, 4/2719-20-21; षोडशक 2/12 जिनवचन लिखवाने से वह मनुष्य दुर्गति, गूंगापन, जडता,
170. अ.रा.पृ. 2/89 बुद्धिहीनता आदि को प्राप्त नहीं होता और जो जिनवचन लिखवाता ___171. अ.रा.पृ. 5/1122 है, व्याख्यान करवाता है, पढता है, पढाता है, सुनता है, उनकी सुरक्षा 172. अ.रा.पृ. 4/2242-43-45; विशेषावश्यक भाष्य-1026, 1027, 1032,
1033, 1380 विधि में आदर करता है वह मनुष्य मर्त्य-देव एवं मोक्ष के सुखों
173. अ.रा.पृ. 5/438, 439 को प्राप्त करता हैं। अतः सुश्रावक को पुस्तक । जिनागम लेखन
174. अ.रा.पृ. 5/439, 440; हारिभद्रीय अष्टक-23/7 अवश्य करवाना चाहिए।
टीका
'एसो दोसो खु मोहस्स आया नाणसहावी, दंसणसीलो विसुद्धसुहस्वो।
सो संसारे भमई, एसो दोसो खु मोहस्स ॥1॥ जो उअमुत्तिअकत्ता, असंगनिम्मलसहावपरिणामी। सो कम्मकवयबद्धो, दीणो सो मोहवसगत्ते ॥2॥ ही दुक्खं आयभवं, मोहमहऽऽप्पाणमेव धंसेई। जस्सुदये णियभावं, सुद्धं सव्वं पि नो सरई ॥3॥
- अ.रा.पृ. 6/456
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