Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 385
________________ [336]... चतुर्थ परिच्छेद • आलस्य का त्याग होता है। • कर्म-मल का विशोधन होता है। • दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है । • मिथ्यादृष्टियों में भी साम्यभाव उत्पन्न होता है। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तपः समाधि के चार भेद : सम्पूर्ण जैनागमों के अनुरूप ही राजेन्द्र कोश में तपः समाधि को प्राप्त करने के लिए भौतिक प्रयोजनवश तपश्चरण का निषेध करते हुए एकान्त कर्मक्षय के उद्देश्य से तप का विधान किया गया है। तपः समाधि चार प्रकार की होती है, यथा -1. इहलोक के लिए तप न करे, 2. परलोक के लिए तप न करे, 3. कीर्ति 103, वर्ण 104, शब्द 105 और इहलोक 106 (प्रशंसा) के लिए भी तप न करे, 4. कर्मनिर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप न करे107। इसका तात्पर्य यह है कि साधक को कर्म-क्षय करने की दृष्टि से ही पूर्वोक्त बारह प्रकार के तपों का आचरण करना चाहिए "निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा ।" प्रस्तुत उद्धरण में साधक को पौगलिक प्रतिफल की आशा/आकांक्षा से रहित (निष्काम) तप करने का संकेत किया गया है। इसी संदर्भ में कहा गया है - "नो पूयणं तवसा आवहेज्जा ।'' 108 -अर्थात् तप से पूजा-प्रतिष्ठादि की कामना न करे, क्योंकि सम्मानपूजा प्रतिष्ठा से तप नष्ट हो जाता है। 109 अतः तपश्चरण करने का एकमात्र पवित्र लक्ष्य ध्येय यही होना चाहिए कर्म निर्जरा और आत्मशुद्धि । निर्जरा का और मोक्ष का प्रमुख साधन तप ही हैं। - • मुक्ति का मार्ग प्रकाशन होता है। • तीर्थंकर आज्ञा की आराधना होती है। • देह - लाघव प्राप्त होता है । • शरीर - स्नेह का शोषण होता है। • रागादि का उपशम होता है। • आहार की परिमितता होने से निरोगता बढती है। • संतोष बढ़ता है। 99 आन्तरिक तपस्या आत्मशोधन के लिए महत्त्वपूर्ण है, इसके द्वारा जीवन में निम्न शीलगुणों का वैशिष्टय आता है : भावशुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिकदृढता आदि प्रायश्चित के परिणाम हैं। ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् - आराधना आदि विनय के परिणाम हैं। चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन- वात्सल्य आदि वैयावृत्य के परिणाम हैं। प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, सन्देह-नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय के परिणाम हैं। 100 कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों बाधित न होना; सर्दी-गर्मी - भूख-प्यास आदि शरीर को प्रभावित करनेवाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान के परिणाम हैं। 101 निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। 102 Jain Education International 99. मूलाराधना 3/237-244 100. तत्त्वार्थ 9/22-25, श्रुतसागरीय वृत्ति 101. ध्यानशतक, 105-106 102. तत्त्वार्थ 9/26. श्रुतसागरीय वृत्ति 103. सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः । - अ. रा. पृ. 4 / 2206; दशवैकालिक सटीक - 9/4 104. एक दिग्त्यापी वर्ण: । वही 105. अर्थदिग्त्यापी शब्दः । - वही 106. तत्स्थान एवं श्लाघा वही 107. अ.रा. पृ. 4/2206; दशवैकालिक सटीक - 9/4 108. अ.रा. पृ. 4/2204; सूत्रकृतांग- 1/7/27 109. आपस्तम्ब स्मृति - 10/9 कुतस्तु सौख्यम् द्वे वाससी प्रवरयोषिदपायशुद्धा, शय्यासनं करिवरस्तुरगो रथो वा । काले भिषग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् ॥ ॥ पुष्ट्यर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगैः, सं त्रासदोषकलुषो नृपतिस्तु भुङ्कते । यन्निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, " तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवाऽन्नम् ॥2॥ भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाङ्कुरितेक्षणासु । विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशङ्कितमतेः कुतस्तु सौख्यम् ॥3॥ - अ.रा. पृ. 2/207 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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