Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 389
________________ [340]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (4) 5. सपत्नी (सौतन, शोक्य) समान : जो कटुवचन से साधु की प्रीत का नाश करता हो, ईर्ष्या के कारण साधु के अपराधों को ही कहता हो, एसा साधु के दूषण ही देखनेवाला, अनुपकारी श्रावक 'सपत्नी समान' हैं। 6. आदर्श (दर्पण) समान : जो पदार्थ जैसा होता है, आदर्श (दर्पण) उसे वैसा ही प्रतिबिम्बित करता है, उसी प्रकार आगमों में सन्निहित (कहे हुए) पदार्थों की यथावत् प्ररुपणा करनेवाला श्रावक आदर्शवत् हैं। 7. पताका (ध्वजा) समान : जैसे वायु से सब कुछ (घेरे हुए बादल आदि) नष्ट हो जाते हैं/बिखर जाते हैं, वैसे जिसकी अनवस्थित बोध/विचित्र देशना होती है वह श्रावक 'ध्वजा/पताका समान' हैं। 8. स्थाणु (ढूंठ) समान : गीतार्थ साधु आदि की देशना के समय भी किसी भी कदाग्रह के कारण जो अन्यमनस्क होकर अपनी प्रकृति के कारण बोध प्राप्त नहीं करता, वह श्रावक 'स्थाणु समान' हैं। 9. खरकंटक (खैर के काँटे के समान : जो जानते हुए भी स्वयं के कदाग्रह या दुराग्रह का त्याग नहीं करता, अपितु दूसरे प्रज्ञ लोगों को भी दुर्वचन रुपी काँटों से बींधता है, वेदना पहुँचाता है, वह 'खरकण्टक समान' श्रावक हैं। अभिधान राजेन्द्र में आचार्यश्रीने धर्मरत्र प्रकरण को उद्धत करते हुए भावश्रावक के निम्नलिखित छह गुण बताये हैंभावश्रावक के छः क्रियागत गुण: भाव श्रावक के छह क्रियागत गुण हैं (इनमें से प्रत्येक के जनक-समर्थक अवान्तर अनेक गुण हैं) (1) कृत-व्रत-कर्मा (2) शीलवान् (3) गुणवान् (4) ऋजु-व्यवहारी (5) गुरु-शुश्रूषा और (6) प्रवचन-कुशल 125 कृत-व्रतकर्मा - व्रतकर्म का आराधक बनने के लिए - (1) व्रतधर्म श्रवण (2) सुनकर व्रत के प्रकार, अतिचार आदि की जानकारी (3) पूरे अथवा अल्पकाल के लिए व्रतधर्म का स्वीकार और (4) रोग या विघ्न में भी दृढता पूर्वक धर्म पालन। -इन चारों में उद्यमी होने वाला वह व्यक्ति कृतव्रत-कर्मा हैं।26 शीलवान् - चरित्रवान् बनने के लिए (1) आयतन-सेवन अर्थात् सदाचारी, ज्ञानी तथा सुंदर श्रावक धर्म के पालन करने वाले सार्मिकों के सानिध्य में ही रहना चाहिए, क्योंकि इससे दोषों में कमी तथा गुणों में वृद्धि होती रहती हैं। (2) बिना काम दूसरों के घर नहीं जाना (इसमें भी दूसरे घर में अकेली स्त्री हो तो वहाँ बिलकुल नहीं जाना, क्योंकि कामासक्ति या कलंक लगने की संभावना हैं। (3) कभी भी उद्भट यानि औचित्यहीन वेष धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकी इसमें हृदय की विह्वलता है, अशान्तता है। धर्मात्मा तो शांत ही शोभायमान होता है। (4) असभ्य या विकारी वचन नहीं बोलने चाहिए, क्योंकि इससे प्रतिष्ठा-हानि या कामराग जागृत होता हैं। (5) बच्चों जैसी चेष्टाएँ नहीं करना चाहिए, और बालक्रीडा, जुआँ, व्यसन, चौपड आदि नहीं खेलना चाहिए क्योंकि वे मोह के लक्षण हैं व अनर्थदंड हैं। (6) दूसरों से मधुर वाणी से काम लेना चाहिए, क्योंकि शुद्ध धर्मवाले को कर्कशवाणी शोभा नहीं देती। गुणवान् - गुणवान् बनने के लिए (1) वैराग्य-वर्धक शास्त्रस्वाध्याय-(अध्ययन-चिन्तन-पृच्छा-विचारणादि) में उद्यमी रहना। (2) तप-नियम-वंदन आदि क्रियाओं में उद्यमशील रहना (3) बडों व गुण-संपन्न आदि का विनय करना (उनके आने पर उठना, सामने जाना, आसन पर बिठाना, कुशल पूछना, विदा करने जाना आदि) (4) कहीं भी अभिनिवेश अर्थात् दुराग्रह न रखना, हृदय में शास्त्र के कथन को मिथ्या न मानना, तथा (5) जिनवाणी के श्रवण में सदा तत्पर रहना - ये पाँच अवान्तर गुण आवश्यक हैं, क्योंकि इनके बिना सम्यक्त्वरत्न की शुद्धि नहीं होती 128 ऋजुव्यवहारी - ऋजुव्यवहारी बनने के लिए - (1) मिथ्या या मिश्रित अथवा विसंवादी (स्वतः विरुद्ध) वचन न बोलना, किन्तु यथार्थ वचन कहना, जिससे श्रोता को भ्रम न हो, अबोधिबीज न हो और असत् प्रवृत्ति से भववृद्धि न हो। श्रावक के लिए सरल व्यवहारी बनना ही समुचित हैं। (2) स्वयं की प्रवृत्ति अथवा व्यवहार दूसरों को ठगनेवाला न होकर निष्कपट हो, वैसा ही करना चाहिए (3) भूलते हुए जीव की भूलों के अनर्थ बताना और (4) सबके साथ हृदय से मैत्रीभाव-स्नेहभाव रखना।29 गुरु-शुश्रूषा - गुरु-शुश्रुषु-बनने के लिए (1) गुरु के ज्ञानध्यान में विघ्न न हो व अच्छी सुविधा रहे -इस प्रकार उनकी स्वयं समयोचित अनुकूल सेवा करनी चाहिए। (2) गुरु के गुणानुवाद करके दूसरों को उनके प्रशंसक/सेवक बनाना चाहिए। (3) उनके लिए स्वयं या दूसरों से आवश्यक औषधि आदि का प्रबंध करना, कराना और (4) सदा बहुमानपूर्वक गुरु की इच्छा का अनुसरण करना चाहिए। प्रवचन-कुशल - प्रवचन-कुशल बनना अर्थात् (1) सूत्र, अर्थ, उत्सर्ग, अपवाद, भाव और व्यवहार में कुशल होना चाहिए। अर्थात् (1) श्रावक के योग्य सूत्र व शास्त्रों को पढना (2) उनके अर्थ सुनना, समझना (3-4) धर्म में 'उत्सर्ग मार्ग' अर्थात् मुख्यमार्ग कौन सा है ? उसी प्रकार कैसे द्रव्य (61 (2) 26. तत्या 25. कयवयकम्मो | तह सीलयं च 2 गुणवंच 3 उज्जववहारी 41 गुरुसुस्सूरसो 5 पवयण-कुसलो 6 खलु सावगो भावे ।।।। - अ.रा.पृ. 7/782 तत्थायण्णण | जाणण 2 गिणहण 3 पडिसेवणेसु 4 उज्जुत्तो। कयवकम्मो चउहा, भावत्थो तस्सिमो होई ।।2।। - वही 27. आययणं खु निसेवइ । वज्जइ परगेह पविसणमकज्जे 2 । निच्चमणुब्भडवेसो 3 न भणई सविआरवयणाई ।।3।। परिहरइ बालकीलं 5 साइह कज्जाई महुरनीईए 6 । इअ छव्विहसीलजुओ, विन्नेओ सीलवतोऽत्था 1411 - अ.रा.पृ. 7782 28. सज्जाए । करणम्मि अ2 विणयम्मि अ 3 निच्चमेव उज्जुतो। सव्वत्थऽणभिनिवेसो 4, वहइ रुई सुट्ठ जिणवयणे ।।6।। - वही 29. अ.रा.पृ. 7767 30. अ.रा.पृ. 3/946, 7/107, 7/784; धर्मरत्न प्रकरण-49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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