Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
3. काल - आशातना पाराञ्चित प्रायश्चित जधन्य से छः मास और उत्कृष्ट से एस वर्ष तथा प्रतिसेवना पाराञ्चित प्रायश्चित जघन्य से एक वर्ष और उत्कृष्ट से 12 वर्ष तक का होता है । 150
4. तप - पाराञ्चित प्रायश्चित वहन करनेवाले (पाराञ्चिक) आचार्य जिनकल्पी की तरह रुक्षाहार (आयंबिल) ग्रहण करते हैं। दिन के तृतीय प्रहर में विहारादि समस्त कार्य समाप्त कर चतुर्थ प्रहर में ध्यानादि करते हैं। जो आचार्य संघाज्ञा से या गुर्वाज्ञा से पाराञ्चित प्रायश्चित अंगीकार करते हैं वे यह तप या तो वेशगोपन करके गुप्तरुप से या अन्य आचार्य के पास जाकर करते हैं जिससे स्वगच्छ के साधुओं में उनकी अवज्ञा, आशातना, अनादर न हो, जिससे उनके स्वगच्छीय साधु / शिष्यादि स्वच्छंदी न बने 1151
तपस्वी पाराञ्चिक आचार्य जिनकी निश्रा में रहकर प्रायश्चित करते हुए उनसे आधा योजन दूर क्षेत्र में रहते हैं। वहाँ वे आचार्य पाराञ्चिक का दोनों समय अवलोकन करते हैं, उनको सूत्र पोरिसी -अर्थ पोरिसी आदि देते हैं। ग्लानावस्था में उनकी गोचरी-पानी से वैयावृत्त्यादि करते हैं । यदि आचार्य स्वयं किसी कारण से उक्त कार्य नहीं कर सके तो गीतार्थ शिष्य के द्वारा करवाते हैं। 152
अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रायश्चित तप का भेद-प्रभेद सह विस्तृत वर्णन करते हुए आचार्य श्रीने प्रायश्चितदाता के गुण, प्रायश्चित ग्रहण करने की विधि, परिस्थिति आदि का भी निम्नानुसार वर्णन किया है। इन दशों प्रायश्चितों में आलोचना प्रायश्चित प्रथम है और कोई भी दोष गुर्वादि के समक्ष प्रगट करने पर ही उसका विभिन्न रुपों से शुद्धिकरण संभव होता हैं। इन सब विषयों का अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पच्छित्त' और 'आलोयणा' शब्द पर विस्तृत वर्णन किया गया है जो संक्षेप में निम्नानुसार हैंआलोचनादाता की दस विशिष्टताएँ 153 :
जैन वाङ्मय में गंभीर, उदारचेता, बहश्रुत एवं अनुभवी आचार्यों के पास आलोचना लेने का विधान है। आलोचना के अपराधों का श्रवण करनेवाला आलोचनादाता अपने आप में विशिष्टताएँ लिए हुए होना चाहिए । निम्नलिखित गुणों से संपन्न श्रमण आलोचना देने व श्रवण करने योग्य होता हैं
-
आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अप्रवीडक, प्रकुर्वक, परिस्रावी, निर्यापक, अपायदर्शी, प्रियधर्मा और दृढधर्मा । 1. आचारवान - आलोचनादाता ज्ञानाचार-दर्शनाचारादि पंचाचार से संपन्न हो ।
2. आधारवान् - आलोचनादाता अवधारणासंपन्न अर्थात् स्मृतियुक्त हो। चूँकि गंभीर दोषों के दो-तीन बार श्रवणकर तदनुरूप उसका प्रायश्चित दिया जाया है, अन्यथा उसमें न्यूनाधिकता हो सकती हैं। 3. व्यवहारवान् - आलोचनादाता आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत- इन पाँचों व्यवहारों का ज्ञाता हो। इसके अतिरिक्त उत्सर्ग-अपवाद, विधि - निषेध, प्रवृत्ति - निवृत्ति आदि का उचित विधि से प्रवर्तनकर्ता हो ।
4. अप्रवीडक - आलोचनादाता आलोचक साधक का संकोच एवं लज्जा दूर कराकर अच्छी तरह से आलोचना करानेवाला हो । 5. प्रकुर्वक आलोचनादाता आलोचक का आलोचित अपराध या दोष का तत्काल प्रायश्चित देकर दोषों की शुद्धि कराने में समर्थ हो । 6. परिस्त्रावी - आलोचनादाता आलोचक के दोषों को अन्य के समक्ष प्रकट करनेवाला न हों ।
-
चतुर्थ परिच्छेद... [321]
7. निर्यापक आलोचकने महा अपराध किया हो, किन्तु शारीरिक अशक्ति अथवा अन्य किसी परिस्थितिवश वह एक साथ सम्पूर्ण प्रायश्चित लेने या करने में असमर्थ हो तो आलोचनादाता उसे थोडा थोडा प्रायश्चित देकर उसकी शुद्धि कराने में समर्थ हों ।
8. अपायदर्शी - यदि आलोचक अपराध करने के पश्चात् आलोचना करने में संकोच करता हो तो आलोचनादाता आगमानुसार पारलौकिक भय एवं अन्य दुष्परिणाम दिखाकर उसे आलोचना लेने का इच्छुक बनाने में निपुण हो ।
9. प्रियधर्मा - आलोचनादाता प्रियधर्मी हो ।
10. दृढधर्मा - आलोचनादाता आपत्तिकाल में दृढधर्मी हों ।
Jain Education International
इस प्रकार आलोचनादाता में सभी गुण होना नितान्त आवश्यक हैं, जिससे आलोचक साधक, विश्वास एवं प्रसन्नतापूर्वक आलोचनादाता के पास आलोचना लेकर स्वकृत दोषों की शुद्धि कर सके । आलोचना करने योग्य व्यक्ति :सोही उज्जुभूयस्स, धम्मो
सुद्धस्स चिठ्ठह्न 1154
सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है। अर्थात् माया आत्मा की सरलता को समाप्त कर देती हैं। धर्म तो शुद्ध सरल हृदय में ही टिकता है। जिसने हृदय की कोमलता पायी है, जीवन में सरलता अपनायी है, वही अध्यात्म पथ का पथिक बन सकता है, वही आलोचना कर सकता हैं। आलोचक साधक प्रतिपल सजग, सचेत और विवेकशील रहता हैं।
दस गुणों से संपन्न साधक स्वदोषों की आलोचना करने योग्य होता हैं । वे अग्रलिखित हैं- जातिसंपन्न, कुलसंपन्न, विनयसंपन्न, ज्ञानसंपन्न, दर्शनसंपन्न, चारित्रसंपन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चातापी 1155
उपर्युक्त गुणों पर यदि गम्भीरता से चिन्तन किया जाय, तो विदित होता है कि इनमें से एक-दो गुण भी यदि साधक के जीवन में हों, तो वह पाप की ओर कदम रखने में संकोच करेगा और कदाचित् कदम बढा भी दिया, तो दोष स्वीकार कर प्रायश्चित के लिए अनवरत तैयार रहेगा ।
आलोचना के दस दोष 156
दस आलोयणादोसा पन्नता, तं जहा
अकम्पयित्ता, अणुमाणइत्ता, जं दिट्टं बायरे च सुहुमं वा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तस्ससेवी ॥ आकम्पयिता :
:
प्रसन्न करने की मनोवृत्ति यह आलोचना का प्रथम दोष है। आलोचक साधक पहले आचार्यादि की सेवा-भक्ति करके उन्हें प्रसन्न करता है तदनन्तर उनसे दोषों की आलोचना करता है, चूँकी वह यह सोचता है कि सेवा आदि से प्रसन्न होने पर गुरु मुझे थोडा
150. अ.रा. पृ. 5/862, 5/867; जीतकल्प-100
151. अ.रा. पृ. 5/863
152. अ.रा. पृ. 5/863, 867
153. अ.रा. पृ. 2/458; भगवतीसूत्र - 25/7; स्थानांग - 10/72
154. अ.रा. पृ. 3/1053; उत्तराध्ययन-3/12
155. अ.रा.पृ. 2/458, 459 एवं 5/187; भगवतीसूत्र- 25/7; स्थानांग - 10/71 156. अ.रा. पृ. 2/460, 461, 5/187; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 1/277; भगवती आराधना मूल 563 से 602
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org