Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 372
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आलोचना वीतरागी गुरु के समक्ष ही की जानी चाहिए। योग्य आचारों को जानने वाले आचार्यो के पास ही सूक्ष्म अतिचार विषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिए।"" । आलोचना सदा परसाक्षी से ही होती हैं। गीतार्थ आचार्य को भी आलोचना परसाक्षी से ही लेनी चाहिए, इसका वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि आचार्य के छत्तीस गुणों से समन्वित एवं श्रेष्ठ ज्ञान व क्रिया व्यवहार आदि में विशेष निपुण श्रमण भी पापशुद्धि, दोषों की आलोचना परसाक्षी से ही करे; अपने आप नहीं। जैसे परम कुशल वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है एवं उस वैद्य के कथनानुसार कार्य भी करता है, इसी प्रकार आलोचक प्रायश्चित - विधि में दक्ष होते हुए भी अपने दोषों की आलोचना प्रकट रूप से अन्य के समक्ष करें, क्योंकि एसा करने से हृदय का सारल्य प्रकट होता है और अन्य को भी शुद्ध होने की प्रेरणा मिलती हैं । 162 प्रायश्चित के लाभ : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रायश्चित के लाभ वर्णन करते हुए कहा है कि जो साधक गुरुजनों के समक्ष मन के समस्त शल्यों (काँटों) को निकालकर आलोचना (आत्म निंदा करता है, उसकी आत्मा सिर का भार उतर जाने के बाद भारवाहक की तरह लघु हो जाती हैं 163 । प्रायश्चित करने से जीव पापों की विशुद्धि करता है एवं निरतिचार / निर्दोष / विशुद्ध बनता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित करनेवाला साधक, मार्ग (मोक्षमार्ग रुप सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र) और मार्ग - फल; - दर्शन- ज्ञान को निर्मल करता है, आचार (चारित्र) और आचारफल (मोक्ष) की आराधना करता हैं 164, भाररहित होकर सद्ध्यान में रमण करता हुआ सुखपूर्वक विचरण करता है 165 और आगे चलकर कृतपाप के पश्चाताप से वैराग्यवान् होकर क्षपक श्रेणी प्राप्त करता हैं।66 जिससे जीव को केवलज्ञानादि और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। विनय तप : अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार प्रापणार्थक 'णीञ्' धातु में 'वि' उपसर्ग जोडने पर विनय शब्द बना है 167। अभिधान राजेन्द्र कोश में विनय की अनेक परिभाषाएँ संग्रहीत की गयी हैं(1) जिससे आठ प्रकार का कर्म दूर होता है उसे 'विनय' कहते है 168 | (2) मोक्ष के लिए जो चतुर्गति रुप संसार और आठों कर्मों का विनयन (नष्ट) करता है, इसलिए उसे 'विनय' कहते हैं 169 । (3) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने के कारण वह विनय कहलाता है, एसा विद्वानों का अभिप्राय है और वह मुक्तिफलदाता धर्म-वृक्ष का मूल है 170 । (4) सकलक्लेशोत्पादक आठ प्रकार के कर्मों का जो नाश करता है, वह विनय है 171 | (5) विनय धर्म का मूल हैं 172 | (6) धर्म विनयमूलक हैं 173 | (7) विनय ही तप हैं 174 | विनय का व्यवहारिक स्वरुप : अपने से बड़े एवं गुरुजनों का देशकालादि की अपेक्षा से यथोचित (यथायोग्य) सत्कार करना, विनय है। गुरुजनों को आते देखकर खडे होना एवं उन्हें अञ्जलिबद्ध प्रणाम, वंदन, आसनदान, Jain Education International चतुर्थ परिच्छेद... [323] भक्ति, सेवा-शुश्रूषा, गुर्वाज्ञापालन करना एवं उनके सामने नम्रतापूर्वक रहना विनय हैं 175 | आचार्य सोमदेवसूरि ने भी कहा है कि व्रत, विद्या एवं उम्र में बड़ों के सामने नम्र आचरण करना विनय है 176 । (1) नम्रतासूचक व्यवहार - अभिधान राजेन्द्र कोश में विनय का नम्रतासूचक स्वरुप बताते हुए कहा है कि शिष्य अपनी शय्या गुरु से नीची रखे, गुरु के साथ चलते हुए अतिनिकट, अतिदूर आगे या सटकर न चले। गुरु से सटकर या आगे या पीठ करके, अतिदूर या घुटने से घुटना टिकाकर नहीं बैठे। पैर लम्बे करके, फैलाकर या पैर के ऊपर पैर रखकर या ऊँचा या बड़ा आसन लगाकर न बैठे। वंदन करते समय नम्र होकर हाथ जोड़कर गुरु को चरण स्पर्श करें 177 गुरुवाणी को शय्या या आसन पर बैठे-बैठे न सुने अपितु गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर भी आसन छोड़कर गुरु के पास जाकर विनयपूर्वक पूछे 78 । आचार्यादि गुरुजनों के द्वारा बुलाये जाने पर कदापि मौन न रहे 179 । आसन पर बैठकर गुरु से प्रश्नादि न पूछे, अपितु उत्कटासन में अंजलि-बद्ध मुद्रा में पूछे180 । से विनीत शिष्य- देश - काल- ऋतु - परिस्थिति, इंगिताकार, चेष्टादि गुरु के अभिप्राय को जानकर तदनुकूल उपाय से गुरु के बिना कहे ही तद्योग्य कार्यों को संपादित करें |8| | शिष्य को लौकिक स्वार्थ को छोडकर ज्ञानादि पञ्चाचारों की प्राप्ति हेतु विनय (गुरु भक्ति) करनी चाहिए 182 । शिष्य गुरु आदि अल्पव्यस्क होने पर भी दीक्षापर्यायादि में जो ज्येष्ठ है, उन सबके साथ विनम्र व्यवहार करें और विनम्र और सत्यवादी बनकर गुरुसेवा में रहते हुए गुर्वाज्ञा का पूर्णतया पालन करें 183 । 161. भगवती आराधना, पृ. 560; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 278 162. अ.रा.पृ. 2/450; गच्छाचार प्रकीर्णक गाथा 12-13; ओघनियुक्ति 794 795 163. अ.रा.पृ. 2/428, 432, 5/316; ओघनियुक्ति 806 164. अ.रा. पृ. 5/856; उत्तराध्ययन-29/19 165. अ.रा. पृ. 3/428; उत्तराध्ययन-29/14 166. अ.रा. पृ. 4/2018 उत्तराध्ययन-29/8 167. अ. रा.पू. 6/1152; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/548 168. अ. रा.पू. 6/1152 169. अ.रा.पृ. 3/523; आवश्यक निर्युक्ति - 867; स्थानांग सूत्र सटीक - 6/531 170. अ. रा.पू. 6/1152; द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका -28 171. अ. रा.पू. 6/1152 172. अ.रा.पृ. 1/696; अंगचूलिका - अध्ययन-5 173. अ. रा.पू. 3/418; बृहदावश्यक भाष्य- 4441 174. अ.रा. पृ. 1/545 प्रश्नव्याकरण - 2/3 175. अ. रा.पू. 6/1152; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 548 176. नीति वाक्यामृत - 11/6 177. अ.रा.पू. 6/1172, 1163; उत्तराध्ययन- 1/18 दशवैकालिक, मूल- 9 / 2/17 178. अ. रा.पू. 6/1163 1172; उत्तराध्ययन-1 /21; दशवैकालिक, मूल-9/ 2/18 179. अ.रा. पृ. 6/1163; उत्तराध्ययन-1/20 180. वही, उत्तराध्ययन- 1/22 181. अ. रा.पू. 6/1172, 1173; दशवैकालिक, मूल-9/2/21, 9/3/1 182. वही, वही 9/3/1 183. वही, वही 9/3/2, 8/41 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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