Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[236]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
5. मुनियों की आचारपरक शब्दावली का समीक्षण
जैनधर्म के मूलमन्त्र नमस्कार मन्त्र में पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, वे पाँच परमेष्ठी इस प्रकार हैं - 1. अरिहन्त (अर्हत् अर्थात् जीवन्मुक्त), 2. सिद्ध (अशरीरी अर्थात् शरीररहित या जीवनमुक्त), 3. आचार्य, 4. उपाध्याय और 5. साधु । इनमें से सिद्ध तो पूर्ण (अर्थात् निश्चय नय से) कृतकृत्य हो चुके होते हैं, साथ ही अरिहन्त भी कृतकृत्य (व्यवहार नय से) हो चुके होते हैं क्योंकि अर्हत् अवस्था के पश्चात् सिद्ध अवस्था अवश्यम्भाविनी है (आयुः कर्म पूरा होते ही अरिहन्त अवस्था के जीव जीवन (शरीरसंयोगी) से मुक्त हो जाते है)। कृतकृत्य हो जाने से अरिहन्त और सिद्ध जीवों को करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। किन्तु आचार्य, उपाध्याय और साधु अवस्था के जीवों को अर्हत् अवस्था पाने के लिए सतत प्रयत्न करना होता है। ये सभी अवस्थाएँ नियम से मनुष्य गति में ही सम्भव हो पाती हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु अवस्था में नियम से महाव्रत होते हैं । महाव्रतों के धारक को सर्वविरत कहा गया है। जो प्राणी अनादि संस्कार के कारण या बलहीनता के कारण या शरीर की पर्याप्ति की हीनता के कारण महाव्रतों का पालन नहीं कर सकते वे अणुव्रतों का पालन करते हुए महाव्रती अवस्था के लिए प्रयत्न करते हैं । अणुव्रती को देशविरत/विरताविरत भी कहा जा सकता है। देशविरति अवस्था मनुष्यों और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंञ्चो में हो सकती है। सर्वविरत अवस्था के जीवों को सामान्यरुप से 'साधु' शब्द से अभिहित किया गया है, जैसा कि चार मंगलों में गाया गया है - चत्तारि मंगलं, अरिहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । साधु अवस्था में भी कार्यविभाजन की दृष्टि से दो विशेष अवस्थाएँ हैं - आचार्यत्व और उपाध्यायत्व।
आचार्य :
कहलाते हैं। जो आगमविधि के अनुसार कदम-कदम 'आचार्य' पद की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश
पर जिनाज्ञा का अनुसरण करते हैं, वे भावाचार्य तीर्थंकर में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है कि 'सूत्र और अर्थ के
के समान होते हैं। अवबोध के लिए मुमुक्षुओं के द्वारा जो आसेवन किया जाये अथवा __ आचार्य का स्वरुप :जिनशासन के लिए उपदेशक होने के कारण उपदेश प्राप्ति के इच्छुकों
आचार्य सूत्रार्थ के ज्ञाता होते हैं, सतत ज्ञान-दर्शन-चारित्र में (आत्माओं) के द्वारा मर्यादापूर्वक (आचार्य-प्रायोग्य विनयपूर्वक) जिनकी उपयोगवान् होते हैं, गणावच्छेद (स्थविर मुनि) आदि को गच्छ के कार्य सेवा/चर्या की जाये अथवा ज्ञानाचारादि पञ्चाचार का पालन जो स्वयं (व्यवस्था) सुपुर्द करने के कारण गच्छ की चिन्ता से मुक्त होते हैं, शुभ करें और अन्य साधुओं को प्रेरणा देकर करावें', अथवा जिनशासनमान्य लक्षणों (शारीरिक) से युक्त होते हैं।15 पदार्थों में युक्तायुक्त विषयक निरुपण में निपुण होने से शास्त्रों (जिनागमों)
आचार्य के लक्षण :का यथावत् उपदेश करने वाले, अथवा मर्यादापूर्वक विहारादि साध्वाचार
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने आवश्यक चूर्णि को का पालन करने/कराने वाले गुरु', पाँच स्थविरों में प्रथम स्थविर,
उद्धृत करते हुए आचार्य के लक्षण बताते हुए कहा है कि "आचार्य अर्थज्ञान के दाता, सूत्र और अर्थ-दोनों के ज्ञाता और शास्त्रोक्त लक्षणयुक्त,
आचारकुशल, संयम, प्रवचन, संग्रह (देशकालानुसार शिष्य, वस्त्रगच्छ में आधारभूत और अर्थ की वाचना देने वाले साधु10 'आचार्य'
पात्रादि का), उपग्रह, अनुपग्रह, कल्प, व्यवहार प्रज्ञप्ति, दृष्टिवाद, कहलाते हैं।
स्वसमय-परसमय (स्वदर्शन-अन्यदर्शन के सिद्धान्त) में निपुण,ओज निक्षेपों के अनुसार आचार्य शब्द के विभिन्न अर्थ :- (शौर्य), तेज, वाणी और यश में अपराजेय, उदार चित्तवाले, क्रोध के
अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार्य' के अनेक प्रकार से भेदप्रभेद दर्शाये हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं
1. अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिशा। नामाचार्य - आचार्य का नाम 'नामाचार्य' हैं।
अट्ठगुणा किदकिञ्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा । गोम्मटसार जीवकाण्ड... स्थापनाचार्य - मूर्ति, चरणपादुका, चित्र, अक्ष, आयरिया (समुद्र में।
अ.रा.पृ. 2/329, आवश्यक बृहवृत्ति-4/37 पर टीका
3. अ.रा.पृ. 2/329, आवश्यक बृहदवृत्ति-4/37 पर टीका 'आयरिया' नामक द्वीन्द्रिय जीव होते हैं, जिसके पृथ्वीकायमय घर
4. वही, आवश्यक नियुक्ति-994, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/241, 242 (निवास) अचित होने पर उसमें 'आचार्य' की स्थापना की जाती हैं) में
5. वही, भगवती सूत्र-1/1 'आचार्य' के रुप में स्थापना (आरोपणा) करना स्थापनाचार्य' हैं ।।।
वही, आवश्यक मलयगिरि-भा.। गाथा 993 आवश्यक चूर्णि-1/993 दव्याचार्य - आचार्य के गुण या आचार रहित आचार्य, मूलगुणरहित या गाथा पर चूर्णि उत्तरगुणरहित आचार्य अभव्य आचार्य, लौकिक शिल्पाचार्य, कलाचार्य, 7. वही, पञ्चवस्तु-13 गाथा की टीका निमित्ताचार्य, और द्रव्यअर्थात धन/अर्थ के निमित्त आचरण करनेवाला 8. वही, धर्मसंग्रह-3/54 'द्रव्याचार्य' हैं।
9. वही, बृहत्कल्प भाष्य-1/3/639 भावाचार्य - भावाचार्य दो प्रकार के हैं - 1. आगमतः 2. नो- 10. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-3/1195 पर टीका आगमतः । नोआगमतः भावाचार्य दो प्रकार के हैं
11. अ.रा.पृ. 4/1693
12. अ.रा.प. 2/330, विशेषावश्यक भाष्य-3191, 3192 (क) लौकिक भावाचार्य - शिल्पाचार्य, कलाचार्य आदि।
13. वही, आवश्यक चूर्णि-अध्ययन-2 विशेषावश्यक भाष्य-3/93-94-95 (ख) लोकोत्तर भावाचार्य - जो स्वयं ज्ञानाचारादि पञ्चाचार का
14. अ.रा.पृ. 2/331, महानिशीथ सूत्र अध्ययन-5 पालन करते हैं, पञ्चाचार पालन का अन्य को उपदेश देते है
15. अ.रा.पृ. 2/333, 347 से 352 और दूसरों से पञ्चाचार का पालन भी कराते हैं; वे 'भावाचार्य'
16. अ.रा.पृ. 2/333, 347 से 352
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