Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [301]
दश कल्प
अभिधान राजेन्द्र में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'कल्प' शब्द के अनेक अर्थ दर्शाये हैं। कल्प :
जैनागमों में आठ वर्ष की उम्र में दीश्रा ग्रहण करने की योग्यता/सामर्थ्य, स्वकार्य करने में समर्थ, वर्णन करना, कल्पना करना, छेदन अर्थ में (उदा. बाल कैंची से छेदने/काटने योग्य (कल्पता) है), करण क्रिया (अपने योग्य आजीविकारुप क्रिया), आचार, उपमा (यथासूर्यकल्प, चन्द्र कल्प), अधिवास (देवलोक में देवता का वास), मासकल्प, चातुर्मास कल्पादि (मुनि का एक महिना या उससे न्यूनाधिक किसी जगह स्थिर रहना), स्थविर कल्प, जिनकल्प-आदि अर्थों में प्रयुक्त हैं।।
11. नाखून काटने की नेरणी, (नेल कटर), 12. कान का मैल निकालने की चाटुई, ये बारह वस्तुएँ तथा अन्य भी छुरी, कैंची और सरपला (मिट्टी का पात्र) प्रमुख चीजें किसी भी साधु को लेना कल्पता नहीं है। तथा 1. तृण, 2. मिट्टी का ढेला, 3. भस्म (राख), 4. मात्रा का पात्र, 5. बाजोट, 6. पाट-पाटली, 7. शय्या, 8. संथारा, 9. लेपप्रमुख वस्तु, 10. उपधि सहित शिष्य याने वस्त्रादि सहित शिष्य; ये दस वस्तुएँ शय्यातर के घर की लेना कल्पता है। यह कल्प सब तीर्थंकरों के साधुओं को निश्चय से होता है; इसलिए इसे नियत कल्प कहते
कल्प के भेद :-.
कल्प नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भावरुप से षड्विध है; इसमें भावकल्प छ: प्रकार हैं। (सामायिकादि षडावश्यक), सप्तविध (नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-दर्शन-सूत्र कल्प) दसविध, बीस प्रकार से एवं अनेक प्रकार से किया गया है।
प्रस्तुत संदर्भानुसार आचार्यश्रीने 'कल्प' का अर्थ कल्पसंज्ञक आचार किया गया है। मुनि दस प्रकार के आचार का पालन करते हैं। वह निम्न प्रकार से है(1) अचेलक कल्प :
वस्त्र नहीं रखने को अचेलक कहते हैं। श्री ऋषभदेव तथा श्री महावीर स्वामी के साधु श्वेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करते हैं। अत: उन्हें अचेलक कहते हैं और बाईस तीर्थंकरों के साधु ऋजु, सरल, दक्ष और चतुर होते हैं; इसलिए बहुमूल्य पाँच रंगवाले मानोपेतरहित वस्त्र रखते हैं। इसलिए उन्हें सचेलक कहते हैं; क्योंकि उनके लिए अचेलक कल्प की कोई मर्यादा नहीं है। इस कारण से उनके लिए यह कल्प अनियत है। तथा पहले और अन्तिम तीर्थंकर के साधुसाध्वी के लिए यह कल्प नियत है। (2) उद्देशक कल्प :
साधु अथवा साध्वी के उद्देश्य से तैयार किये हुए आहारादिक को उद्देशिक कहते हैं। इसमें मध्य के बाईस तीर्थंकरों के समय में जिस साधु अथवा साध्वी के निमित्त से किसी गृहस्थ ने भोजन, पानी, औषधि, वस्त्र-पात्र आदि बनवाये हों, तो वे पदार्थ उस साधु अथवा साध्वी को प्रदान करना योग्य नहीं है; पर शेष अन्य साधुओं को प्रदान करना कल्पता है अर्थात् अन्य साधुओं के लिए वो पदार्थ वहोरने योग्य हैं। उन्हें आधाकर्मादि दोष नहीं लगते । तथा पहले और अंतिम तीर्थंकर के शासन में तो एक साधु अथवा एक साध्वी के लिए जो आधार्मिक आहारादिक बनवाये हों, वे सब प्रकार से किसी भी साधु अथवा साध्वी को लेना योग्य नहीं है। (3) शय्यातर-पिंड कल्प :
उपाश्रय के मालिक को शय्यातर कहते हैं। अथवा जो साधु को रहने के लिए स्थान देता है, अर्थात् जिसकी आज्ञा ले कर साधु किसी जगह पर ठहरते हैं, उस घर के स्वामी को शय्यातर कहते हैं। उसके घर का पिंड-आहारादिक बारह पदार्थ सब तीर्थंकरों केसाधुओं के द्वारा लिया जाना कल्पता नहीं। वे बारह पदार्थ इस प्रकार हैं - 1. आहार, 2. पानी, 3. खादिम, 4. स्वादिम, 5. कपडा, 6. पात्र, 7. कंबल, 8. ओघा, 9. सुई, 10. पिप्पलक (औषधि),
(4) राजपिंड कल्प :
जो महान छत्रपति, चक्रवर्ती आदि राजा होता है और सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी, प्रधान और सार्थवाह इन पाँचों के साथ जो राज करता है; उसे राजा कहते हैं। उसके घर का आहारादिक पिंड प्रथम तीर्थंकर के साधु-साध्वी को तथा चरम श्री वीर भगवान के साधु-साध्वी को लेना कल्पता नहीं है। तथा बाईस तीर्थंकर के साधु तो ऋजु और पंडित होते हैं; इसलिए सदोष जानें तो नहीं लेते। इस कारण से उनके लिए इस कल्प की मर्यादा नहीं है। (5) कृतिकर्म कल्प :
कृतिकर्म अर्थात् वंदन करना वह दो प्रकार का है - एक तो खडे होना और दूसरा द्वादशावर्त वन्दन करना । इसमें श्री जिनशासन में सब तीर्थंकरों के साधुओं की एसी मर्यादा है कि जिसने पहले दीक्षा ली हो, उस साधु को बाद में दीक्षा लेने वाला साधु वन्दन करे; पर बाप-बेटा अथवा राजा-प्रधान इत्यादि छोटा-बडा देखे नहीं। यदि पुत्र ने दीक्षा पहले ली हो और पिता ने बाद में ली हो; तो पिता पुत्र को वन्दन करे। इसी प्रकार राजा अपने प्रधान को भी वन्दन करें। तथा सभी साध्वियाँ तो पुरुषोत्तम धर्म जान कर सब साधुओं को वन्दन करें; पर छोय बडा ध्यान में न लें। (6) व्रतकल्प :
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों से विरत होना, पाँच महाव्रत कहे जाते हैं। इसमें श्री ऋषभदेव तथा श्री महावीर के साधु-साध्वी को तो वैसा ज्ञान का अभाव होने से पाँचों महाव्रत व्यवहार से हैं और मध्य के बाईस जिन के समय के साधु तो परिग्रह व्रत में परिगृहीत स्त्री भोग का प्रत्याख्यान जानते 1. अ.रा.पृ. 3/220 2. अ.रा.पृ.3/221, 229 3. अ.रा.पृ. 3/229 4. अ.रा.पृ. 3/225-226; कल्पसूत्र बालावबोध पृ. 6-11
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org