Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तप
'तप' - यह शब्द केवल दो अक्षरों का मेल, गम्भीर अर्थ का द्योतक हैं। या कहा जाये कि मोक्ष के द्वार को खोलने की चाबी हैं। जहाँ महाव्रतादि मुख्यरुप से शुभास्रव के कारण के रुप में माने जाते हैं, वहीं तप शुभाशुभ कर्मों को रोकनेवाला अर्थात् संवरद्वार है साथ ही निर्जरा का मुख्य कारण माना जाता हैं, अर्थात् यह मोक्षद्वार भी है। यों तो सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाएं सामान्य रुप से तप के अन्तर्गत आ सकती हैं, किन्तु यहां पर 'तप' शब्द से कुछ विशेष अर्थ अभिप्रेत हैं । अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थान-स्थान पर तप और उससे सम्बन्धित शब्दों पर तप विशेष के बारे में गहन तथ्य अनुस्यूत हैं। आगे के कुछ अनुच्छेदों में 'तप' का अनुशीलन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया हैं।
[310]... चतुर्थ परिच्छेद
'तप' शब्द की व्युत्पत्ति
अभिधान राजेन्द्र कोश में 'तप' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य श्रीने कहा है जिसके द्वारा तपा जाये, वह तप है । जो कर्मों को तपाता है, जलाता है, वह तप है; जोआठ प्रकार के कर्मो को तपाता है, उसका नाम तप है' । तप की परिभाषाएँ :
अभिधान राजेन्द्र कोश में तप की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए आचार्य श्रीने कहा है
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जो रसादि धातुओं को अथवा कर्मो को तपाता उसे 'तप' कहा जाता है' । इसी प्रकार तप की नैरुक्तिक (शाब्दिक) परिभाषा करते हुए कहा है - जिस अनुष्ठान या साधना से शरीरगत रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये सात धातु तपाये जाते अथवा जिसके द्वारा अशुभ कर्मों को तपाया जाता है, उसका नाम 'तप' हैं'। इसके अतिरिक्त 'तप' की एक अन्य परिभाषा भी कोशकार आचार्यश्री ने की है, वह है- देहे दुक्खं महाफलम् । अर्थात् "देह का दमन करना तप है, वह महान फलप्रद है अर्थात् क्षुधा, पिपासा आदिपरिषहों (शारीरिक कष्टों) को समतापूर्वक सहना भी तप है', इससे मोक्ष फल की प्राप्ति होती हैं।
(आ) तप की भाव प्रधान परिभाषा :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने तप की शाब्दिक परिभाषा के साथ ही भावपरक - (अर्थपरक) परिभाषा बताते हुए कहा है - इच्छानिरोध (इच्छाओं को रोकने) रुप तप से ही मोक्ष प्राप्त होता है । पूर्वाचार्योने भी कहा है- उद्देश्यपूर्वक इच्छाओं का निरोध करना ही तप है' । प्रत्याख्यान त्याग से इच्छाओं का निरोध हो जाता है त्याग से आशा, तृष्णा व इच्छाओं का शमन हो जाता है । अन्यथा इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त हैं।"; उनका कोई आदि-अन्त नहीं; उन पर विजय पाना बडा कठिन है। अनगारधर्मामृत में भी कहा है कि मन-वचन काया के तपने से अर्थात् सम्यग् रुप से निवारण करने से; सम्यग्दर्शनादि को प्रगट करने के लिए इच्छानिरोध को तप कहते हैं। 2 । वैतृष्ण्य की सिद्धि के लिए धीर पुरुष को नित्य तप करना चाहिए ।
उपर्युक्त शाब्दिक एवं भावपरक पारिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष यह है कि एक ओर तपश्चरण से देह क्षीण होती है, तो दूसरी ओर कर्म भी निर्मूल होते हैं। इस प्रकार तप देहगत और आत्मगत दोनों दृष्टियों से सार्थक हैं। तप के दो रूप :
अभिधान राजेन्द्र कोश में वैसे तो आचार्य श्रीने तप के विविध
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रूपों की चर्चा स्थान-स्थान पर की है लेकिन वे सब जिसमें सम्मिलित हैं से दो रुप मुख्यतः चर्चित हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप 14 |
बाह्य तप हमारी देह पर प्रभाव डालता है तो आभ्यन्तर तप - आत्मा व मन पर। जैन परम्परा में तप की विधि बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होती गयी हैं। वह बाहर से भीतर की ओर बढती है । आभ्यन्तर तप से मानसिक विशुद्धि, सरलता व एकाग्रता की विशेषसाधना होती है, तो बाह्य तप द्वारा साधक अपने तन-मन को साध लेता है, सहिष्णु बना लेता है और उसके दोषों का संशोधन कर लेता है। बाह्य तप से आभ्यन्तर तप की ओर बढने के लिए बाह्य तप का क्रम प्रथम रखा गया है 15 । बाह्य तप :
बहिर्भव बाह्यम्" । अर्थात् स्पष्ट, नेत्रों से दिखनेवाला बाह्य तप बाहरी वस्तु के त्याग की अपेक्षा रखता है, जिसकी कष्टमयता जनसाधारण जान सकते हैं और जो मुख्यरुप से शरीर (कार्मण शरीर) को तपाये उसे बाह्य तप की संज्ञा दी गयी हैं" ।
अनशनादि बाह्य तप के आचरण से इन्द्रियों का दमन सहजतया हो जाता है, चित्त की चंचल वृत्तियों पर नियंत्रण करने का सामर्थ्य प्रकट होता है और शरीर कष्ट सहने के लिए अभ्यस्त हो जाता है।
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अ. रा.पू. 7/60; उत्तराध्ययन 4/8
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मोक्षपञ्चाशत् 48; अनगार धर्मामृत - 7 / 2; धवला टीका-13/5, 4
10. अ. रा. पृ. 5/103; उत्तराध्ययन सूत्र - 29/3; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358 अ.रा. पृ. 4 / 1817; उत्तराध्ययन सूत्र
11. इच्छा हु आगास समा अणंतिया
9/48
अ. रा. पृ. 4 / 2199; जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358
अ. रा. पृ. 4/2199; पञ्चाशक सटीक विवरण 16
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12. अनगार धर्मामृत 7/2, पृ. 492
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वही 7/1
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अ.रा.पृ. 4/2199;
अ. रा. पृ. 4/2199;
अ. रा.पू. 4 / 2199; धर्मामृत अनगार - 7/3; अनगार धर्मामृत, पृ. 493
अ. रा. पृ. 5/643; दशवैकालिक सूत्र- 8/27
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 2/358
अ.रा. पृ. 4/2200; भगवती सूत्र- 25/7
धर्मामृत अणगार 7/5
अ. रा. पृ. 5 / 1321;
अ. रा. पृ. 5 / 1321; धर्मामृत अणगार- 7/6
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