Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
[308]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन देव और तिर्यग्नुंभक देव, मनुष्य एवं तिर्यंचो का; और ऊर्ध्वलोक 1. मैत्री भावना - निष्कपट भाव से 'आत्मवत्सर्वभूतेषु'-की सर्वोत्तम में वैमानिक देवों का निवास है तथा संपूर्ण चौदह राजलोक में सूक्ष्म भावनापूर्वक सभी जीवों की हितचिन्ता करना मैत्री भावना है।25 जीव व्याप्त हैं और लोकांत में सिद्धशिला के कुछ ऊपर लोक के 2. प्रमोद भावना - 'नमनप्रसादादिभिर्गुणाधिकेष्वभिव्यज्यमानाअंतिम छोर पर सिद्ध परमात्मा विराजमान हैं (इसका विशेष विस्तृत तर्भक्तावनुरागे' अर्थात् दूसरों के ज्ञान, विवेक, विनय, सुख आदि वर्णन अभिधान राजेन्द्र कोश, लोक प्रकाश, तिलोयपण्णत्ती आदि गुणों में प्रेम रखना या पक्ष करना 'प्रमोद भावना' कहलाती हैं।26 ग्रंथों से ज्ञातव्य है)।
3. करुणा भावना - जीवरक्षा, जयणा, स्व-पर के प्राणों की रक्षा जैनधर्म की प्राप्ति नहीं होने से जीव अनादि काल से इस
करना और नाना प्रकार के कष्टों से पीडित प्राणियों के कष्टों को दूर लोक में विभिन्न गतियों में रहा है। मेरा (शुद्धात्मा का स्थान तो
करने की इच्छा 'करुणा' कहलाती हैं। लोकांत पर है, जो मुझे प्राप्त करने योग्य है। इसकी प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ
4. माध्यस्थ - अनेक प्रकार के पाप करने में रक्त, दुष्ट, मूढ करने के लिए आत्मा को भावित करना 'लोकस्वरुप' भावना है।
और पूर्वाग्रह से गस्त बुद्धिवाले प्राणियों की उपेक्षा करना अर्थात् 11. बोधिदुर्लभ भावना:
उनके प्रति भी द्वेष न कर उदासीनता रखना माध्यस्थ भावना जैनधर्म की प्राप्ति की दुर्लभता के विषय में बार-बार चिन्तन
कहलाती है।28
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - पूर्वोक्त करना बोधि-दुर्लभ भावना है। यह जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के
अनित्यादि भावनाओं के साथ इन मैत्र्यादि चार भावनाओं से युक्त भव में स्वयं के विशिष्ट कर्मो द्वारा इस भयंकर संसार में अनंत पुद्गल
आत्मा शीध्र सिद्धि (मोक्ष, मोक्षगति) को प्राप्त करता है। उपाध्याय परावर्तन काल तक भ्रमण करते करते अकाम निर्जरा द्वारा शुभ पुण्य
श्री विनयविजयजी महाराजने शान्तसुधारसभावना में मैत्र्यादि चार योग से पञ्चेन्द्रियरुप प्राप्त कर आर्य क्षेत्र, सुजाति, उच्चकुल, निरोगी
भावनाओं के विषय में कहा हैकाया, सम्पत्ति, परिवार, राज्य सुखादि प्राप्त किये परन्तु एकमात्र तत्त्वातत्त्व
मैत्री-प्रमोदकारुण्य - माध्यस्थानि योजयेत । के विवेचन में कुशल (निर्णायक) बोधि (श्रद्धायुक्त सम्यग्ज्ञान) प्राप्त
धर्मध्यानमुपस्कर्तुः, तद्धि तस्य रसायनम्।" नहीं किया।
भावनाओं से लाभ :जो जीव इस संसार में एक बार भी सर्वज्ञोपदिष्टा अक्षयमोक्ष
धर्मयुक्त ध्यान की सहायता के लिए विद्वानों को चाहिए सुख की जनयित्री बोधि (श्रद्धा) को प्राप्त कर लेता है उसका इतने
कि वे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य (दया) और माध्यस्थ - इन चार गुणों लम्बे काल तक संसार भ्रमण नहीं होता। इस जीवने द्रव्य चारित्र
का सेवन करें। क्योंकि वह धर्म ध्यान के लिए अमोध औषध तो अनेक बार प्राप्त किये लेकिन सम्यक-ज्ञानोत्पादिका श्रद्धा कभी
स्वरुप है। भी प्राप्त नहीं की।
इसके अतिरिक्त आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में महाव्रतों जो भी आत्माएँ सिद्ध हुई हैं - हो रही है और होगी
की सुरक्षा एवं उचित पालन हेतु 25-25 शुभ भावनाओं का भी वे सब बोधि (सम्यग्दर्शन/शुद्ध श्रद्धा) के महात्म्य से होंगी। इसलिए
वर्णन किया है, जो प्रस्तुत शोध प्रबंध के इसी परिच्छेद में पृ. 279 बोधि की उपासना करनी चाहिए।
पर दर्शायी गयी हैं। 12. धर्मकोर्हन् :
इनसे साधक को सदैव अपनी आत्मा को भावित करते केवलज्ञान से लोकालोक दृष्टा तीर्थंकर ही यथार्थ धर्म कहने रहना चाहिए । इन अनुप्रेक्षाओं के बार-बार चिन्तन से मोह की निवृत्ति में समर्थ हैं, अन्य कोई नहीं। सर्वत्र सभी जीवों पर परोपकार करने होती है और सत्य की प्राप्ति होती है। इन्हें वैराग्य की जननी भी में उद्यत वीतराग कहीं भी, कभी भी, असत्य नहीं बोलते, अत: कहा गया है। सूत्रकृतांग में भी कहा हैउनके कहे हुए धर्म में सत्यता है। सर्वज्ञकथित क्षमादि 10 धर्मो भावणा जोग सुद्धप्पा जले नावावआहिया । के पालन से जीव संसार समुद्र में डूबता नहीं है। स्वेच्छा से हिंसादियुक्त
णावाव तीरसंपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्ठई 2 पूर्वापरविरुद्ध वचनयुक्त सद्गति का वैरी, कुतीर्थिक-प्रणीत विचित्र जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध है वह जल में नौका वचनयुक्त धर्म का सम्यक् कथन कैसे संभव होगा ?
के समान है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाती ___ संसार में साम्राज्य, सम्पत्ति, सद्गुणों का समूह, सौभाग्य की
है। शुभ भावनाओं से भावित शुद्धात्मा के पुराने पाप कर्म नष्ट होते प्राप्ति धर्म का ही फल हैं।
हैं और नये कर्म नहीं बंधते। सदाकाल पृथ्वी को घेरकर रहा लवण समुद्र पृथ्वी को डुबाता 23. अ.रा.पृ. 5/1333, 1510; प्रवचनसारोद्धार, 67 वाँ द्वार; शान्तसुधारसभावन, नहीं है, सूर्य-चन्द्र अंधकार का नाश करते हैं, वह धर्म का ही
द्वादश भावनाष्टक; बाररसाणुवेक्खा 83, 84,86 फल है। धर्म अनाथ का नाथ है, गुणरहित का गुणनिधि, परमहित
24. अ.रा.पृ. 5/1511; शान्तसुधारसभावना, दशम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा
68 से 80 चिन्तक धर्म जयवंत है। अर्हत्प्रणीत यह धर्म सत्य है - एसी भावना
25. अ.रा.पृ. 6/285 से आत्मा को भावितकर सर्वसम्पत्कारी धर्म में बुद्धिमान् पुरुष को 26. अ.रा.पृ. 5/501 विशेष दृढ होना चाहिए।
27. अ.रा.पृ. 4/2456; 'दया' शब्द, 2457 'दयालु' शब्द
28. अ.रा.पृ. 6/64 मैत्री आदि चार भावनाएँ :
29. अ.रा.भा. 5/1512 वैराग्यवर्धक इन बारह भावनाओं के अलावा राजेन्द्र कोश 30. शान्तसुधारसभावना में आचार्यश्रीने मैत्री आदि चार भावनाओं का भी वर्णन किया है। 31. अ.रा.भा. 5/1515
32. सूत्रकृतांग 1/15; आचारांग 1/1/1; प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org