Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 361
________________ [312]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन को निकालने की आवश्यकता नहीं रहती अत: उसे -इस गाथा का, सामायिक व्रत (करेमि भंते) का, और पाँच अनि रिम पादपोपगमन अनशन कहते हैं। महाव्रत तथा छठे रात्रिभोजन-विरमण व्रत के सूत्रपाठ का तीन बार (ii) इङ्गिनी मरण - नियत किये हुए मर्यादित स्थान में ही उच्चारण करवाते हैं, प्राणातिपातादि अठारह पापस्थानों का त्याग करवाते गमनागमन करना इङ्गिनीमरण अनशन है। इस अनशन में हैं; तत्पश्चात् साधक गुरु, साधु आदि को वंदन करके अरिहंतादि यावज्जीव चारों प्रकार के आहार का सर्वथा त्याग किया जाता पाँचो की साक्षी से भवचरिम प्रत्याख्यानपूर्वक तीनों या चारों आहार है, शरीर-शुश्रूषा स्वयं कर सकते हैं लेकिन दूसरों से नहीं का त्याग करता है; तत्पश्चात् 'नित्थार पारगाह होह' -एसा बोलते करवा सकते और मर्यादित भूमि से बाहर भी नहीं जा सकते। हुए समस्त संघ (गुरु सहित) अनशनव्रती के शिर पर वासक्षेप करता ___ प्रथम संहनन, धृति, बल आदि के अभाव में __ है। इसके बाद अनशनव्रती को प्रतिदिन संवेगजनक उत्तराध्ययनदि पादपोपगमन अनशन स्वीकारने में असमर्थ परंतु प्रथम तीन सूत्रोक्त धर्मकथाएँ सुनाई जाती हैं। संहननवाला, नवपूर्वधर या दशपूर्वधर या ग्यारह अङ्गो के अनशनग्राही यदि श्रावक हो तो सम्यकत्व की गाथा के ज्ञाता, प्रतिलेखन-प्रत्युपेक्षण, प्रतिक्रमणादि क्रियाओं में समर्थ, स्थान पर सम्यक्त्वदंडक (सूत्रपाठ) और पञ्चमहाव्रत के स्थान पर 12 विशिष्टधैर्ययुक्त मुनि मरण का आसन्न समय होने पर संलेखना व्रत उच्चारण करवाते हैं। श्रावक सात क्षेत्रों (जिन मंदिर-जिन प्रतिमा, ग्रहण करके दीक्षा के दिन से तब तक के दोषों की गुर्वादि साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका-ज्ञान भण्डार) में यथाशक्ति धनव्यय के समक्ष आलोचना करके चारों आहार के त्यागपूर्वक धूप करता है। से छाँव, छाँव से धूप आदि में नियत प्रदेश में गमनागमन इस अनशन में यथावसर सामग्री उपस्थित होने पर संथारा करता हुआ आवश्यक क्रिया करता है और समभाव से धर्मध्यान और दिशा का भी प्रत्याख्यान करवाया जाता है। अनशनव्रती साधु में रहकर प्राण/देह त्याग करता है,उसे इंगिनीमरण कहते हैं | के द्वारा देह त्याग करने पर अन्य साधुओं के द्वारा उनके शरीर का (iii) भक्तप्रत्याख्यान अनशन :- अभिधान राजेन्द्र कोश में सविधि परिष्ठापन किया जाता है। आचार्यश्रीने कहा है कि संलेखनापूर्वक तीन (पानी को छोडकर) काल - इस अनशन का काल जघन्य से छ: मास और उत्कृष्ट या चारों प्रकार के आहार का यावज्जीव त्याग करनेपूर्वक 12 वर्ष तक का है। सविधि अनशन स्वीकार करना - भक्तप्रत्याख्यान अनशन अधिकारी - प्रथम संहनन को छोडकर सभी सर्वविरतिधर है । यह भक्तप्रत्याख्यान अनेक प्रकार का हैं। और देशविरतिधर इसे ग्रहण कर सकते है। इस अनशन' का विशेष 1. सपराक्रम - जो भक्त प्रत्याख्यान अनशनधारी दूसरों विवेचन जिज्ञासु को अभिधान राजेन्द्र कोश में 'भत्तपच्चक्खाण' शब्द के स्वयं के हेतु आहार-निहार हेतु जाने में समर्थ पर द्रष्टव्य है। हो, उसे 'सपराक्रम' कहते हैं। (2) ऊनोदरिका तप :2. अपराक्रम - जिनमें उक्त सामर्थ्य नहीं होता उन्हें 'ऊनोदरिका' शब्द को प्राकृत में ऊणोदरिया' या 'ऊणोदरिका' अपराक्रम भक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। या 'अवमोदरिका' शब्द से व्यवह्नत हुआ है। इन दोनों भेदों के भी निम्नानुसार दो भेद हैं - अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी परिभाषा बताते हुए कहा 1. व्याघात - जिसमें मनुष्य, तिर्यंच, देवतादिकृत है -“अवममूनमुदरं यस्य सोऽवमोदरः अवमोदरस्य वा करणम् उपसर्ग होते हो या कर्मोदय से रोगादि की अवमोदरिका ।"42 अथवा "ऊनम् उदरं ऊनोदरं तस्य करणं भावे उत्पत्ति हो, वह व्याघात अनशन है। ऊनोदरिका।"49 अर्थात् अपनी आहारमात्रा से उदर में कम खाना, निर्व्याघात - जिसमें उक्त कोई भी उपसर्ग या जितनी भूख हो उससे कम खाना 'ऊनोदरिका' या 'अवमोदरिका' न हो, वह निर्व्याघात अनशन है। कहलाती है। इस तप की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा हैस्थानांग में भक्त प्रत्याख्यान के निर्हारिम (गाँव आदि में) अवि ओमोदरियं कुज्जा - अवमोदरिका व्रत करना चाहिए अर्थात् और अनि रिम (अरण्यादि मे) - ये दो प्रकार पादपोपगमनवत् दर्शाये भूख की अपेक्षा कम खाना चाहिए। गये हैं। 33. अ.रा.पृ. 1/340, 5/819; भगवती सूत्र-2/1; विधि - गुरु भक्तपरिज्ञादि अनशन ग्रहण करनेवाले आचार्य या 34. अ.रा.पृ. 2/559, 550; समवयांग-17 वाँ समवाय; उत्तराध्ययन सूत्रमुनि की परीक्षा करके तथा विशिष्ट अतिशय ज्ञान या देवता के द्वारा अध्ययन-5; स्थानांग-ठाणां-2; व्यवहार सूत्र वृत्ति-2/10; निशीथचूर्णिसुभिक्ष, दुर्भिक्ष, स्वचक्र-परचक्रभयरहितता, क्षेत्रादियोग्यता एवं अनशनतप || वाँ उद्देश; पञ्चवस्तु सटीक-2 द्वार; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/386 35. अ.रा.पृ. 5/1342, 1360; उत्तराध्ययन पाईयवृत्ति-अध्ययन-5; धर्मसंग्रहधारक में तप, सत्त्व, सूत्र,एकत्व, धृति आदि बल, कषायादि संलेखना 3/1513; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/387, 388 की योग्यता देखकर शुभ-प्रशस्त-योग मुहूर्तादि में उन्हें विधिपूर्वक 36. अ.रा.पृ. 5/1343; व्यवहार सूत्र-10/397-398 अनशन उच्चारण करवाते हैं - चतुर्विध संघ की उपस्थिति में अभिमंत्रित ____37. अ.रा.पृ. 5/1342; स्थानांग 2/4 वासक्षेप करते है, देववंदन करवाते हैं, बाल्यकाल से तब तक के 38. अ.रा.पृ. 5/1342 से 1358; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387, 388 दोषों की आलोचना देते हैं, चतुर्विध-संघ से क्षमापना करवाते हैं, 39. अ.रा.पृ. 5/1358 40. अ.रा.पृ. 5/1344; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387 यथा - 41. अ.रा.प. 5/1335; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 4/387 "अरिहंतो मह देवो, जावज्जीव सुसाहुणो गुरुयो। 42. अ.रा.पृ. 3/91; स्थानांग सटीक-3/3 जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियम्॥" 43. अ.रा.पृ. 2/1209; उत्तराध्ययन सटीक 30/8; धवला टीका 13/5, 4 44. अ.रा.पृ. 2/616; आचारांग 1/5/4/164; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/200 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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