Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[268]... चतुर्थ परिच्छेद
विहारयोग्य स्थान :
जहाँ महास्थंडिल (श्मशान) गाँव की दक्षिण या पश्चिम दिशा में हो, जहाँ दिन में किसी भी के समय गोचरी सुलभ हो, जहाँ व शुद्ध हो, गुणयुक्त हो, गाँव के मध्य में हो, प्रशस्त स्थान में हो; जहाँ शय्यातर विनय - विवेक संपन्न हो, मुनियों के प्रति बहुमान, भक्ति भाव वाला हो, जहाँ स्थंडिल एवं स्वाध्याय भूमि निरुपद्रव और निर्जीव हो, विहार में या चातुर्मास में साधु-साध्वी को स्थिरता हेतु उपरोक्त गुण युक्त क्षेत्र देखना चाहिए ।"
विहार के अयोग्य क्षेत्र :
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन विहार में अविधि से दोष :
अविधि से विहार करने पर वसति, आहार (गोचरी), उपधि आदि दुर्लभ होती हैं; बाल-ग्लान- शैक्षादि योग्य भिक्षा दुर्लभ होती हैं; मांस- शोणित-पात, वसतिपतन इत्यादि कारण से स्वाध्याय भूमि दुर्लभ होने से स्वाध्याय की दुर्लभता; सिंह- वाघ - सर्पादि तथा मच्छारादि का उपद्रव; दुर्भिक्ष (अकाल), व्यन्तरकृत या स्त्र्यादि कृत उपद्रव, स्थंडिल भूमि की दुर्लभता, मलेच्छादि तथा स्वजन, शासन प्रत्यनीक (धर्म का शत्रु), राजा, चोर इत्यादि कृत उपद्रवादि, वध, बंधन, ताडन - मारण चोरादि के द्वारा उपाधि आदि ले लेना इत्यादि अनेक उपद्रव होने से आत्म विराधना, संयम विराधना, जीव विराधना और प्रवचन उड्डाह होता हैं। इसीलिये मुनि को अविधि से विहार करना निषिद्ध हैं 116 विहार से लाभ :
जहाँ कुंथु-कीट-पतंगादि जीवोपद्रव अधिक हो, जहाँ मार्ग में चोर भय हो, राजभय हो, षट्काय जीवों की विराधना होती हो, वहाँ स्वयं की एवं संयम की विराधना होती है, अत: एसे क्षेत्र में साधु विहार न करें ।"
चातुर्मास में विहार का विधान - निषेध
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यद्यपि जैन मुनि नियमानुसार वर्षा के चारों महीनों में एक जगह स्थिर रहते हैं, तथापि राजभय, अशिव (मरकी आदि का उपद्रव), परपक्ष भय, आहार की दुर्लभता, चोर भय, प्रतिपक्षी ( विरोधी) भय, जल भय, ग्लान-चिकित्सा, आचार्य से श्रुत स्कन्धादि ग्रहण करना या आचार्यश्री को संवत्सरी खमत - खामणां (क्षमापना या उनके दर्शन हेतु, चारित्र में स्त्र्यादि भय उत्पन्न होना, अग्नि से गाँव जलना, संग्राम, जीवोत्पत्ति (जहरीले मच्छरादि जिनसे प्राण संकट या संयम विराधना हो), पूरे गाँव के श्रावकों का स्थानान्तरित हो जाना इत्यादि अनिवार्य विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर जैनागमों में चातुर्मास काल में भी मुनि को विहार करने की आज्ञा है । 19
जैन साधु को ज्ञानादि विशेष कारण के बिना सदैव शास्त्र मर्यादानुसार ग्रामानुग्राम नवकल्पी विहार अवश्य करना चाहिए ।" कदाचित् आचार्यादि या गुर्वादि की वैयावृत्य हेतु संयम वृद्धि हेतु एक स्थान पर निवास करना पडे तथापि मुनि को मोहल्ला, उपाश्रय, देश (एक भाग, यावत् पाट या संथारा की भूमि) बदलकर भाव से तो अवश्य मासकल्प का पालन करना ही चाहिए। 12 विहारयोग्य काल :
चातुर्मास काल के अतिरिक्त शेष काल में मुनि को यदि विहार निकट क्षेत्र में हो तो सूत्रपोरिसी और अर्थपोरिसी, दोनों पोरिसी करके विहार करना चाहिए । यदि दूर हो तो सूत्रपोरिसी करके और इससे दूर हो तो पादोन प्रहर (नवकारसी के समय) पात्र, प्रतिलेखन करके और यदि ज्यादा दूर हो तो सूर्योदय होते ही और यदि लम्बा विहार हो और साधु गरमी के कारण तृषादि से व्याकुल हो जाते हों तो सूर्योदय से पहले विहार करें। 13
विहार की विधि :
विहार करते समय आचार्यादि जो मुख्य हो उनके नन्दाभद्रादि तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, चन्द्रमा अनुकूल होने पर शुभमंगल- श्रेष्ठ शकुन की परीक्षा कर पहले स्थविर, वृद्ध साधु विहार करें, तत्पश्चात् आचार्य भगवंत साधुओं के साथ विहार करें । विहार करते समय आचार्य भगवंत शय्यातर को वसति, पाट-पाटला इत्यादि वापिस देकर धर्मलाभ देकर धर्मोद्यम हेतु प्रेरणा दे । तत्पश्चात् युवा मुनि (जिनके पास उपधि आदि अधिक हो) विहार करें। 14 विहार में मुनि के ओघ (14) उपकरण तथा आवश्यक उपकरण उपयोग में आवें या न आवें तथापि अवश्य रखें परन्तु अधिक उपधि, अनावश्यक अतिरिक्त सामान न रखें, और वस्त्रादि औपग्रहिक उपकरण भी कम रखें। 15
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उत्तरगुणों में शिथिलाचारी ऐसा भी उद्यतविहारी साधु सुलभबोधि बनता है । वह आठों कर्मों को दूर (नष्ट) करता है । अनियत विहारी साधु सम्यक्त्व की शुद्धि करता है, लोगों को उपदेश देकर धर्म में स्थिर करते हैं, जन-वचन- देशादि की परीक्षा में अतिशय कुशलत्व प्राप्त करता है । चारित्र की उपबृंहणा और प्ररूपणा करता है और निश्चय से छः काय जीवों की दया करता है क्योंकि विहार में योग्य स्थान में वह मुनि लोगों को उपदेश देता है, इससे जिन्होंने जैन धर्म ग्रहण नहीं किया है वे भी जब तक व्याख्यान श्रवण करते है तब तक आरंभ-समारंभ से दूर रहते है एवं जो श्रावक धर्म ग्रहण कर चूके है वे परमार्थ को प्राप्त करके विशेष सावधानीपूर्वक विशुद्ध आराधना करते है। 17 मुनि के निवास योग्य वसति :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीने विहार में विश्राम हेतु मुनि के रहने योग्य स्थान (वसति) का वर्णन करते हुए बैल के आकार की परिकल्पना करने पर गाँव में मुनि की वसति के स्थानानुसार उसका फल बताते हुए कहा है कि "बैल के सींग के स्थान पर वसति होने पर वहाँ रहने से साधुओं में निरंतर कलह होता है, स्थान और मुनियों की स्थिरता नहीं रहती, चरण में गाढ स्थान पर स्थित वसति में रहने से मुनि को उदर रोग होता हैं, पूँछ की जगह पर होने पर वसति का स्फेटन या अपनयन होता है, मुख के मूल में वसति निवास होने पर सुंदर भोजन (गोचरी) प्राप्त होती है, मस्तक में ककुद् स्थानीय (दो सींग के मध्यम में) वसति निवास होने पर मुनियों को वस्त्र पात्रादि से पूजा - सत्कार इत्यादि लाभ होता है, स्कन्ध प्रदेश पर या उसके पृष्ठ भाग में वसति होने पर आने-जानेवालों से उपाश्रय भरा हुआ रहता है। उदर (पेट) की जगह पर वसति होने पर साधु नित्य तृप्त रहता है इसलिये मुनि को वृषभ परिकल्पनापूर्वक वृषभ के स्थान पर मुनि को समझकर प्रशस्त प्रदेश में, स्त्री-पशु-नपुंसक रहित वसति खोजना चाहिए। 18
अ. रा.पू. 6 / 1298 से 1300
अ. रा.पू. 6/1308-9-10
8.
9.
10. अ.रा. पृ. 6/1290-91 11.
अ. रा.पू. 6/1307
12. अ. रा.पू. 6/1308
13. अ. रा.पू. 6/1304, बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य- 1/2/714
14. अ. रा. पृ. 6/1305
15. अ. रा.पू. 6/1320 16. अ. रा.पू. 6/1294 17 यतिदिनचर्या पृ. 33, 34
18. अ. रा.पू. 6/1298-99
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