Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 326
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ब्रह्मचर्य पालन से लाभ : ब्रह्मचर्यव्रतजनित अतुल पुण्यभार के कारण यह व्रत सभी व्रतों का गुरु हैं 1109 जिसने यावज्जीव मन-वचन-काय से एकमात्र ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना की, पालन किया उसने समस्त निर्ग्रन्थ प्रवज्या (दीक्षा), अखण्डशील, तप, विनय, संयम, क्षान्ति, गुप्ति, मुक्ति, निर्लोभता, सिद्धि, यशःकीर्ति, पराक्रम, दान, सब कुछ प्राप्त कर लिया। यह व्रत वैरनाशक, दुर्गतिनाशक, पापनाशक, सर्वपवित्र वस्तुओं का सार, देवनरेन्द्रनमस्कृत, देवगति एवं मोक्ष का द्वारोद्घाटक, सर्व जगदुत्तम मंगलमार्ग, दुर्घर्ष गुणनायक, मोक्षपथावतंसक है। इस व्रत को सम्यग् रुप से पालन करनेवाला ही सही अर्थो में ब्राह्मण है, सुश्रमण है, सुतपस्वी है, सुसाधु है, निर्वाण साधक है, योगी है, ऋषि है, संयमी है, भिक्षु है, ब्रह्मचारी है 1110 शूरवीरों से ही ब्रह्मचर्य पालन संभव है, कायरों से नहीं । देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रतपालक को नमस्कार करते हैं। 111 ब्रह्मचारी और शीलव्रतधारी के प्रभाव से शेर, वाघ, सर्प, जल, अग्नि आदि भय नष्ट हो जाते है, कल्याणकारी कार्यों में उल्लास प्रकट होता है, देवता उन्हें सान्निध्य करते हैं, कीर्ति फैलती है, उसके निर्मल कुल-वंश प्रकाशमान होते हैं, उसके सुकृतों की प्रशंसा होती है, देव समूह उन्हें नमस्कार करते है एवं अतितीव्र उपसर्ग को भी नष्ट करते हैं, शील के प्रभाव से अग्नि-जल, सर्प - फुलमाल, वाघ - हिरन, सिंहअश्व, पर्वत-पत्थर (का टुकडा), विष-अमृत, विघ्न-उत्सव, शत्रु-मित्र, समुद्र-क्रीडा करने हेतु तालाब, घोर अरण्य-स्वयं के गृह में परिवर्तित हो जाता है और स्वर्ग और मोक्ष के सुख उनको प्राप्त होता हैं | 12 सर्वथा परिग्रहविरमण : पञ्चम महाव्रत : अभिधान राजेन्द्र कोश में 'परिग्रह की व्युत्पत्तिजनक परिभाषा बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है- परिगृह्यते आदीयतेऽस्मादिति परिग्रहः । अर्थात् जिससे हम ग्रहण किये जायें (बंधन में डाले जायें) उसे परिग्रह कहते हैं । 113 विभिन्न ग्रंथो में 1. द्विपदादि एवं धनधान्यादि 14, 2. आन्तरिक ममत्व 15, 3. साधुमर्यादा के विपरीत किसी भी पदार्थ का ग्रहण 116, 4. मूर्च्छा - को परिग्रह कहा गया हैं।17। अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि के लिए धर्मसाधन/धर्मोपकरण को छोडकर धन-धान्यादि अनेक प्रकार के बाह्य परिग्रह एवं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमादादि अनेक प्रकार के आभ्यान्तर परिग्रह का तथा श्रावक प्रायोग्य धन-धान्यादि 9 प्रकार के परिग्रह का वर्णन किया गया है 118 | श्रावकप्रायोग्य परिग्रह का वर्णन प्रस्तुत शोधप्रबंध में आगे यथास्थान किया जायेगा । मुनिप्रायोग्य पंचम महाव्रत का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि अनेक प्रकार के परिग्रह प्राप्त कर संचय करके भोग करने पर भी जीव अन्त में प्राप्तसंरक्षण, अप्राप्तचिन्ता, अनन्ततृष्णा, अतिलोभ, क्लेश, संग्राम, कषाय, चिन्तन, गौरव, मायाच्छादन, कामभोग, शरीरखेद, चित्तखेद के कारण मोक्षमार्ग का घात करता है।19, अतः परिग्रह चरम अधमद्वार है 120 । परिग्रह को नरक का मूल कारण समझकर काल, बल, मात्रा, क्षेत्र, खेद, क्षण, विनय, समय (सिद्धांत), भाव के ज्ञाता जो मुनि बहुत मिलने पर भी धर्मोपकरण के अलावा अन्य कोई भी पदार्थ अंशमात्र भी ग्रहण नहीं करता; बहुत मात्रा में अच्छा-अच्छा विभिन्न प्रकार का आहार चतुर्थ परिच्छेद... [277] मिलने पर भी उसमें से थोडा भी (अंशमात्र भी) संग्रह संनिधि नहीं करता, धर्मोपकरण के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का परिग्रह नहीं रखता; धर्मोपकरण के ऊपर भी ममत्वभाव धारण नहीं करता, वही मुनि अप्रमत्तभाव से सर्वथा परिग्रहविरमण व्रत का संपूर्ण पालन करता है। 121 पञ्च महाव्रतधारी जैन मुनि के द्वारा 'अकेले या सभा में, गाँव में या नगर में या अरण्य में, सोते समय या जागृतावस्था में धर्मोपकरण के अतिरिक्त अत्यल्पमूल्य या बहुमूल्य, थोडे या ज्यादा, सचित्त, अचित या मिश्र किसी भी प्रकार के धन-धान्य, छत्र, वाहन, द्विपदचतुष्पद, पुष्प-फल, तैलादि, चारों प्रकार के आहार, दूषिताहार, प्रमाणातिरिक्ताहार आदि अनेक प्रकार के द्रव्य, गाँव, नगर, खेत, दुकान, मकानादि क्षेत्र, रात्रि में या दिन में राग से या द्वेष से ग्रहण नहीं करना " मुनिका "सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत' हैं। 122 उपकरण : Jain Education International अभिधान राजेन्द्र कोश मे बाह्याभ्यन्तर परिग्रह त्यागी मुनि के 'उपकरण' के विषय में व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीने कहा है कि, 'दण्ड, रजोहरण, वस्त्र, पात्रादि जिससे व्रती का उपकार होता है; या जो ज्ञानादि (उपलक्षण से ज्ञान-दर्शन- चारित्र) (की प्राप्ति) में उपकारी हो, या जिससे जयणा (जीवदया पालन) की जाती हो उसे 'उपकरण' कहते हैं। 23। आचारांगादि आगमों में वस्त्रैषणा - पात्रैषणादि अध्ययनों में भगवान् ने यतियों को स्पष्ट ही वस्त्रादि ग्रहण हेतु विस्तृत विधान किया हैं । जिनकल्पी मुनि हेतु बारह प्रकार के और स्थविरकल्पी मुनि हेतु चौदह प्रकार के तथा साध्वियों के लिए पञ्चीस प्रकार की सामान्य उपधि (उपकरण) होती है तथा उससे अधिक औपग्रहिक उपधि होती है। 124 जो समीप (उप) रहकर संयम का पोषण करती है, उसे 'उपधि' कहते हैं। 25। वह दो प्रकार की है1. ओधोपधि सामान्यतया जिसका उपयोग किया जाये या नहीं भी किया जाये तथापि भिक्षादि के निमित्त जिसे रखा जाय वह ओघ उपधि है, जैसे- पात्रादि । 2. औपग्रहिक उपधि - - 109. अ.रा. पृ. 5/1259 110. अ.रा. पृ. 5/1261-62 111. अ.रा. पृ. 5/1266 112. सूक्त मुक्तावली - 38,39,40 जिसका ग्रहण किसी निमित्त से किया जाने से उसका ग्रहण एवं उपभोग / उपयोग दोनों साथ ही होते हैं, उन्हें औपग्रहिक उपधि कहते हैं, जैसे- पीठफलकादि । 113. अ.रा. पृ. 5/ 552 114. अ.रा. पृ. 5/552; सूत्रकृताङ्ग- 1 /5; 2/6; स्थानांग - 2 / 1; 115. सूत्रकृताङ्ग - 1/9 116. आवश्यक चूर्णि अ. 4 117. स्थानांग -1 ठाणां 118. अ. रा.पृ. 5/552 119. अ. रा.पू. 5/ 552, एवं 5/ 554 For Private & Personal Use Only 120. अ.रा. पृ. 5/554-55 121. अ. रा.पू. 5/ 553; आचारांग 1/2/5 122. अ.रा. पृ. 5/558 से 560 एवं 5/563, पाक्षिक सूत्र, पञ्चम आलापक, साधु प्रतिक्रमण सूत्रार्थ 123. अ.रा. पृ. 2/905 124. सम्मतितर्क, 3/5/65 पर टीका; पृ. 371 125. अ.रा. पृ. 2/1087; धर्मसंग्रह, अध्ययन 3 www.jainelibrary.org

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