Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
[276]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रतिज्ञा करना मुनि का चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत/सर्वथा मैथुन विरमण से सुरक्षा नहीं करने पर वृद्धावस्था में रोगों का आक्रमण तीव्रता से व्रत है। इस व्रत का धारक मुनि 18000 शीलाङ्गो (शुद्ध प्रवर्तन, होता हैं। विष खाने से तो मृत्यु आती है लेकिन विषय के तो स्मरण अत्युत्तम चारित्र) का पालन करता हैं।”
मात्र से सर्वनाश होता है।"शिव संहिता' में वीर्य के पतन को मृत्यु ___अभिधान राजेन्द्र कोश में अब्रह्म, स्त्री के अङ्गोपाङ्गादि देखकर और उसकी रक्षा को जीवन माना हैं।107 .. प्रसन्न होकर स्तम्भित होना, स्त्रीसंपर्क, कामसुख कामक्रीडा, कामाभिलाषा, ब्रह्मचर्य का माहात्म्य :स्त्री आदि की अभिलाषसंज्ञा से उत्पन्न वेदजनित मोह के उदय को
ब्रह्मचर्य व्रत तारागण में चन्द्रमा, व्रत-नियमादि रत्नोत्पत्ति 'मैथुन' कहा गया हैं।98 वसति आदि के दोष से अथवा मोहनीय हेतु रत्नाकर, रत्नों में वैडूर्य, आभूषणों में मुकुट, वस्त्रों में क्षौमयुगल, कर्म के उदय से 18000 शीलांगरथ सहित महाव्रतधारी मुनि को भी पुष्पो में कमल, चन्दनों में गोशीर्ष, औषधि हेतु हिमालय (आमर्शादि क्वचित् मैथुन अभिलाषा होने की संभावना रहती है, अतः महाव्रतों औषधियों (लब्धियों) का उत्पत्तिस्थान), नदियों में सीतोदा, समुद्रों की सुरक्षा हेतु अट्ठारह हजार भंग सहित निर्मल शील/ब्रह्मचर्य के में स्वयंभूरमण समुद्र, माण्डलिक पर्वतो में रुचकद्वीप, हाथियों में पालन हेतु मुनि को ब्रह्मचर्य की 9 बाडों का सदैव पालन करना ऐरावत, पशुओं में सिंह, सुवर्णकुमारादि में वेणुदेव, सर्पो में पन्नगेन्द्रराज, चाहिए तथा अब्रह्म से होने वाली हानि और ब्रह्मचर्य की महिमा देवलोक में ब्रह्म देवलोक (उसके विस्तार एवं ब्रह्मेन्द्र के अतिशुभपरिणाम तथा ब्रह्मव्रत पालन से होने वाले लाभ का चिंतन करना चाहिए: के कारण), सभाओं में सुधर्मा सभा, आयु में लवसत्तम अनुभवमोहोदय होने पर नीवी, आयंबिल इत्यादि तप करना चाहिए।99 स्थिति, दानों में अभयदान, कम्बलों में रत्नकंबल, संहनन में वज्रऋषभनाराच ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (बाड):
सहनन, ध्यानों में शुक्ल ध्यान, ज्ञान में केवलज्ञान, लेश्या में शुक्ल कुडुंतर पुव्व कीलिए पणिए । वसहि कह निस्सिदिय । लेश्या, केवलियों/मुनियों में तीर्थंकर, क्षेत्रो में महाविदेह क्षेत्र, मेरु अइमयाहार विभूषणाइ, नवं बंभचेर गुत्तीए ।
पर्वतो में सुदर्शन मेरु, वनो में नन्दनवन, वृक्षो में (सुदर्शन मेरु का) संयम जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत की सुरक्षा हेतु साधक को
जम्बू वृक्ष - के समान अनेक गुणों के कारण सर्वत्र प्रसिद्ध एवं मन-वचन-कायापूर्वक इन नव गुप्ति/बाड का पालन करना अनिवार्य
सर्वश्रेष्ठ हैं। है; जो निम्नानुसार है -
ब्रह्मचर्य की महिमा108 :(1) स्त्री, पुरुष और नपुंसक रहित स्थान में निवास करना।
ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व (2) स्त्री के साथ कथा नहीं करना (अकेली स्त्रियों के बीच धर्मकथा
का मूल (मूल कारण) हैं। हिमवत् पर्वत के समान अतिशय तेजस्वी, भी नहीं करना)।
प्रशस्त, गंभीर, अचपल, मध्यस्थ, आर्जव, साधुजनाचरित, मोक्षमार्ग, जिस आसन पर स्त्री बैठी हो उस स्थान/आसन पर दो घडी/ विशुद्धि, सिद्धिगतिनिलय, शाश्वत, अव्याबाध, अपुनर्भव (जन्म४८ मिनिट के पूर्व नहिं बैठना। (जिस आसन पर पुरुष
मरण नाशक), सौम्य, सुख (मोक्ष सुख), शिव (उपद्रवरहित), अचल, बैठा हो उस आसन पर स्त्री को तीन प्रहर तक नहीं बैठना ।) अक्षयकर, मुनिपालित, सुचरित, सुभाषित, सुदर्शित, निर्वैर, निर्दोष, (4) स्त्रियों की ओर राग से देखना नहीं।
भव्यजनानुचरित, निःशंकित, निर्भय, निस्तुष (विशुद्ध तन्दुलकल्प), जहां स्त्री-पुरुष दोनों का निवास हो, उनका शयनखंड हो निरायास (खेदरहित), निरुपलेप, निवृत्ति का घर, निष्कंप, तपःसंयममूल, वहां बीच में एक दिवार होने पर भी नहिं रहना, उनकी महाव्रत रक्षक, समितिगुप्तियुक्त, ध्यानरक्षक, दुर्गतिनाशक, सुगतिपथदर्शक, बाते नहीं सुनना।
लोकोत्तम, पद्मसरोवर की पालीभूत, क्षान्त्यादिगुणयुक्त, विनयादि गृहस्थ जीवन संबंधी पूर्व भोगों को याद नहिं करना। गुणों का समूह हैं।
सदा छ: विगईयुक्त (एकसाथ) स्निग्ध आहार नहीं करना। (8) अत्यधिक आहार या प्रमाणरहित आहार नहीं करना। 96. अ.रा.भा. 5, 'पडिक्कमण' शब्द, 6/425; श्रमणसूत्र, चतुर्थ आलापक (9) देह विभूषा (टाप-टीप) नहीं करना ।100
97.3 योग (मन-वचन-काया) x 3 करण (करण-करावण-अनुमोदन) = मैथुन के दोष/अब्रह्म से हानि :
9x4 संज्ञा (आहारादि) = 36 x 5 इन्द्रियाँ (स्पर्मादि) = 180 x
10 (5 स्थावर + 4 त्रसकाय + 1 अजीव) = 1800 x 10 यतिधर्म जैनागमों में कहा है कि स्त्री की योनि में 9 लाख पंचेन्द्रिय
(क्षमादि) = 18000 भेद शीलाङ्ग रथ के होते हैं। अ.रा.पृ. 1/251, 252 मनुष्य, लाख पृथकत्व (2 से 9 लाख) द्वीन्द्रिय एवं असंख्य संमूच्छिम
98. अ.रा.पृ. 6/425, एवं भा. 5, पडिक्कमण शब्द गर्भज जीव होते हैं। (यह संख्याप्रमाण जैनागमानुसार है)। जैसे रुई 99. अ.रा.पृ. 6/425 से भरी नली में अग्नि तप्त लोहशलाका का प्रवेश होते ही समस्त 100. श्रमण नामातिचार सूत्र - चतुर्थ आलापक रुई जलकर भस्म हो जाती है, वैसे ही स्त्री की योनि में रहनेवाले 101. संबोध सत्तरि प्रकरण-83, 85, 87 ये जीव पुरुष के संयोग से नष्ट होते हैं अर्थात् मैथुनसंज्ञारुढ इन जीवों
102. वही अ.रा.पृ. 6/426, 428; भगवती सूत्र 2/5; संबोधसत्तरीप्रकरण 84,
86 का नाश करता है ।102 अब्रह्म भयंकर, सर्व प्रमाद का मूल, अनन्तसंसार
103. अ.रा.पृ. 6/426 से 428 भ्रमण का हेतु, अधर्म का मूल, महादोषोत्पादक है। 103 अत: परमात्माने
104. अ.रा.पृ. 6/429 कहा है- भ्रष्टशील व्यक्ति के दर्शन करने मात्र से भी प्रायश्चित आता
105. चरक संहिता 3/38 पृ. 701 है।104 अतिमैथुन से अकाल मृत्यु होती है ।105 मैथुनासक्ति से मित्र
106. अ.रा.पृ. 1/679 शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं।106 शाश्वतधर्म के ब्रह्मचर्य विशेषांक में 107. 'शाश्वत धर्म', ब्रह्मचर्य विशेषांक, जुलाई-अगस्त 1997, पृ. 36 एवं 37 कहा है - "युवावस्था में ब्रह्मचर्य के द्वारा वीर्य की विशेष रुप 108. अ.रा.पृ. 6/1259-60-61
(5)
जहा
(7)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org