Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 327
________________ [278]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. ओघोपधि : का निमित्त नहीं होता, अपितु अध्यवसाय विशेष गुणस्थान की प्राप्ति में अभिधान राजेन्द्र कोश में 'ओघोपधि' का वर्णन करते हुए निमित्त होता है। वस्त्रादि आत्मदर्शन में बाधक नहीं है।134 ज्ञानादि के कहा है कि 1. पात्र 2. पात्रबन्ध (वस्त्र का टुकडा) 3. पावस्थापन पोषण में निमित्तभूत देहस्थिति के लिए ही वस्त्रादि धर्मोपकरण ग्रहण (कम्बल का टुकडा - जिस पर पात्र रखे जाते हैं) 4. पात्र केसरिका । किये जाते हैं। जिन लोगों का संहनन बल उतम नहीं है, चित्तपरिणाम (पुंजणी) 5. पडला (पात्र ढंकने हेतु वस्त्र) 6. रजस्त्राण (पात्र की सुरक्षा विशिष्ट श्रुताध्ययन से परिकर्मित नहीं है जो एसी वसति (निवास) के हेतु-इसमें पात्र वींटे जाते हैं) 7. गुच्छा - ऊनी मोटे वस्त्र के टुकडे परिहार में प्रयत्नशील है जिसमें कालातिक्रान्तादि दोषों का संभवहेतु हो, (पात्र की सुरक्षा हेतु) 8-10 तीन प्रच्छादक (2 सूती +1 ऊनी कम्बल) जो षड्जीवनिकाय की हिंसा स्वरुप अग्नि आदि के आरंभ-समारंभ से 11. रजोहरण (ओघा) 12. मुखसंपोतिका (मुहपत्ति) 13. मात्रक और दूर रहते हैं। -एसे इस काल के मुनियों को तीव्र शीत आदि उपद्रवों में 14. चोलपट्टा (साधु का अधो वस्त्र) -इन 14 उपकरणों में से प्रथम 12 शरीर स्थिति की सुरक्षा वस्त्रादि ग्रहण भी न्याययुक्त हैं।135 क्योंकि जिनकल्पी मुनि के और सभी 14 उपकरण स्थविरकल्पी मुनि के होते यति (मुनि) को लज्जा, संयम, जुगुप्सानिवारण औरदुस्सह शीतादि हैं । 126 तथा साध्वी के 1 से 13 उपरोक्तानुसार और (14) चोलपट्ट के से बचने हेतु वस्त्र धारण करना चाहिए तथा संयम रक्षा हेतु अपेक्षित स्थान पर कमठक (शाटक) 15. अवग्रहानन्तक 16. पट्ट 17. अोरुक वस्त्र, पात्र, कम्बलादिधर्मोपकरण को ग्रहण करना चाहिए । वस्त्र 18. बलपिका 19. आभ्यन्तर निवसिनी 20. बहिनिवसिनी 21 कञ्चक ग्रहण से हिमकणवर्षी शीतकाल में यतनापूर्वक वस्त्रावरण से समूची 22. औपकक्षिकी 23. एककक्षिकी 24. संघाटी (चद्दर/पांगरणी-एक रात जागनेवाले साधुओं के स्वाध्याय में निर्वाह होता है; सचित्त पृथ्वी, युगल वस्त्र में चार) 25. स्कन्धकरणी - ये 25 उपकरण यथावश्यक धूमिका, वृष्टि, अवश्याय (अप्काय का भेद), रज और प्रदीप के तेजादि हैं। 127 की रक्षा होती है, मृत साधु के ऊपर आच्छादन, बहिर्गमन, शीत से 2. औपग्रहिक उपधि : मरणासन्न साधु की प्राणरक्षा में भी वस्त्र उपयोगी होते हैं। इसी प्रकार निषद्या, दण्ड, पादपोञ्छन, प्रमार्जनी (दण्डासन), घडा, आकाश से गिरने वाले रजःकण, धूली आदि के प्रमार्जन में मुखवस्त्रिका पिष्पलक, सुई, नखकतरणी, दाँत-कान साफ करने की शलाका, (मुंहपत्ति), आदान-निक्षेप क्रिया में पूर्वप्रमार्जन हेतु तथा संयम के चिह्न आदि औपग्रहिक उपधि है। 128 तथा आवश्यकतानुसार अक्ष (चंदन) हेतु रजोहरण, वायु आदि से जन्य विकारयुक्त लिङ्ग के संचरण हेतु से निर्मित आचार्यश्री (स्थापनाचार्य), संथारा, पाट, पटिया, पादलेखनी, चोलपट्ट की उपयोगिता हैं।137 पुस्तक, चिलिमिलि (परदा) आदि ग्रहण करना - यह भी औपग्रहिक इसी प्रकार पात्र से ही विधिपूर्वक धारण करने से अनाभोगपूर्वक उपधि है। इसमें भी चातुर्मास में दुगुना संथारा, तीन-चार या पाँच या (अनजान में) ग्रहण किये गये गोरसादि संसक्त पदार्थों की रक्षा होती है; जीर्णादि अवस्था में सात युगल वस्त्रादि, तीन मात्रक, पाँच परदा द्रव आहार नीचे नहीं गिरता, कुंथु आदि जीवों की विराधना नहीं होती, इत्यादि अधिक ग्रहण किये जाते हैं।129 तथा द्रव्य, क्षेत्र-काल गृहस्थ के बर्तनो को उपयोग में लेने का प्रसङ्ग उपस्थित नहीं होने से भावादि के अनुसार आचार्य, गणावच्छेदक, प्रवर्तिनी आदि दूनी या प्रक्षालन, प्रत्यावर्तनादि पश्चात्कर्म के पाप के निमित्त से यति बचचौगुनी उपधि रखें ।130 ये दोनों तरह की उपधि मान (नाप), भोग सकता है। ग्लान, बाल, वृद्ध, शिष्य, प्राघुणक (आगंतुक मुनि), गुरु, (उपयोग), गणना और प्रमाणयुक्त होती है। उसके अभाव में मुनि को शैक्ष, नवदीक्षित, असहिष्णु राजपुत्रादिरुप मुनि आदि की वैयावृत्त्य हेतु प्रायश्चित प्राप्त होता है। तथापि मुनि के आवश्यक उपकरण और पात्र आवश्यक है, क्योंकि पात्र के बिना इन्हें आहार लाकर देना संभव द्रव्य-क्षेत्रादि कारणों से मुनि /गणावच्छेदक /आचार्य /प्रवर्तिनी आदि नहीं हैं।138 के द्वारा गृहीत वस्त्रादि उपधि की अधिकता देखकर गृहस्थ एसा न लाभ:सोचे कि इनको इतना तो परिग्रह है फिर भी ये अपरिग्रह कैसे? जैसे पाली (पानी के बहाव को रोकने के लिए मिट्टी से अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थविरकल्पी अपरिग्रही बनायी गयी पाल) का नाश होते ही सरोवर का समस्त जल चला मुनि के उपरोक्तानुसार धर्मोपकरणों का वर्णन करते हुए कहा है कि जाता है, वैसे ही परिग्रह के साथ परिग्रह के ऊपर की मूर्छा भी 'धर्मोपकरण परिग्रह नहीं है । यहाँ परिग्रह की परिभाषा को स्पष्ट करते यावत् धर्मोपकरण पर भी मूर्छा नष्ट होते ही मुनि की समस्त कर्मरुपी हुए कहा है कि जिस द्रव्यादि के रखने से कर्मबंधन होता हो अर्थात् 126. अ.रा.पृ. 2/1089 127. अ.रा.पृ. 2/1091 आरंभ-समारंभादि कार्यो की वृद्धि होने से नये कर्मबंधन उत्पन्न होते 128. अ.रा.पृ. 2/1092 हों वह परिग्रह कहलाता है, और जो धर्मोपकरणादि कर्मनिर्जरा (कर्मो 129. अ.रा.पृ. 2/1092-93 का शनैः शनैः नाश) हेतु/रखे जाते हों वह परिग्रह नहीं है ।132 पूर्व में 130. अ.रा.पृ. 2/1091 भी कहा गया है कि मूर्छा परिग्रह है, धर्मोपकरण नहीं । जैसे गृहस्थजन 131. अ.रा.पृ. 2/1093 132. तत्वार्थ सूत्र-7/12 सुख (भौतिक सुख) की प्राप्ति हेतु परिग्रह रखते हैं, वैसे साधु नहीं 133. अ.रा.पृ. 2/2737 रखते। साधु तो संयम में उपकारी; जिसकी सहायता के बिना 134. शाखवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 41 संसारसागर पार उतरना असंभव है, वैसे आगमोक्त धर्मोपकरण 135. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 43, 44, 359, 360 मात्र रखते हैं, अतः धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं। आगे, जो लोग 136. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 43, 44, 359, 360; स्थानांग 3/3/171 वस्त्रादि को परिग्रह मानते हैं उन्हें लक्ष्य कर के कहा गया है - वस्त्रादि 137. शास्त्रवार्ता समुच्चय-9/4 पर टीका, पृ. 46, 47, अ.रा.पृ. 3/231 धारण करने मात्र से प्रमाद का उदय या प्रमत्त गुणस्थान पद की प्रवृत्ति 138. अ.रा.पृ. 5/407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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