Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
View full book text
________________
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अहिंसा का पालन किया जाता है अत: अहिंसा 'धृति' हैं। समृद्धि का कारण होने से अहिंसा को समृद्धि, ऋद्धि और वृद्धि कहा है। मोक्ष तक सादि अनंत स्थिति का कारण होने से अहिंसा को 'स्थिति' कहा है। पुण्य का संचय करानेवाली होने से अहिंसा 'पुष्टि' है। समृद्धि को लाने वाली होने से 'नन्दा' और कल्याणकारी होने से अहिंसा को 'भद्रा' कहा है। पापक्षय का उपाय होने से जीवन की निर्मलता स्वरुप होने के कारण अहिंसाको 'विशुद्धि' कहा है। केवलज्ञानादि लब्धि का निमित्त होने से अहिंसा को 'लब्धि' कहा है। सर्वदर्शनों में मुख्य एसे जैन दर्शन का प्रधान मत (जीवदया लक्षण मुख्य मत) होने के कारण अहिंसा को 'विशिष्ट दृष्टि' कहा है। कल्याण प्राप्तिकारिणी होने से इसे 'कल्याण' कहा है । दुरित (पाप) की शांतिकारिणी होने से इसे 'मङ्गल' कहा है। प्रमोद की उत्पादिनी होने से इसे 'प्रमोद' कहा है। सर्वविभूति का कारण होने से इसे 'विभूति' कहा है। जीवों की रक्षा करने के स्वभाववाली होने से 'अहिंसा' को 'रक्षा' कहा है। मोक्ष रुपी घर का मुख्य कारण होने से अहिंसा को 'सिद्धावास' कहा है। कर्मबंधन को रोकने का उपाय होने से अहिंसा को 'अनास्रव' कहा है। केवलि भगवंतो की अहिंसा (का पालन) व्यवस्थित होने से इसे केवलियों का स्थान (निवास) कहा है। शांति (कल्याण, मोक्ष) का हेतु एवं सम्यक् प्रवृत्तिवती हो से इसे 'शिवसमिति' कहा है। शील और संयम अहिंसा से उपचरित होने से उसे 'शीलसंयम' कहा है। चारित्र का स्थान होने से इसे 'शीलधर' कहा है। कर्मों के आगमन को रोकने के कारण इसे 'संवर' कहा है। अशुभ- मन-वचन-काय का निरोध करने के कारण इसे 'गति' कहा है। विशिष्ट निश्चयवाली होने से अहिंसा को 'ववसाय' कहा है। उन्नत स्वभाव के कारण इसे 'उच्छ्रयः' कहा है। भावदेवपूजा होने से इसे 'यज्ञ' कहा है। गुणों का आश्रय होने से इसे 'आयतन' कहा है। अभयदान एवं प्राणिरक्षा हेतु प्रयत्न के कारण इसे 'यत्न' कहा है। अहिंसा प्रमाद रहित होने से 'अप्रमाद', प्राणियों का आश्वासन होने से 'आश्वास', विश्वासपात्र होने 'विश्वास' प्राणियों को अभयदाता होने से अभय, प्राणिघात रहित होने से 'अमारि', अतिशय पवित्र होने से 'चोक्षपवित्रा' कहा है। सत्य, तप, इन्द्रिय-निग्रह, जीव दया और जल शौच-इन शुद्धियुक्त एवं भाव शुद्धि रुप होने से अहिंसा को 'शुद्धि' कहा है । 27 भाव से देवता के अर्चन (पूजन) स्वरुप होने से इसे 'पवित्रा' कहा है। मलरहित प्रभावशाली होने से इसे 'विमल प्रभा' कहा है और जीव को अतिशय निर्मल करनेवाली होने से इसे 'निर्मलतरा' कहा है।
इस प्रकार आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में अहिंसा-भगवती के तद्धर्मार्जित गुणनिर्मित यथार्थ पर्यायवाची नामों का वर्णन किया हैं। 28 आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का संपूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं । सभी नैतिक नियम और मर्यादाएँ इसके अन्तर्गत है; आचार-नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जन साधारण को सुलभ रुप से समझाने के लिए भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं। 29 भगवती आराधना में कहा गया है अहिंसा सब आश्रमों का हृदय हैं, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) हैं 130
-
हिंसा
:
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अहिंसा की परिभाषा - देते हुए कहा है
चतुर्थ परिच्छेद... [271]
‘“प्राणवियोग प्रयोजक व्यापार 2, प्रमाद या अनुपयोगपूर्वक की क्रिया-33, जीववध 34, प्रमाद के कारण प्राणियों की हिंसा, वध, बंधनादि रुप पीडा, दश प्राणों का वियोगीकरण हिंसा हैं।
Jain Education International
अभिधान राजेन्द्र कोश में वेदविहित हिंसा, एकान्त नित्यवादी और एकान्त अनित्यवादी की हिंसा और द्रव्य अहिंसा (जिसमें द्रव्य से तो अहिंसा हो परन्तु भाव से हिंसा हो) को हिंसा कहकर 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' - इस वाक्य का सम्मतितर्कानुसार दार्शनिक चर्चापूर्वक खंडन किया गया है। 36
हिंसा के प्रकार :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दो प्रकार की हिंसा बताई हैं” - 1. संकल्पी - मारने की बुद्धि से जीव हिंसा करना, और 2. आरम्भी कृषि आदि आजीविका एवं गृहस्थ जीवन व्यापारव्यवहार में होने वाली हिंसा ।
यहाँ मुनि तो संकल्पी एवं आरंभी दोनों प्रकार की हिंसा के कृत- कारित - अनुमोदन का त्याग करते हैं परन्तु गृहस्थ श्रावक से कृषिव्यापार - रसोई आदि संबन्धी हिंसा का संपूर्ण त्याग संभव नहीं होने से गृहस्थ बिना कारण संकल्पी हिंसा का त्याग करता है और आरंभी हिंसा भी करनी पडे तो जीवदया के परिणामपूर्वक अनुकंपायुक्त हृदय से अनावश्यक आरंभ - समारंभ का त्याग करता है, पाप व्यापार युक्त आजीविका, 15 प्रकार के कर्मादान (देखिये- श्रावक का भोगोपभोग परिणाम व्रत) का त्याग करता है। 38
रत्नकरंडक श्रावकाचार में आरंभी हिंसा के तीन भेद करते हुए हिंसा के 1. संकल्पी 2. आरंभी 3. उद्योगी 4. विरोधी हिंसा के ये चार प्रकार दर्शाये हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार श्रावक संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, और आरंभी हिंसा में यतना (जीवदया) पूर्वक वर्तता है, उद्योगी हिंसा में जीव हिंसामय व्यापार, निंद्य कर्म, निंद्य आजीविका का त्याग करता है तथा अभिमान से, वैर से, धन लोभ से तथा लूट आदि करने के लिए दीन-दुःखी निर्बल को नहीं मारे, अपितु केवल दीन-दुःखी, अनाथ, धर्म और साधर्मी की रक्षा हेतु ही शस्त्र धारण करें, अन्यथा नहीं ।
हिंसा-अहिंसा की चतुर्भङ्गी
है
-
1.
28.
29.
30.
:
अभिधान राजेन्द्र कोशानुसार अहिंसा की चतुर्भङ्गीं निम्नानुसार
द्रव्य से अहिंसा, भाव से हिंसा किसी व्यक्ति के द्वारा मंद प्रकाश में रस्सी को सर्प मानकर तलवारादि के द्वारा उसे मारने हेतु दौडने पर उसके हिंसक परिणाम होने से अथवा अनुपयोगी
27. अ. रा.पू. 1/873, 1161 एवं 7/1004, 1165 प्रश्नव्याकरण-1 संवरद्वार; चाणक्य राजनीति शास्त्र - 3/42; स्कन्द पुराण- काशी खण्ड-6
अ.रा. पृ. 1/872
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - 42
भगवती आराधना - 790
31. अ.रा. पृ. 7/1228
32.
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका - 21
33. दशवैकालिक, 4 अध्ययन, सूत्र ।
34.
कर्मग्रंथ 1/61
35.
स्थानांग - 4/1
36. अ. रा.पू. । अहिंसा शब्द, पृ. 1/878; भा. 7, हिंसा शब्द पृ. 1 / 1229
37. अ.रा. पृ. 5/846
38.
39. रत्नकरंडक श्रावकाचार, पृ. 89, 90, 91
अ. रा. पृ. 5/846, 847; रत्नकरंडक श्रावकाचार-53
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org