Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [269]
पञ्च महाव्रत
व्रत (वय):
अभिधान राजेन्द्र कोष में 'वय' शब्द वचन, गोकुल, व्रत (नियम), वय (उम्र), व्यय (खर्च) और वाक्य इन अर्थो में दिया गया है। यहाँ 'वय' शब्द का 'व्रत' अर्थ अभीष्ट होने से इसी की व्याख्या की जायेगी।
व्रत शब्द का शाब्दिक अर्थ 'नियम' किया गया हैं। जैनागमों में 'व्रत' शब्द जैन साधुओं के प्राणातिपातादि पंच महाव्रत और छठवें रात्रिभोजनविरमण व्रत के अर्थ में प्रयुक्त हैं । प्रवचनसारोद्धार में मूलगुणों के विषय में 'व्रत' शब्द का प्रयोग किया है।
प्रथम तीर्थंकर के समय में सुख-संपन्न काल में रहने से जीवों को भिक्षादि एवं शीतोष्ण परिषहादि का सहन दुष्कर होता है तथा दाता उपशान्त होने से प्रमाद से स्खलना होने से शिष्यों को अनुशासित करना दुःशल्य होता है और अंतिम श्री महावीर शासन के साधु प्रायः मिथ्यात्वी, शीतरहित, दुविर्दग्ध बुद्धिवाले होते हैं अत: उन्हें शास्त्र समझाना बहुत कठिन है और दुःषम काल की रुक्षता के कारण और विविध प्रकार के शारीरिक रोगो और मानसिक दुःखों के कारण पीडित होने से, धैर्यबल का अभाव होने से उनको परिषहादि सहना अति दुष्कर होता है। मध्यम तीर्थंकरो के साधु ऋजु-प्रज्ञ होने से उनमें प्रायः कषायों की मंदता होने से उनको अनुशासित करना सहन-सरल होता है।
काय-मान से पुरुषों के परिणाम की भिन्नता के कारण जैनधर्म प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड होने से तथा अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड होने से प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन में साधुओं के पांच महाव्रत और मध्यम 22 तीर्थंकरों के साधु ऋजु-प्राज्ञ होने से उनके शासन में मैथुनविरमणव्रत को छोडकर चार महाव्रतों के पालन का विधान किया गया है। इसका कारण बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है कि 'यदि प्रथम तीर्थंकर के साधुओं को अलग से मैथुनविरमण व्रत का उपदेश न दिया जाय तो जडबुद्धि होने से वे समझ नहीं पायेंगे कि हिंसादि चार आस्रवों का त्याग किया तो मैथुन भी त्याज्य है, और अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र-जड होने से जानते हुए भी परपरिगृहीत स्त्री का प्रतिसेवन करेंगे और कहने पर कहेंगे कि हमें पहले क्यों नहीं कहा? इसलिये प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामीने पांच महाव्रतों का विधान किया। जब कि बीच के । तीर्थंकरों (श्री अजितनाथ से श्री पार्श्वनाथ तक के 22 तीर्थंकरों) के साधु ऋजु-प्राज्ञ होने से परिग्रह का निषेध करने मात्र से प्राज्ञत्वात् तीव्र क्षयोपशम वाले होने से स्त्री परिग्रह का कारण होने से अपरिग्रहीत या परपरिग्रहीत स्त्री का उपभोग नहीं करना चाहिए अतः परिग्रह के त्याग से मैथुन भी त्याज्य है - एसा स्वयं ही हेयोपादेय बुद्धि से विचार करके त्याग कर देते हैं, अत: उन्हें चार महाव्रत का विधान किया गया क्योंकि वे मैथुनविरमण व्रत को अपरिग्रह व्रत में अन्तर्भावित समझकर स्वयं ही त्याग कर देते हैं।
मोक्ष के साधक साधु को सर्वसावध का त्याग करके, मन, वचन और काय से कृत-कारित-अनुमोदन पूर्वक यावज्जीव इन महान् व्रतों को ग्रहण करना चाहिए और आजीवन अखंड पालन करना चाहिए। क्योंकि व्रत भंग करके जीवित रहने की अपेक्षा जलती अग्नि में प्रवेश करना अच्छा है।
महाव्रत :
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने महाव्रतों का वर्णन करते हुए कहा है कि सर्वथा हिंसात्याग अथवा प्राणातिपातादि निवृत्ति लक्षण बडे व्रत/नियम को 'महाव्रत' कहते हैं। महाव्रतों को सर्वजीव, सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि की अपेक्षा से विषय (व्याप्ति) की विशालता के कारण 'महाव्रत' कहते हैं। जिनेन्द्र वर्णीने कहा है कि 'महाव्रत महान् मोक्ष रुप अर्थ की सिद्धि करते हैं; तीर्थकरादि महान् पुरुषोंने इसका पालन किया हैं। इसमें सर्व पापयोगों का त्याग होने से स्वतः महान् हैं, पूज्य हैं, इसलिये इनका नाम महाव्रत हैं।
अकेले या सभा में दिवस में रात्रि में, सोते या जागते किसी भी अवस्था में हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पाँचों आस्रवों का मन-वचन-कायसे कृत-कारित-अनुमोदनपूर्वक सर्वथा त्याग करना साधु का महाव्रत हैं।' पाँच महाव्रत और छठा रात्रि भोजन निम्नानुसार हैं
1. सर्वथा प्राणातिपात विरमण व्रत/अहिंसा महाव्रत 2.सर्वथा मृषावाद विरमण व्रत/सत्य महाव्रत 3. सर्वथा अदत्तादान विरमण व्रत/अचौर्य महाव्रत 4. सर्वथा मैथुन विरमण व्रत/ब्रह्मचर्य महाव्रत 5.सर्वथा परिग्रह विरमण व्रत/अपरिग्रह महाव्रत
और महावीरशासन में छठा रात्रि भोजन विरमण व्रत भी मूलगुण में आता हैं।
चरम तीर्थपति श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी ने सुधर्मा स्वामी को और उन्होंने जम्बू स्वामी को इन पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है। जो परंपरागत जैनागमानुसार अभिधान राजेन्द्र कोश में विस्तृत रुप से वर्णित हैं। यहाँ अति संक्षेप में महाव्रतों का परिचय दिया जा रहा हैं। सर्वथा प्राणातिपात विरमण : प्रथम महाव्रत :
जैन मुनि के साध्वाचार की आधारशिला पंच महाव्रत हैं, जिसमें प्रथम महाव्रत हैं - अहिंसा महाव्रत अर्थात् - सर्वथा प्राणातिपात
1. 2. 3. 4. 5.
अ.रा.प. 6/885,886 वही अ.रा.प. 6/885,886 अ.रा.पृ. 6/886 अ.रा.प. 6/181 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-3/628; जिनागमसार, पृ. 762 अ.रा.पृ. 6/181; रत्नकरंडक श्रावकाचार-53 अ.रा.पृ. 6/181; साधु प्रतिक्रमण, पाक्षिक सूत्र अ.रा.पृ. 6/181
7. 8. 9.
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