Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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4.
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [265] (त्याग का) गुरु की साक्षीपूर्वक त्याग का कथन 4 (पाप व्यापार या
तप आचार्यादि की वैयावृत्त्यादि एवं अन्य आवश्यक कृत्यों में त्याज्य से) निवृत्ति रुप प्रतिज्ञा करना, स्वेच्छापूर्वक की प्रवृत्तियों का
अन्तराय होने की संभावना होने पर पर्युषण पर्व के पहले ही मर्यादापूर्वक विवक्षित समय के लिये त्याग करना या मूलगुण-उत्तरगुण
करना। रुप इष्टार्थविषयनिवर्तन86, अथवा जिससे मन-वचन-काय की क्रिया
अतिक्रान्त - उपरोक्त कारण उपस्थित होने पर वह तप पर्व जाल के द्वारा किंचिद् अनिष्ट का निषिद्ध किया जाता है, उसे 'प्रत्याख्यान'
पूर्ण होने के पश्चात् करना। कहते हैं।87
3. कोटिसहित - उपवास के साथ एकाशन या आयंबिल मिलाकर प्रत्याख्यान के भेद :
चतुर्थभत्त (तप) प्रत्याख्यान करना। आवश्यक बृहद्वृत्ति में प्रत्याख्यान के निम्नाङ्कित छ: प्रकार
नियंत्रित - निश्चित दिन पर ग्लानादि सेवा में अन्तराय उत्पन्न दर्शाये हैं88
होने पर भी करने योग्य तप करना। 1. नाम प्रत्याख्यान - प्रत्याख्यान के भिन्न-भिन्न नाम 189
साकार(सागार) - अनाभोग, सहसात्कारादि आगार (अपवाद 2. स्थापना प्रत्याख्यान - काल, संकेत प्रत्याख्यान आदि में
समय में छूट) पूर्वक किया जाने वाला नवकारसी आदि तप। प्रत्याख्यान हेतु घडी, रस्सी, अंगूठी आदि रखा जाता है जिससे 6. अनाकार (अनागार) - उत्सर्ग-अपवाद दोनों स्थितियों में प्रत्याख्यान की काल मर्यादा तय की जाती है; स्थापना किसी भी प्रकार के आगार (छूट) रहित करने योग्य तप। प्रत्याख्यान कहलाता है।
7. परिणामकृत - गृह, द्रव्य (पदार्थ, विगई, दत्ती, कवल) आदि द्रव्य प्रत्याख्यान - वस्त्र, द्रव्य आदि निमित्त किये गए
के भार (वजन) या संख्या की मर्यादा करके शेष के त्याग के प्रत्याख्यान 'द्रव्य प्रत्याख्यान' हैं। अभव्यों के द्वारा संवेगादि
नियम/प्रत्याख्यानपूर्वक किया जानेवाला तप। के परिणाम रहित किया गया प्रत्याख्यान तथा भव्यात्माओं द्वारा
निरवशेष - समस्त / चारों प्रकार के आहार के त्यागपूर्वक भी भावरहित, वीर्योल्लासरहित, अविधिपूर्वक किये गए
किया जानेवाला उपवास, छठ, अट्ठमादि तप। प्रत्याख्यान और यशः, कीर्ति, विद्या, लब्धि आदि की प्राप्ति
9. संकेत - किसी चिह्नपूर्वक किया जाने वाला तप। जैसे - की इच्छा से किया गया प्रत्याख्यान, द्रव्य प्रत्याख्यान हैं ।92
गधा बोलेगा जब मुँह में पानी लूंगा या कायोत्सर्ग का त्याग क्षेत्र प्रत्याख्यान - नगर,गाँव, देश प्रदेशादि किसी क्षेत्र विशेष
करूँगा । जब तक दीपक की लौ जलती रहेगी तब तक ही में गमनागमन करने के त्याग रुप प्रत्याख्यान करना 'क्षेत्र
आहार करूँगा इत्यादि। प्रत्याख्यान' कहलाता हैं।
10. अद्धा प्रत्याख्यान - पोरिसी (सूर्योदय से एक प्रहर) आदि अदिच्छा/अदित्सा प्रत्याख्यान - गृहस्थ के गर पर श्रमण,
काल तक किये जानेवाले प्रत्याख्यान । ब्राह्मण का आगमन होने उनके द्वारा याचना की गई वस्तु, अद्धा प्रत्याख्यान के भेद98 :आहार, वस्त्रादि उन्हें देने की इच्छा न होने पर उस आहारादि 1. नवकारसी - सूर्योदय पश्चात् 48 मिनिट के बाद मुट्ठी बाँधकर के लिए मना करना ‘अदित्सा प्रत्याख्यान' हैं । 94
तीन बार नवकार मंत्र गिनने के पश्चात् ही आहार-जल आदि भाव प्रत्याख्यान - शुभ भाव उत्पन्न होने पर भव्यात्मा के
मुँह में रखना। द्वारा किये जानेवाला सावध योग (हिंसादि क्रिया व्यापार) के
2. पोरिसी- एक प्रहर दिन चढने के पश्चात् आहार-जल आदि निषेध रुप त्याग/नियम को भाव प्रत्याख्यान कहते हैं ।95
मुँह में रखना। भाव प्रत्याख्यान के भेद-प्रेभेद :
साढपोरिसी - डेढ प्रहर दिन चढने के पश्चात् आहार-जल भाव प्रत्याख्यान संक्षेप में दो प्रकार से हैं - (क) श्रुत
आदि मुँह में रखना। प्रत्याख्यान और (ख) नोश्रुतप्रत्याख्यान । श्रुतप्रत्याख्यान के दो प्रभेद
पुरिमार्घ (पुरिमट्ठ) - आधा दिन होने पर आहार-जल आदि हैं - 1. पूर्वश्रुत प्रत्याख्यान अर्थात् नौवाँ प्रत्याख्यान पूर्व। 2.
मुँह में रखना। नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान अर्थात् आतुर प्रत्याख्यानादि पूर्व बाह्य अध्ययन । 84. अ.रा.पृ. 5/85, आवश्यक मलयगिरि-अध्ययन-1 नोपूर्व श्रुत प्रत्याख्यान के मुख्य दो उपभेद हैं - (1) मूलगुण नोपूर्वश्रुत 85. वही, स्तानांग-3/4 प्रत्याख्यान - साधु के पंच महाव्रत सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान है और ।
86. वही, प्रवचन सारोद्धार-1 द्वार श्रावक के पाँच अणुव्रत एक प्रकार से देशमूलगुण प्रत्याख्यान हैं । (2)
87. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-6 उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान - साधु के पिण्डविशुद्धि, अथवा
88. अ.रा.पृ. 5/85
89. वही अनागतादि दश प्रकार के प्रत्याख्यान और श्रावक के तीन गुणवत, चार
90. वही शिक्षाव्रत आदि उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान हैं। अथवा उत्तरगुण
91. अ.रा.पृ. 5/86 नोपूर्वश्रुत प्रत्याख्यान दूसरे प्रकार से - (क) यावत्कथित - साधु के वे
92. अ.रा.पृ. 5/87 प्रत्याख्यान जो दुष्काल, अरण्यादि में भी अनिवार्य रुप से पालन करने
93. अ.रा.पृ. 5/85, 86 योग्य हैं; और (ख) इत्वरकथित- श्रावक के तीन गुणव्रत।
94. वही अनागतादि 10 प्रकार के उत्तरगुण नोपूर्वश्रुत 95. अ.रा.पृ. 5/86 प्रत्याख्यान” :
96. अ.रा.पृ. 5/88, आवश्यक बृहद्वृति -4 /5से 7
97. अ.रा.पृ. 5/98, आवश्यक बृहदृति -6 /2-3 1. अनागत - पर्युषणादि पर्व दिनो में किया जानेवाला अट्ठमादि
98. अ.रा.पृ. 5/98
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