Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रतिक्रमण की आवश्यकता '5 :
अभिधान राजेन्द्र कोश में साधक को प्रतिक्रमण करने का कारण बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि "यदि पाप लगा हो तो नष्ट हो जाये, वर्तमान में लगे नहीं और प्रत्याख्यान के कारण भविष्य में भी विपरीत आचरण करने की शक्यता न रहे, इस हेतु प्रतिक्रमण किया जाता हैं । साधक मुनि गुरु साक्षी से गुरु वंदन पूर्वक प्रतिलेखन, प्रमार्जन में (यदि) प्रमाद हुआ तो उसकी आलोचना करते हैं। देववंदनगुरुवंदन पूर्वक प्रतिक्रमण करने पर षडावश्यक में पंचाचार का पालन होता है। सामायिक में चारित्राचार, चतुर्विंशतिस्तव (देव वंदणा) में, दर्शनाचार, वंदन (वांदना) से ज्ञानाचार, प्रतिक्रमण से अतिचारों का अपनयन, कायोत्सर्ग से दोषों की विशुद्धि और प्रत्याख्यान में आवश्यक तपाचार और इन समस्त क्रियाओं में वीर्याचार का पालन एवं विशुद्धि होती हैं।
एर्यापथिक प्रतिक्रमण - गमनागमन, चैत्यवंदन, उपाश्रय से 100 हाथ से अधिक दूर जाकर पुनः उपाश्रय में आने पर 100 हाथ के मध्य में भी मल-मूत्रादि त्यागने पर और प्रातः सायं प्रतिक्रमण करते समय और अन्य भी धार्मिक क्रिया के प्रारंभ में एर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता हैं। अर्थात् इरियावहियं .... आदि करके 1 लोगस्स (25 श्वासोच्छ्वास) का कायोत्सर्ग किया जाता है। 7 दैवसिक - रात्रिक प्रतिक्रमण :
दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में दिवस संबंधी अतिचार का प्रतिक्रमण करते समय मन वचन काया से हुए उत्सूत्र प्ररूपणा, उन्मार्ग गमन, अकल्पनीय ग्रहण, अकार्यकरण, दुर्ध्यान, दुष्ट चिन्तन, अनाचार, अनिच्छित की इच्छा, अश्रमण प्रायोग्य कार्य करना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रुत, सामायिक, तीन गुप्ति, चार कषाय, पाँच महाव्रत, छः जीवनिकाय, सात पिंडैषणा, आठ प्रवचनमाता, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुतियाँ, और 10 श्रमण धर्म (क्षमादि) का प्रतिक्रमण किया जाता है। 78
तत्पश्चात् एर्यापथिक प्रतिक्रमण में गमनागमन संबंधी क्रिया में जीव, बीज, वनस्पति, ओस, कीडी के बिल, नील-फूल, सचित लज, सचित्त मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि को दबाने से, कुचलने से एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के किसी भी जीव को सन्मुख चोट पहुँचाना, धूल से ढँकना, परस्पर या जमीन पर मसलना, मिलाना, छूकर तकलीफ देना, कष्ट पहुँचाना, मृतः प्राय करना, त्रास देना, स्थानान्तरित करना, प्राणनाश करना - इत्यादि संबंधी जो दोष लगा हो उसके 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता है। 79
तत्पश्चात् पगामसिज्झाय सूत्र में शयन संबंधी दोषों की, खुल्ले मुँह खांसी - छींक - उबासी आने संबंधी, अप्रमार्जित या सचित रजोयुक्त भूमि के स्पर्श संबंधी, स्त्री आदि के भोग, विवाह, युद्धादि संबंधी सामग्री के स्पर्श से उत्पन्न चित्तव्याकुलता संबंधी, स्वप्न में स्त्री के साथ मैथुनसेवा संबंधी, स्त्री के सरागदृष्टि से दर्शन संबंधी, तत्संबधी मनोविकार का, रात्रि में जल या आहार संबंधी इच्छाजनित चित्त चंचलता हुई हो तो उसका 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं।
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तत्पश्चात् गोचरी/आहारचर्या के समय आहार ग्रहण संबंधी कोई दोष लगा हो तो उसको 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं।
तत्पश्चात् दिन में चार बार (दिन और रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर) स्वाध्याय नहीं करने संबंधी और दिन के प्रथम और अंतिम प्रहर में वस्त्र - पात्र उपधि आदि उपकरणों का प्रतिलेखन नहीं करने
चतुर्थ परिच्छेद... [263]
संबंधी या आगे-पीछे या उपयोगरहित करने संबंधी तथा दंडासनादि से प्रमार्जन नहीं करने या न्यूनाधिक करने संबंधी दोषों का 'मिथ्या दुष्कृत' दिया जाता हैं।
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तत्पश्चात् असंयम, राग-द्वेष, तीन दंड (मन आदि), तीन गुप्ति, तीन शल्य (माया, निदान, मिथ्यात्व), तीन गारव (ऋद्धि-रस साता का अभिमान), रत्नत्रय की विराधना, कोधादि चार कषाय, आहारादि चार संज्ञा, चार विकथा (स्त्री- भोजन- देश - राजा संबंधी) आर्त्तादि चार ध्यान, पाँच क्रिया (गमनागमन, शस्त्र, प्राद्वेषिकी, संतारिकी, जीवहिंसा संबंधी) पाँच काम गुण (शब्द, रुप, रस, गंध, स्पर्श) पाँच महाव्रत, पाँच समिति, षड् जीवनिकाय, छ: लेश्या (कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल) सात भय स्थान (इहलोक, परलोक, चोरी, अकस्माद्, मरण, अपयश एवं आजीविका), आठ मद स्थान (जाति-कुल-रुप-बललाभ - श्रुत-तप-एश्वर्य का गर्व), ब्रह्मचर्य की नव गुप्ति (नव वाड), दश श्रमण धर्म (क्षमादि), ग्यारह उपासक प्रतिमा, बारह भिक्षु प्रतिमा, तेरह क्रिया स्थान अर्थ (सप्रयोजन), अनर्थ, हिंसा, अकस्मात्, दृष्टि विपर्यास, मृषावाद (झूठ), अदत्तादान (चोरी), आध्यात्मिकी (दूसरों के विषय में संकल्प - विकल्प करना), मान, अमात्र (कम अपराध में अधिक दंड), माया, लोभ, ईर्यापथिकी (अयतनापूर्वक, गमनागमन, चौदह प्रकार के जीव स्थान संबंधी अतिचार दोष, पंद्रह परमाधामी (नारक जीवों को दुःख देने वाले) देव, सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कंध के 16 अध्ययन संबंधी असत्प्ररूपणा संबंधी अतिचार दोषों का सत्रह प्रकार के असंयम का, अठारह प्रकार के अब्रह्म (देव - देवी, स्त्री-पुरुष, तीर्यंच - तिरची संबंधी द्विविध-मैथुन x मन-वचन-काय (3 x 2 = 6) × करना, कराना, अनुमोदना x (6x3) संबंधी, ज्ञाता धर्मकथांग के 19 अध्ययनों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, इक्कीस सबल दोष (हस्तकर्म, सालम्बन मैथुन, रात्रि भोजन, आधाकर्मी आहार, राजपिण्ड, अभ्याहृताहार, छीनकर लिया हुआ आहार, त्यक्त पदार्थ, पुनः पुनः गच्छान्तर गमन, एक माह में तीन बार नदी उतरना, तीन बार माया सेवन, जानते हुए भी हिंसा, झूठ, चोरी, अशुद्ध भूमि पर आसन या गमनागमन, आसक्तिपूर्वक भूमिकंद भक्षण, एक वर्ष में दस बार सचितजलसंघट्ट (स्पर्श), एक वर्ष में 10 बार कपट सेवन, सचित जलयुक्त हाथ से आहार (ग्रहण) संबंधी, 22 परिषह संबंधी, सूत्रकृतांग के 16 अध्ययन और पुण्डरीकादि सात मिलाने पर इन 23 अध्ययनों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, चौबीस प्रकार के देवों (10 भवनपति 18 व्यंतर + 5 ज्योतिष्क + 1 वैमानिक = 24) की आशातना, विरुद्ध प्ररूपणा अथवा 24 तीर्थंकरो की अश्रद्धा, अभक्ति और आशातना संबंधी, पाँच महाव्रत की 25 भावना, दशाश्रुत स्कन्ध के 10 + जीतकल्प के 6 + व्यवहार सूत्र के 10 अध्ययन मिलाकर इन 26 उद्देशनकाल की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, साधु के सत्ताईस गुणों के पालन में हुए प्रमाद संबंधी, आचारांग के 25 एवं निशीथ सूत्र के अंतिम तीन (उपघात, अनुद्घात, आरुहणा) अध्ययन, कुल अट्ठाईस आचार-प्रकल्प की विपरीत प्ररूपणा संबंधी, अष्टांग ज्योतिष
सूत्र - वृत्ति और वार्तिक मिलकर -24 तथा गंधर्व, नाट्य, वास्तुविद्या, धनुर्वेद और आयुर्विद्या - ये पांच मिलाकर 29 पापशास्त्र की प्ररूपणा
75. अ.रा. पृ. 5/267
76.
77.
78.
79.
धर्मसंग्रह - भाषांतर पृ. 1/578
अ. रा. पृ. 5/263, बृहत्कल्प सभाष्य वृत्ति-6/348
अ.रा. पृ. 5/270-71
अ.रा. पृ. 2/630
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