Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[260]... चतुर्थ परिच्छेद
13. मैत्री दोष प्रीति की इच्छा से मैत्री निमित्त वंदन करना। गौरव दोष- ये मुझे 'यह समाचारी कुशल है' - एसा समझे, इसलिए वंदन करना ।
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कारण दोष - ज्ञानादि को छोडकर अन्य कारण जैसे- मैं वंदन करूँगा तो मुझे वस्त्रादि देंगे। एसे कारणपूर्वक वंदन
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हीलित दोष हेलना/तिरस्कार करके वंदन करना । विपरिकुञ्चित दोष आधा वंदन करके बीच में देशकथादि अन्यान्य बातें करना (फिर बाद में बाकी की आधी वंदन विधि करना) ।
दृष्टादृष्ट दोष अंधकार में (या अन्य व्यस्तता में) गुरु देखें या नहीं देखें - एसा सोचकर वंदन नहीं करना ।
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शृङ्ग दोष उत्तमाङ्ग (मस्तक) के एक भाग से वंदन करना। 25-26. करमोचन दोष- 'वंदन करना मानो कर (टेक्स) भरना है।' - एसी भावना से वंदन करना (इससे कर्मनिर्जरा नहीं होती) । अथवा इनको वंदन देने (करने) पर मुक्ति होगी- एसी भावना से वंदन करना ।
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करना ।
स्तैन्य दोष- 'मेरी लघुता होगी' एसी भावना से अपने आपको छिपाते हुए वंदन करना ।
प्रत्यनीक दोष- गोचरी (आहार) के समय वंदन करना । रुष्टदोष- क्रोधपूर्वक वंदन करना ।
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तर्जित दोष अङ्गुली से तर्जना करते हुए अथवा तुम तो काष्ठ शिव की तरह कोपायमान भी नहीं होते, प्रसन्न भी नहीं होते - इत्यादि उपालम्भपूर्वक गुरु को तर्जना करते हुए वंदना
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में अनुकूल माहात्म्य को प्राप्त कर अप्रतिहत आज्ञासार अर्थात् मोक्षफल को प्राप्त होता हैं। 34
(4) प्रतिक्रमण :
व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा में कंषायवश पद-पद पर अन्तरंग व बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन श्रेयोमार्गी (मुमुक्षु) के लिए आवश्यक है।
करना ।
शठदोष- कपटपूर्वक बिमारी आदि का बहाना करके विधिपूर्वक सम्यग्रुप से वंदन न करना ।
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आश्लिष्टानाश्लिष्ट - रजोहरण को दोनों हाथों की अंगुलियों में पकडकर मस्तक को छिपाते हुए वंदन नहीं करना ।
न्यून दोष- व्यञ्जन आवश्यक से न्यून (अधूरे) वंदन करना । उत्तरचूड दोष - वंदन करने के बाद ऊँची आवाज से 'मत्थएण वंदामि' बोलना ।
मूक दोष- सूत्र - आलापक नहीं बोलते हुए (मन में गुनगुनाते हुए वंदन करना ।
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ढड्डु दोष- बहुत जोर से बोलते हुए वंदन करना ।
32. चुडली दोष उल्कापात की तरह रजोहरण को किनारे से पकडकर घुमाते हुए वंदन करना । 31
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गुरुवंदन का फल :
सविधि दोष रहित द्वादशावर्त गुरुवंदन करने से वंदनकर्ता को विनयोपचार, मानभङ्ग, गुरुपूजा, जिनाज्ञापालन, श्रुतधर्म की आराधना एवं मोक्ष-ये छः गुण प्राप्त होते हैं। 32 जीव अनेक भवों के संचित कर्मो
क्षय करता है, आठों कर्म की प्रकृतिओं के गाढ बंधनो को शिथिल करता हैं, दीर्घकालीनस्थिति को अल्प/ हस्व करता है, तीव्ररस को मंदरस करता हैं एवं बहुप्रदेशी को अल्पप्रदेशी करता हैं | वंदन करने से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्च गोत्र कर्म का बंध करता है एवं उच्च गोत्र में उत्पन्न होता है। इसके साथ ही वंदनकर्ता जीव सौभाग्य, लोकप्रियता, अप्रतिहत आज्ञाकारिता, आदेयवाक्यता, दाक्षिण्यभाव (सभी लोकों का अनुकूल होना) सदा सर्वदा सर्वत्र सर्वावस्था
प्रतिक्रमण के अर्थ :- जैनागमों में 'प्रतिक्रमण' शब्द के अनेक अर्थ बताये गये है जो निम्नानुसार है -
1.
शुभ योग से अशुभ योग में गये हुए आत्मा का पुनः शुभ योग में लौट आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता हैं। 35 प्रमादवश स्वस्थान (अप्रमत्त चेतना का अन्तर्मुख होना) से परस्थान (प्रमत्त आत्मा का बहिर्मुख होना) में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना 'प्रतिक्रमण' हैं क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदायिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है तो यह भी प्रतिकूलगमन के कारण प्रतिक्रमण हैं।
अशुभ आचरण से मोक्ष फलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से प्रवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' कहलाता हैं। 36
भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधनार्थ प्रायश्चित, पश्चाताप व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा गर्हा करना प्रतिक्रमण कहलाता हैं 137
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साधक के द्वारा गुरु के समक्ष विपरीत आचरण के कारण 'मिच्छामि दुक्कडम्' अर्थात् 'मेरा दोष मिथ्या हो' - एसा निवेदन कर प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण हैं 138
प्रमादवश किये दोषों का निराकरण करना 'प्रतिक्रमण' हैं । 39 कृत दोषों की निवृत्ति 'प्रतिक्रमण' हैं। 40
चौरासी लाख गुणों के समूह से संयुक्त पाँच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण हैं। 41
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से व्रत में किये गए दोषों को शोधना, आचार्यादि के समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषों को प्रकट करना 'प्रतिक्रमण' हैं 142
वचनमय प्रतिक्रमण 'स्वाध्याय' हैं। 43
निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा क्रिया 'प्रतिक्रमण' कहलाती हैं। 44
अ.रा. पृ. 6/769-770 -522; आवश्यक बृहद्रुति - 3/1207 से 1211 प्रवचन सारोद्धार 100
भाष्यत्रयम् पृ. 229 (गुरुवंदन भाष्य गाथा 40 पर विवेचन )
अ. रा. पृ. - 6/770
अ. रा. पृ. 5/261, योगशास्त्र 3 / 129 पर स्वोपज्ञ वृत्ति; उत्तराध्ययनसूत्र, 29 वाँ अध्ययन
अ. रा.पू. 5/261, आवश्यक बृहद्वृत्ति अध्ययन- 4 श्रमणसूत्र - पृ. 87 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 3/115
अ. रा. पृ. 5/262, सर्वार्थसिद्धि 9 / 22, तत्त्वसार- 7 / 239; स्थानांग ठाणां-6
गोम्मटसार - जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका - गाथा 367 पृ. 790
समयसार तात्पर्य वृत्ति- 306, पृ. 388 भाव पाहुड टीका- 77 पृ. 221
धवला, गाथा-8, 14 पर टीका
मूलाचार-26
नियमसार - 153
प्रवचनसार - 207 पर तात्पर्यवृत्ति
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