Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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[242]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जो निर्वाण साधक योगों को साधता है, 18 दोषों का वर्जक, सुयति, समाचारी - स्थविरकल्पी साधु अनियतवासी होते हैं। वे मासकल्पादि मुक्तिसाधक, यथावस्थित यति, मुनि, ज्ञान-दर्शन-चारित्रक्रियायुक्त नियमानुसार विभिन्न ग्राम-नगर देश में विहार करते हैं। धर्मोपदेश देकर मोक्षमार्ग व्यवस्थित करनेवाला, ज्ञानादि क्रिया से मुक्तिसाधनप्रवण, शिष्यों को प्रतिबोधित कर प्रवज्या देते हैं। उनके पास प्रतिग्रह भिक्ष, सदाचारी, परमार्थिक यति, ब्रह्मचर्यादिगुणान्वित को 'साधु'
(गुच्छक) पात्र सहित, वस्त्र, अन्य औपग्रहिक उपधि दंड, आसनादि कहते हैं241
होते हैं, वे सपरिकर्मित या अपरिकर्मित वसति में रहते हैं। भाव साधु के लक्षण - भाव साधु चरण-करण युक्त
अभिग्रहसहित या अभिग्रहरहित, लेपकृत या अलेपकृत भिक्षा ग्रहण होता है, वह मोहविष का घात करता है; वह मार्गानुसारी, गंभीरचेता,
करते हैं। क्रोधाग्नि से अदाह्य, अकुथनीय, सदोचित शीलभावयुक्त होता है।
स्थविरकल्पी साधु उत्कृष्ट से तृतीय प्रहर में अपवाद से प्रथम आलयविहार, भाषा, चंक्रमणस्थान, विनय कर्म से साधु की पहचान
पोरिसी में भिक्षाचर्या (गोचरी) हेतु जाते हैं।40 दुर्बल संहनन होने के होती है25 | भावित अनगार युगमात्र दृष्टिपूर्वक चलता है।26
कारण, बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, क्षपक, प्राहुणा, आचार्य, उपाध्याय, धम्मपद में भी कहा है कि, जो मलविहीन है, शील में
शैक्षक (नवदीक्षित) आदि के लिए आहार हेतु, देवद्रव्यादि के नाशक जो रत है और जो इन्द्रियदमन तथा सत्य से युक्त है वह मनुष्य
को शिक्षा देने हेतु, स्वाध्याय हेतु, लघुनीति-बृहद् नीति हेतु, पूर्वगृहीत काषाय (साधुवेश) धारण करने योग्य है। आगे कहा है - यदि
पीठ-फलकादि देने हेतु, उपद्रव होने पर, जिनदर्शन आदि स्व-पर कार्य शास्त्रों का थोडा भी भाषण करता हुआ मनुष्य उसके अनुसार धर्माचरण करता है, राग-द्वेष और मोह का परित्याग करता है, सम्यक् प्रज्ञायुक्त
उपस्थित होने पर प्रथमादि प्रहर में भी विहार करते हैं, उपाश्रय से बाहर हुआ निश्चित चित्तवाला होता है तथा इसलोक और परलोक में आसक्ति
जाते हैं।। । स्थविरकल्पी साधु स्वल्प आयु शेष रहने पर भक्तपरिज्ञादि से रहित होता है वह श्रमण बनने योग्य होता है ।28 जो मनुष्य शांत,
अनशन करते हैं अथवा दीर्घायु और शक्तिसंपन्न होने पर जिनकल्प भी जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाला है तथा सारे
ग्रहण करते हैं। स्थविरकल्पी की यह समाचारी उत्सर्ग-उपवाद दोनों प्राणियों के प्रति दण्ड का त्यागकर चुका है, वह ब्राह्मण है, श्रमण
पदों से युक्त हैं।43 है, भिक्षु है, जो हाथ-पैर-वाणी से उत्तम रुप से संयत है, जो
जिनकल्प :अध्यात्मरत है, और जो समाधियुत, अकेला (परिग्रहरहित) और संतुष्ट
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार सूत्रार्थ को अव्यवच्छिन है, वह भिक्षु है।
(अबाधित) रखते हुए कम से कम 29 वर्ष कि आयु और जघन्य से 20 साधु के प्रकार :
वर्ष के दीक्षा पर्याय वाले गणधर, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर या क. साधु के तीन प्रकार होते हैं
अभिन्नदशपूर्वधर आचार्यादि या इन्द्रिय-कषाय-योगविजेता साधु 1. आचार्य - विशिष्टसूत्रार्थदेशक
दीर्धकाल तक स्थविरकल्प में दीक्षा पालन करते हुए वाचनादि देकर, 2. उपाध्याय - सूत्रपाठक (पठन-पाठन कर्ता)
अनेक शिष्यों को दीक्षितकर शासन को अबाधित रखते हुए आत्मकल्याण 3. सामान्य साधु
हेतु संघ या संघ के अभाव में गच्छ/गण को इकट्ठा कर सकल संघ से ख. साधु दो प्रकार के होते हैं -
क्षमापना करके वटवृक्ष या अशोकवृक्ष के नीचे प्रशस्त मुहूर्तादि में 1. गच्छवासी - (स्थविर कल्पी) 2. गच्छनिर्गत - जिनकल्पी आदि।
24. अ.रा.पृ. 7/802 स्थविरकल्प और जिनकल्प :
25. अ.रा.पृ. 7/802-803 जैसा कि कहा गया है, साधु दो प्रकार के होते हैं - 1.
26. अ.रा.पृ. 1/271 गचछवासी और 2. गच्छनिर्गत । अत: इनका कल्प अर्थात् आचरण भी 27. धम्मपद 1/10 दो तरह का होता है- 1. स्थविर कल्प - गच्छवासी साधु के आचार
28. धम्मपद 1/20 को स्थविर कल्प और उन साधुओं को स्थविर कल्पी कहा जाता है।
29. धम्मपद 10/14 2.जिनकल्प - जिनेश्वर के विहारकाल में विशिष्ट आत्माएँ जिनसदृश
30. धम्मपद 25/3
31. अ.रा.पृ. 7/803 कठिन साध्वाचार का पालन करती हैं, उसे जिनकल्प कहते हैं और उन
अ.रा.पृ. 7/803 साधुओं को 'जिनकल्पी' कहा जाता है।
33. अ.रा.पृ. 4/2387 स्थविरकल्प :
34. अ.रा.पृ. 4/1469 अभिधान राजेन्द्र कोश में स्थानांग सूत्र के अनुसार आचार्यश्रीने 35. अ.रा.पृ. 4/2387; स्थानांग 3/4 कहा है कि आचार्यादि की गच्छप्रतिबद्ध समाचारी को स्थविरकल्प 36. अ.रा.पृ. 4/2388 कहते हैं।
37. वही विधि - आचार्यादि के द्वारा सर्वप्रथम योग्य, विनीत शिष्य को 38. अ.रा.पृ. 4/2389 विधिवत् आलोचना देकर प्रशस्त द्रव्यादिगुणयुक्त गुरु के द्वारा प्रवज्या 39. अ.रा.पृ. 4/2390 दी जाती है। प्रवज्या के पश्चात् उसे 12 वर्षतक सूत्रों के अध्ययनरुप 40. अ.रा.पृ. 4/2391 शिक्षाग्रहण और प्रतिलेखन-प्रत्युपेक्षण आदि क्रिया के उपदेशरुप आसेवन 41. अ.रा.पृ. 4/2392 शिक्षा दी जाती है। पश्चात् 12 वर्षतक सूत्रों के अर्थ का ज्ञान कराया 42. अ.रा.पृ. 4/238 जाता है।
43. अ.रा.पृ. 4/2394
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