Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Author(s): Darshitkalashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust
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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [249] हुआ आहार तृतीय प्रहरान्त तक समाप्त करे; इससे अधिक न रखें । यदि ख. पात्र संबंधी - तुम्बी, काष्ठ या मिट्टी के पात्र, घडे आदि । उपयोग न कर सके तो मिट्टी, राख, रेती आदि में मिलाकर प्रतिष्ठापित आधाकर्म आहार ग्रहण करने से हानि :कर दे (परठ दे/त्याग कर देवें)। इसी प्रकार प्रदत्त भोजन साढे सात
आधा-कर्मी दोष से दूषित आहार ग्रहण करने से साधुकि.मी. से अधिक न ले जाये तथा रात्रि में लेप-अलेप (शुष्क) किसी साध्वी संयम से पतित होते हैं, जिनाज्ञा का भङ्ग होता है, अनर्थ की भी प्रकार का आहार अपने पास न रखे। (दवाई आदि भी धर्मलाभ परंपरा बढती है।, आधाकर्मी आहार स्निग्ध और स्वादिष्ट होने से देकर न रखे) । मुनि को गोचरी में 42 दोष रहित आहार ग्रहण करने की अधिक वापरने से रोगोत्पत्ति होती हैं, रोगादि कारण से सूत्र-अर्थ का विधि होने से आगे प्रसङ्गतः आहारग्रहण के 42 एवं आहार करने के स्वाध्याय नहीं होने से विस्मरण होने पर ज्ञान विराधना, शरीर-विह्वलता दोष, इस प्रकार कुल 47 दोषों का वर्णन किया जा रहा है।
से चारित्र में श्रद्धा की हानि होने से दर्शन विराधना, प्रत्युप्रेक्षणादि के 16 उद्गम दोष :
अभाव से चारित्र का नाश होने से ज्ञान-दर्शन-चारित्ररुप संयमी आत्मा शुद्ध आहारादि तैयार करते समय गृहस्थ के द्वारा साधु के
की विराधना होती है। रोग-चिकित्सा में षड्जीवनिकाय विराधना और लिए आहार तैयार करने में जो दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष कहलाते
वैयावच्ची साधु को सूत्रार्थ की हानि होने से संयम विराधना और रोगादि हैं। एसा दोष 16 हैं- .
कारण से लोक-निंदा दोष उत्पन्न होने से बिना कारण आधाकर्मी आहार 'आहाकम्मुद्देसिय, पुइकम्मे य मीसजाए य।
त्याज्य हैं। आठों कर्मों का बंधन होता है और अनेक भवों तक संसार ठवणा पाहुडियाए, पाऊपरकीय पामिच्चे ॥
भ्रमण की वृद्धि होती हैं।15 परियट्टिए अभिहडे, अभिन्ने मालाहडे य ।
2. औद्देशिक दोष :अच्छिज्जे अणिसिटे, अज्झोयरए य सोलसमे ॥"6
साधु का आगमन सुनकर या दुर्भिक्ष आदि कारण से प्रथम से ये सोलह दोष 'उद्गमदोष' कहलाते हैं, जो आहारादि देने तैयार किये हुए आहारादि को साधु-साध्वी के लिए गुड, शक्कर, दही वाले गृहस्थों से लगते हैं, अतः इन्हें अवश्य यलना चाहिए। इनका आदि से स्वादिष्ट करना ।16 औद्देशिक दोष दो प्रकार का है।7 - विवरण निम्न प्रकार से हैं
(1) ओध/सामान्य - आहार बनाते समय ही साधु-साध्वी के 1.आधाकर्म दोष :
निमित्त से उसे स्वादिष्ट करना। साधु-साध्वी के लिए गृहस्थ के द्वारा षड्जीवनिकाय की
(2) विभाग - बने हुए आहार में से अपने लिए आहार अलग विराधना (हिंसा) पूर्वक आहार को अचित्त करके या अचित्त आहार को
रखना और साधु-साध्वी के लिए अलग आहार निकालकर उसे पकाकर देना 'आधाकर्म दोष' है। आधा कर्म, अध:कर्म, अहाकर्म,
गुडादि से स्वादिष्ट करना 'विभाग औद्देशिक दोष' हैं। आयाहम्म और अत्तकर्म - ये आधाकर्म के पर्यायवाची शब्द हैं।
औदेशिक आहार ग्रहण करने से स्थापना, वनीपक, संखडी आधाकर्म अर्थात् साधु-साध्वी के निमित्त से किया गया।
इत्यादि आहार दोष लगने की भी संभावना रहती है। अत: मुनि को यह दोष साधु को अधोगति योग्य बंधन कराता है अतः उसे 'अधः
औद्देशिक आहार त्याग करना चाहिए।18 कर्म' कहते हैं; उससे जीव हिंसादि आस्रव-प्रवृत्ति होने से आत्मा
अपवाद - औद्देशिक आहार दूषित है तथापि अपवादिक परिस्थितियों को दुर्गति प्राप्त कराने के कारण उसे 'अहाकर्म' कहते हैं; पाचनादि
में यह ग्राह्य भी है- यह बताते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने
कहा है कि "आचार्यादि के पदवीदान (अभिषेक-पाटोत्सव) के प्रसङ्ग क्रिया के कारण ज्ञानावरणीय कर्मबंधन के कारण 'आयाहम्म' कहते
में, साधु के बीमार होने पर अथवा अरण्य में, विकट रास्तों में या विकट हैं और आत्मा के द्वारा तत्संबंधी क्रिया होने के कारण इसे 'आत्मकर्म' कहते हैं।
4. अ.रा.भा. 3 'गोयरचरिया' शब्द, पृ. 968-1004 आधाकर्म के भेद - मुनि के जीवन में निम्न विषयों में आधाकर्म अ.रा.पृ. 2/720, 7/725
6. दोष की संभावना हो सकती है
अ.रा.पृ. 2/721, पिण्ड नियुक्ति-९२, ९३
7. अ.रा.पृ. 2/243-44 गच्छाचार पयन्ना 1/21 की टीका; स्थानांग-3/4, 1. वसति संबंधि आधाकर्म - साधु के निमित्त बनाया गया
पञ्चाशक-13/7 पर टीका; दशाश्रुत स्कंध-अध्ययन-2; व्यवहार सूत्र वृत्तिउपाश्रय मण्डप आदि।
3/164 पर टीका; दर्शन शुद्धि सटीक-4/6 पर टीका आहार संबंधी आधाकर्म - साधु के निमित्त निम्नांकित चारों
अ.रा.पृ. 1/589, अ.रा.पृ. 2/244, 248, 249%; बृहत्कल्पवृत्ति सभाज्यप्रकार का आहार निष्पन्न करना - 'आधा कर्म' दोष है
4/456 की टीका (1) अशन - चावल, गेहूँ आदि से निर्मित पका हुआ आहार
अ.रा.पृ. 2/256; या घी, खीर आदि।
10. अ.रा.पृ. 2/256, पिड नियुक्ति-160, 161 (2) पान - सभी प्रकार के प्रासुक जल और उबला हुआ 11. अ.रा.पृ. 2/257; निशीथ चूर्णि, 10 वाँ उद्देश अचित्त जल।
12. अ.रा.पृ. 2/256
13. (3) खादिम - नारियल, आम, चीकू आदि तथा पुष्पादि।
अ.रा.प्र. 2/260,2613;
14. पिण्डनियुक्ति पराग-पृ. 74, 75 (4) स्वादिम - सौंठ, इलायची, लौंग आदि।
15. अ.रा.पृ. 2/266; 3. उपधि संबंधी आधाकर्म - यह दो प्रकार का हैl -
16. अ.रा.पृ. 2/845% क. वस्त्र संबंधी - कपास, ऊन, शण, पत्ते आदि के वस्त्र, आसन,
17. अ.रा.पृ. 2/848%B संथारिया आदि।
18. अ.रा.पृ. 2/848-849%;
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8.
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